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आर्तो और क्रूरता का रंगमंच

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आर्तो के रंगमंच सम्बन्धी विचारों को समझने के लिए रंगमंच की प्राचीनतम अवस्था से लेकर बीसवीं शताब्दी के मनोवैज्ञानिक रंगमंच तक की समझ होना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो आर्तो का चिंतन एक पागलपन और प्रलाप से ज़्यादा शायद ही कुछ लगे। मोटे तौर पर बात इतनी है कि प्राचीन काल में धार्मिक अनुष्ठानों के साथ जुड़ा रंगमंच आर्तो से पहले एक समृद्ध मनोवैज्ञानिक रंगमंच के रास्ते, रंगमंच और समाज दोनों ही एक खास तरह की नैतिकता व शुद्धतावादी मानसिकता से ग्रस्त हो चुका था। पारंपरिक कलाएं हाशिए पर या संग्रहालय में स्थान पाने को अभिशप्त हो चुकी थी। और ओद्योगिक क्रांति और पूंजीवादी मानसिकता की चपेट में आकर मानवसमाज विश्वयुद्ध की पागलपन भरी राह की ओर अग्रसर हो चुका था। पूँजी और रुतवा सफलता के मापदंड के रूप में स्थापित हो चुके थे और सार्थकता की परिभाषा चुनौतीपूर्ण रूप से सफलता में बदल दी जा रही थी। तो क्या आर्तो का रंगमंच सम्बन्धी चिंतन इन तमाम चीज़ों से एक विद्रोह था?
आर्तो एक असफलता का भी नाम है लेकिन सफल व्यक्ति ही सार्थक हो ज़रुरी नहीं, ठीक उसी प्रकार यह भी ज़रुरी नहीं कि हर असफलता अर्थहीन ही हो। यह संभव है कि अपने समय का असफल व्यक्तित्व भविष्य के लिए बहुत कुछ गढ़ रहा हो। वैसे भी एक सफलता के पीछे कई सारी असफलताएं होती हैं। सफलता और सार्थकता दो भिन्न बातें हैं, जो एक साथ भी हो सकती हैं और नहीं भी।
हर सदी में बहुत से सफल लोग होते हैं और ढेर सारे असफल। इन असफल लोगों की भी अपनी-अपनी उपलब्धियां और सफलताएं-असफलताएं होतीं हैं। बीसवीं शताब्दी बहुत सारी उपलब्धियों के साथ ही साथ आधुनिक और वैज्ञानिक नाट्य व अभिनय चिंतन में उल्लेखनीय योगदान के लिए भी जाना जाता है। जिनमें कॉन्स्तानतिन स्तानिस्लाव्स्की, व्सेवलोद मेयरहोल्ड, माइकेल चेखव, बर्तोल्त ब्रेख्त, जैक्स कॉप्यु, ली स्त्रासबर्ग, स्टेला एडलर, सेनफोर्ड, सेनफोर्ड माइज्नर, जौसफ शैकीन, जेर्जी ग्रोतोव्सकी, पीटर ब्रुक, युजिन बार्बा, व्लोदजिमिर्ज़ स्तानिएव्सकी आदि जैसे अभिनेता, निर्देशक व चिन्तकों के नाम प्रमुख हैं। इन सबसे इतर एक नाम और है क्रूरता के रंगमंच के जनक आर्तो का, जिनके लिए रंगमंच ताउम्र मुक्ति और आत्मशुद्धि का मार्ग बना रहा। आर्तो कहते हैं “मैं अपने को जीवित महसूस नहीं करता, लेकिन मंच पर मैं महसूस करता हूँ अपने अस्तित्व को।” आर्तो एक कठिन पहेली भी हैं। ग्रोतोव्स्की ने थी ही यह कहा है कि “एक तरह से देखें तो आर्तो ने अपने पीछे न कोई सिद्धांत छोड़ा है न कोई तयशुदा तकनीक किन्तु दूसरी तरह से देखें तो दी है अंतर्ज्ञान, दृष्टिगत समझ और रूपयुक्त छवियों की भाषा।”
आर्तो एक परिचय– ताउम्र मुफलिसी, अस्वीकार, विवाद, आलोचना, अकेलापन व जीवन के नौ साल पागलखानों में जबरन यातना झेलते हुए व्यतीत करनेवाले अभिनेता, कवि, निर्देशक, चित्रकार, नाट्य सिद्धांतकार के रूप में प्रसिद्ध आर्तो का पूरा नाम ओंतोनी मारी जोसेफ़ आर्तो है। इनका जन्म 4 सितम्बर 1896 को दक्षिण फ्रांस के मार्सेल में तथा मृत्यु 4 मार्च 1948 को पेरिस में हुआ। महज पांच साल की उम्र से मेनेंजाइटिस दौरा पड़ा। इस बीमारी की वजह से ताउम्र उन्हें यातनादायक सिरदर्द सहना पड़ा। इस पीड़ा से लड़ने के लिए नशीली दवाओं का सेवन मजबूरन उनकी ज़िंदगी का एक ज़रुरी हिस्सा बन गया। कई अन्य बीमारियाँ भी ताउम्र उनसे चिपकी रहीं। नींद में चलने की आदत की वजह से फ्रेंच आर्मी से निष्काषित हुए। सन 1920 में लेखक बनने के उद्देश्य से पेरिस आगमन व कलात्मक जीवन का प्रारंभ। 1924 से 1935 के बीच लगभग बारह फ़िल्में में अभिनय, जिनमें नेपोलियन व द पैशन ऑफ जोन ऑफ आर्क प्रमुख फ़िल्में हैं। सन 1931 में उन्हें बलिनिज़ नृत्य देखने का अवसर मिला। यह बालिस्लैंड इंडोनेसिया की एक अतिप्राचीन पारंपरिक नृत्य शैली है जिसमें ताल-लय युक्त शारीरिक भाव-भंगिमा का उर्जावान प्रयोग द्वारा कहानी कही जाती है। इस नृत्य और मार्क्स बंधुओं की फिल्म एनिमल क्रेकर्स व मोंकी बिज़नेस का आर्तो के रंगमंच सम्बन्धी विचारों पर गहरा प्रभाव माना जाता है। आर्तो के रंगमंच में विद्रोही तत्व मार्क्स बंधुओं की फिल्मों की देन माने जाते हैं। इसी वर्ष First Manifesto for a Theatre of Cruelty नामक आलेख का प्रकाशन हुआ। उनकी प्रमुख रचना The Theatre and Its Double का प्रकाशन 1938 में हुआ। यह पुस्तक आर्तो के रंगमंचीय अवधारणा Theatre of Cruelty (क्रूरता का रंगमंच) का घोषणापत्र भी माना जाता है। आर्तो का मानना था कि रंगमंच को सच्चाई का पुनर्प्रदर्शन करके दर्शकों पर ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावित करना चाहिए।
अमूमन यह ऐतिहासिक सच नज़रंदाज़ कर दिया जाता है कि आर्तो का काल विश्वयुद्धों (प्रथम 1914–1918, द्वितीय 1939–1945) का काल भी रहा है और दुनियां का कोई भी संवेदनशील कलाकार एतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक घटनाक्रमों के प्रभाव से वंचित कैसे रह सकता है और वो भी फ्रांस जैसे देश का नागरिक होकर। रंगमंच और क्रूरता नामक अपने आलेख में आर्तो यूं ही नहीं कहते हैं कि “जिस वेदना और संकट के समय में हम रहते हैं, ऐसे में हम उस रंगमंच की ज़रूरत को तीब्रता से महसूस करते हैं, जो किसी घटना की छाया से प्रभावित न हो, जो उत्साहित कर सके हमारी गूंज को, जो उस अव्यवस्थित समय पर हावी हो जाए, उसको गहरे प्रभावित कर ले।” ज्ञातव्य हो कि अपने रंगमंच और प्लेग नामक आलेख में आर्तो मंच पर विकराल और डरावना समय में आपदा की स्थिति उत्पन्न कर क्रूरतम सच्चाई को उद्घाटित करने की बात करते हैं।
आर्तो और रंगमंच – रंगमंच एक स्वतंत्र अलौकिक कला है यह माननेवाले आर्तो के लिए रंगमंच की अवधारणा सच्चा है, जो सामाजिक अवधारणाओं को रद्द करने की बात करता है। यहाँ वैचारिक क्रांति के लिए जगह और नस्लवाद की मुखालफत है। रंगमंच पर विचार करते हुए आर्तो ने कई ऐसी बातें कही जिससे आजतक ना जाने कितनों ने प्रेरणा हासिल किया है। आर्तो कहतें है “हम रंगमंच के विचार से वेश्यावृत्ति जारी नहीं रख सकते जो सिर्फ़ उस नैतिक मूल्य के साथ बसती है। जो पीड़ा और संघर्ष से भरे जादुई अंतर्सबंधों के यथार्थ और खतरे में निहित है।”
सच्चा रंगमंच एक सृजनात्मक अनुभूति है जो ‘यथार्थ जगत’ की नक़ल नहीं हो सकता। यहाँ यथार्थ का पुनर्परीक्षण होता है। शब्द, संकेत, सार्थक सैधान्तिकी (Metaphysical) को सृजित करने के साथ ही साथ आर्तो रंगमंच की अपनी एक विशिष्ट भाषा तलाशने के पैरोकार थे, बने-बनाए आलेख से उनका मोह नहीं था बल्कि वो तो बार-बार आवरण रहित, जादुई, ताल-लय से भरपूर, काव्यात्मक, प्रतीकात्मक, अनुष्ठानिक, कोडिफाइड, सीमारहित और सपनों जैसा रंगमंच की बात करते हैं।
आर्तो रंगमंच में प्रभावशाली दृश्य और उत्तेजना को फिर से तलाश करने के पक्षधरता के साथ कहते हैं “रंगमंच में जीवन है, ऐसा जीवन जो अपनी प्रमाणिकता लिए हो, जिसमें कोई असत्य, कोई दिखावा और पाखंड न हो। जीवन, जो भूमिका खेलने के विपरीत है, जिसमें जीवन का पुनर्निर्माण होता है। किसी भी प्रदर्शन के मूल आधार में क्रूरता के तत्व के बिना कोई दृश्य प्रभावशाली नहीं हो सकता। हमारी गिरती संवेदनशीलता आज उस बिंदु तक आ पहुंची है जहाँ हमें यक़ीनन एक ऐसे रंगमंच की ज़रूरत है जो हमारी भावनाएँ और विचार दोनों को जाग्रत कर दे। हम ऐसा रंगमंच चाहते हैं जो विश्वसनीय सच्चाई की ठोस रूप से पड़ताल कर सके, जो भावनाओं के रूप में ह्रदय और इन्द्रियों में समा सके, ठीक उस तरह जिस तरह हमारे स्वप्न हमारे यथार्थ को उस हद तक प्रभावशाली रूप में अभिनीत करते हैं, जहाँ पहुंचकर वे उस हिंसा को महसूस करते हैं।”
आर्तो रंगमंच को किसी भी राजनैतिक विचार के प्रभाव से मुक्त रखने के पक्षधर थे। वे अपने लिखे को हमेशा अपर्याप्त और दोषपूर्ण मानते थे। उसकी एक वजह एक खास तरह की बेचैनी, उन्हें उचित स्थान व सम्मान न मिलना हो सकता है। पल-पल इम्तहानों से गुजरनेवाले आर्तो ने शायद विषाद से ग्रस्त होकर यह लिखा कि “दैत्याकार शक्तियों ने मुझे धकेल दिया है, इसलिए इसे स्वीकार करते हुए मैं क्या हूँ, मैंने यह तलाश छोड़ दी है।”
आर्तो प्राचीन रंगमंच के मिथकों, अनुष्ठानिकता, स्वप्नलोक से बड़े प्रभावित थे और उसे नए अर्थ में अपनाने की भी बात करते थे क्योंकि यदि इन चीज़ों को जैसे का तैसा रख दिया जाय तो वो अर्थहीन होगा। आर्तो रंगमंच में शब्दों से ज़्यादा मनोवृति और भावनाओं के समर्थक थे। वे मानते थे कि शब्दों का प्रभाव सामान्य सा होता है। उनका यह भी मानना था कि वास्तविक भावनाओं को मंच पर अभिनीत नहीं किया जा सकता है बल्कि ऐसा करने को वो एक धोखा भी मानते थे।
रंगमंच और प्लेग– आर्तो के इस बहुचर्चित व मुश्किल संभाषण का पाठ 1933 में आएन्दी के आयोजन में सर्बोन बौधिक श्रृंखला के तहत किया गया था। इसमें आर्तो रंगमंच की तुलना प्लेग जैसी महामारी से करते हुए कहते हैं – रंगमंच प्लेग जैसा है, एक ऐसा संकटकालीन चरमबिंदु जो स्वयं ही उसकी दवा है। प्लेग एक ऐसी निरंकुश संकट है जिसमें मौत, तबाही या सबकुछ पाक-साफ़ के अलावा तीसरा रास्ता नहीं होता। रंगमंच ऐसी ही स्थिति बनाता है। रंगमंच अपने में सर्वोत्कृष्ट संतुलन है, जो मस्तिष्क का आह्वान करता है, उसे सन्निपात की स्थिति तक ले जाकर उसकी सोचने की शक्ति तीव्रतर कर देता है और अंत में सब विध्वंस होने के बाद गहन मानवीय दृष्टिकोण उद्घाटित होता है : रंगमंच प्लेग जैसा है क्योंकि हमें यह देखने के लिए उकसाता है कि हम वास्तव में अंदर से कैसे हैं। यह हम पर दबाव डालता है ताकि हम बाहरी मुखौटे को गिराकर झूठ, पाखंड, पंगुपन का पर्दाफ़ाश होने दें।” आर्तो लिखते हैं “मैं दर्शकों को सीधी मुठभेड देना चाहता हूँ, प्लेग के लिए प्लेग ही देना चाहता हूँ, ताकि वे डर जाएँ, जाग जाएँ। मैं उनको जगाना चाहता हूँ। उनको यह एहसास नहीं कि वे मर चुके हैं। उनका मरना, उनका अंधा, उनका बहरा होना, यही मेरी व्यथा है जिसे मैंने सामने रखा है। हां मेरी और हर उसकी व्यथा जो ज़िंदा है।”
आर्तो रंगमंच की तुलना प्लेग से इसलिए नहीं करते कि यह एक संक्रमण और छूत की बिमारी है बल्कि उसके प्रभाव की बात करते हैं जो भड़कता है और फैलता चला जाता है। आर्तो के अनुसार प्लेग एक महामारी का रूप धारण कर तमाम सामान्य सामाजिक अनुशासन व्यवस्था को ध्वस्त कर देता है ठीक यही काम रंगमंच अपने दर्शकों पर करता है। आर्तो प्लेग की तरह रंगमंच के द्वारा समाज की सारी बीमारियाँ साफ़ करने की बात करते हैं। रंगमंच को प्लेग जैसा प्रभावकारी बनाना चाहते हैं। वे प्लेग की ही तरह रंगमंच में ऐसी ताकत देखते हैं जो अपने फैलाव में ऐसी ताकत पैदा करती है जो विचार (दिमाग) की तरफ़ लौटती है और अंदर चल रहे संघर्ष को प्रेरित करती है; और हम फैंटेसी को अपनी संवेदना में साफ़-साफ़ अनुभव करने लगते हैं। तब एक अवचेतन में खौफभरी स्थिति पैदा होती है जिसमें रहस्यमय स्थिति का भ्रम पैदा होता है, उसका सच सामने आने लगता है और अंधेरे में पुलकित होता दिखाई पडता है।
रंगमंच प्लेग जैसा ही लाभकारी है। यह हमें तमाम बाधाओं और भौतिक जड़ता को पार कर आमने आपको देखने-समझाने को बाध्य करता है, बने बनाए नियम-कायदे सब टूट जाते हैं और छिपे हुए अंधेरे के पीछे से इंसानी शक्ति उजागर होती है। यह शक्ति इंसान को साहस, नैतिकता के साथ परिस्थितियों के सामने सर उठाकर खड़ा होने की शक्ति देती है।
रंगमंच और क्रूरता– यह हर तरह के आधिपत्य से मुक्त और आडम्बरहीन रंगमंच की एक विद्रोही अवधारणा है, आर्तों के इस अवधारणा को हिंसा के सन्दर्भ में नहीं बल्कि नवीन सृजन के सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए। यहाँ क्रूरता का अर्थ कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे धरती का सीना फड़के कोई नया बीज पनपता है। आर्तो कहते हैं कि “किसी भी कर्म को अभिनीत करना क्रूरता है। क्रूरता के रंगमंच का विचार जनमानस के रंगमंच को प्रस्ताव देना है, उसको अपनाना है। इसलिए हमें रंगमंच का पुनर्निर्माण करना चाहिए। हम रंगमंच की समझ खो चुके हैं। हमारी मनःस्थिति उस छोर तक जा पंहुची है जहाँ उस रंगमंच की नितांत आवश्यकता है, जो हमारे दिलों की धडकन, हमारे धैर्य और हमारी इन्द्रियों को जागृत करता है। विरासत में मिले ध्यान को भटका देनेवाली आदतों के चलते हमने उस गहन सूक्ष्म रंगमंच के विचार को भूला दिया है जिसमें हमारे अपने पूर्व ज्ञान को नष्ट कर देने की शक्ति है। अपने आपमें उस गहन और उग्र विचार के साथ जिसको संकीर्ण कर सीमित कर दिया गया है। रंगमंच को एक विश्वास करनेवाली वस्तु बनाया जाय जो भावना और चेतना के स्तर पर आगे बढ़ाई जा सके। एक ऐसा रंगमंच जो अपने में पूरी कायनात समेटे नए बिम्बों के साथ दर्शकों से सीधा संवाद करे। यहाँ मंचीय घटनाओं में इतनी जीवन्तता हो कि वो पहले से नपी तुली तमाम तैयारियों को झटके में तोड़ दे। एक ऐसा रंगमंच जहाँ ज़िंदगी अपना सब कुछ खो दे और दिमाग सब पा ले।”
क्रूरता के अर्थ को प्रतिपादित करते हुए आर्तो का मानना है “क्रूरता मेरे विचार की सहयोगी नहीं यह तो हमेशा से ही रंगमंच मौजूद थी। मैं क्रूरता या निर्ममता का उपयोग, जीवन्तता की भूख, ब्रह्मांडीय पूर्णता, न चुकनेवाली अनिवार्यता, इस कायनात में बसे उसके रूप, अंधेरे में समेटे रहस्यमय भवंर के रूप में लेता हूँ। जहां जीवन के लिए अनिवार्य रूप में क्रूरता की आवश्यकता है। इस कष्ट को उठे बिना जीवन का चक्र चलाया नहीं जा सकता। ऐसे ही अर्थों में क्रूरता का अर्थ प्रतिपादित किया जाना चाहिए। प्रत्येक वस्तु जिसका जीवन जड़ नहीं, वह क्रूरता के लिए है। उदाहरणार्थ : जब बच्चे का जन्म होता है तो पीड़ा क्या होती है, जन्मदाता जानती है। मृत्यु हो या जन्म, दोनों में सामान क्रूरता है। भूख, प्रेम, आग, वर्षा, इस पृथ्वी का स्वभाव सभी क्रूरता लिए हुए हैं। गति की ज़रूरत में परिवर्तनशीलता, अंधेरे के लिए रौशनी, पदार्थ के लिए जीवन भाव, जड़ से चेतन का भाव, संघर्ष से पीड़ा तक सभी में क्रूरता निहित है।”
क्रूरता का रंगमंच : पहला घोषणापत्र– 1933 से 34 के बीच लिखित आर्तो की यह रचना उनके रंगमंच सम्बन्धी खोजों को प्रस्तुत करती है जिसमें वे रंगमंचीय तकनीक, प्रयोग वस्तु, प्रदर्शन, अभिनय, भाषा, संगीत उपकरण, प्रकाश, वेशभूषा, मंच-सभागार, मंच सामाग्री, सजावट, सामयिकता, प्रस्तुति, अभिनेता, नाट्यलेख आदि विषय पर अपने विचार रखते हैं। क्रूरता का रंगमंच यह शीर्षक देने से पहले आर्तो सर्व रसायन रंगमंच (The all chemical Theatre), अधिभौतिक रंगमंच (The metaphysical theatre), सत्यपरिक्षा का रंगमंच (The theatre of the doily), विकास का रंगमंच (The theatre of evolution), चरम रंगमंच (The theatre of the absolute) आदि नामों पर विचार कर रहे थे।
आर्तो और अभिनेता– अभिनेता एक क्रियाशील व्यायामी की अवधारणा आर्तो रेड इंडियंस के पयोते नामक नृत्य से प्रेरित होकर किया था। अभिनेता को आर्तो ने भावनात्मक स्तर पर कसरत करनेवाला व्यक्ति भी कहा है। वे अभिनेता को रंगमंच का एक प्रमुख कारक मानते हुए कहते हैं “क्योंकि प्रस्तुति की सफलता उसके अभिनय की प्रभावशीलता पर निर्भर करता है।” एक सच्चे अभिनेता का मकसद है मंच पर जीवन को जीवंत तरीके से जीना और उसे शाश्वत साकार करना है। आर्तो कहते हैं “अभिनेता मेरे लिए एक भावनात्मक व्यायामी की तरह है जो एक ही समय में भावों का संचार, उनका संचालन और अभिनय करता चलता है। मंच पर अभिनय करते समय वह अपने को विभाजित करता है और भावनात्मक संघटन की स्थिति प्राप्त करता है।”
आर्तो का नाटक द सेंसी – एल्फ्रेड जैरी थियेटर द्वारा क्रूरता के रंगमंच का एक मात्र प्रयोग नाटक द सेंसी असफल साबित होता है। यह नाटक सोलहवीं सदी की एक सत्य घटना पर आधारित थी। फ्रांको सेंसी (1549-1598) रोम का एक निर्दयी संभ्रांत व्यक्ति था। सात बच्चों की माँ बनने के पश्चात इसकी पत्नी का देहांत हो जाता है। तत्पश्चात वह एक अत्यंत ख़ूबसूरत महिला पेत्रोनी से ब्याह और अपने बेटों की हत्या और बेटी के साथ बलात्कार करता है। उसकी एक बेटी अपने बाकि बचे भाइयों तथा सौतेली माँ के साथ मिलकर सेंसी की हत्या की योजना बनाती है। अन्तः भाड़े के हत्यारों के द्वारा सेंसी की क्रूर हत्या कराई जाती है। साजिशकर्ता पकड़ लिए जाते हैं और उनपर मुकद्दमा चलाया जाता है। सेंसी की हत्या के जुर्म में रूढ़िवादी पोप सबका सिर कलम कर देने का हुक्म देता है।
इस नाटक के बारे में आर्तो का कथन था “यह नाटक दर्शकों के लिए आग के स्नान घर में घुसने के सम्मान होगा। दर्शक अपनी आत्मा और स्नायु के कंपन के साथ प्रदर्शन में भाग लें।” नाटक का पूर्वाभ्यास अत्यंत दैनीय स्थिति में चला रहा था। अभिनेताओं के समझ में ही नहीं आता कि आर्तो उनसे क्या चाहते हैं। बहुत सारी कठिनाइयों के बावजूद इस नाटक का प्रथम प्रदर्शन 7 मई 1935 हुआ, जो दर्शकों के लिए एक दुस्वप्न सबित हुआ और मात्र सत्रह प्रदर्शनों के पश्चात नाटक बंद हो गया।
द थियटर एंड इट्स डबल – आर्तो द्वारा रंगमंच पर लिखित निबन्धों का यह संग्रह मात्र नहीं बल्कि एक ऐसी दुर्लभ रचना है जो रंगमंच की नब्ज़ को पकड़ती है, पूर्वी रंगमंच की समझ और आधुनिक रंगमंच में मिथकों की अनिवार्यता पर ज़ोर देती है।
अंततोगत्वा -“यह है वह – अविश्वनीय, हां – अविश्वसनीय, यह अविश्वसनीय ही है, जो सच है।” जैसे ख़याल थे जो आर्तो के अकेलेपन की उपज थे। आर्तो अब अजीब हरकतें कर रहे थे। कभी डब्लिन की गलियों में अपनी छड़ी हिलाकर लोगों को अपने अभिनय में साथ देने की ज़िद्द करते तो कभी ईसा की शक्ति को आर्तो के अंदर समाहित करने का ख्याल करते। जीवन के अंतिम वर्षों में आर्तो बंदी बना लिए जाते हैं और लगभग नौ साल तक पागलखानों में इलाज के नाम पर बिना बेहोश किए बिजली के झटकों की यातना सहने पर मजबूर कर दिए जाते हैं। आर्तो ताउम्र अपने रंगमंच की खोज में लगे रहे। आर्तो अपने टूटे फूटे शब्दों में कहते हैं “मुझे मालूम है मेरा व्यवहार धीरे-धीरे खराब होता जा रहा है। मैं जब भी अपनी छड़ी का इस्तेमाल करता हूँ, मुझे अपने भीतर अयोग्यता और आत्मा में खालीपन का अनुभव होता है।”
आर्थर अदामव, मार्थ रॉबर्ट, ब्रेटो जूवे, ब्राक, पिकासो, गिआकोमेती, सार्त्र, सिमोन आदि के प्रयासों से आर्तो को पागलखाने से निकालकर एक निजी चिकित्सालय में रखा जाता है, जहाँ अपनी बची खुची उर्जा वो वॉनगॉफ के चित्रों के देखने के पश्चात एक महत्वपूर्ण आलेख लिखने में लगते हैं। 52 वर्ष की अवस्था में पीड़ा, यातना, अस्वीकार और अकेलपन से जर्जर हो गए आर्तो 4 मार्च 1948 को अपने पलंग के पास शांति से बैठे हुए पाए जाते हैं। यह मृत्यु और सुकून का आलिंगन था।
यह सबकुछ आर्तो का पागलपन था या वो कुछ कह रहे थे जिसे विश्वयुद्ध के दौरान कोई समझने को तैयार नहीं था ! आर्तो भौतिकता से आध्यात्मिकता, वास्तविकता से कल्पना की ओर उड़ान भरनेवाले जिस रंगमंच की परिकल्पना कर रहे थे उसके लिए शायद उस वक्त दर्शक और नाट्य समीक्षक तैयार नहीं थे। क्रूरता के रंगमंच के जनक के ऊपर क्रूरता के बावजूद विश्व रंगमंच के आकाश में आर्तो और उनका रंगमंचीय चिंतन आज एक ऐसी चमकती पहेली है जिन्हें सुलझाया और समझा जान अभी शेष है। 

रंगमंच और मीडिया : विकास की उल्टी प्रक्रिया !

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मीडिया मूलतः दो प्रकार का है - प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक | रंगमंच के बारे में विद्वानों का मत है कि यह भी मूलतः दो प्रकार का ही है – शौकिया और व्यावसायिक | जात्रा, पारसी, नौटंकी के साथ ही साथ पारंपरिक रंगमंच लगभग लुप्तप्राय हो चुके हैं | भारत में व्यावसायिक रंगमंच कहाँ और कितना है यह एक शोध का विषय हो सकता है ! भारतीय रंगमंच का मूल स्वरुप शौकिया ही है | मीडिया का दायरा जहाँ दिन-प्रतिदिन और ज़्यादा विस्तृत हो रहा है वहीं रंगमंच का दायरा तमाम सरकारी सहयोगों के बावजूद दिन-प्रतिदिन सिमट रहा है | कैरियरिज़म के वर्तमान दौर में यह सिमटन वैचारिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यक्तिगत आदि स्तरों पर देखी जा सकती है | रंगमंच क्यों ? इस छोटे से सवाल का जवाब आज बड़े-बड़े रंगकर्मियों और समाज के पास नहीं है ! शायद इसीलिए नाट्य विद्यालयों से निकलनेवाले छात्र एकाएक बेमकसद होकर खाक छानने को अभिशप्त हैं, क्योंकि रंगमंच करने के पीछे उनका उद्येश्य नाट्य विद्यालय में दाखिला लेना था | दाखिला मिल गया, पास आउट भी हो गए, अब ? बिना मकसद के संचालित होने वाला कलाकर्म हर स्तर पर अराजकता और व्यक्तिवाद को ही बढ़ावा देगा, ये तय है |
रंगमंच एक समय में एक स्थान पर होनेवाला कलाकर्म है और मीडिया एक चीज़ को घर-घर पहुंचानेवाला माध्यम | सूचनाएं, न्यूज़ और व्यूज़ के सहारे चलनेवाला मीडिया रंगमंच से और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को जोड़ने, इसके दस्तावेज़ीकरण, समीक्षात्मक चिंतन में एक प्रखर भूमिका का निर्वाह कर सकता है | उपरोक्त बातें हम केवल प्रिंट मिडिया के सन्दर्भ में कर रहें हैं क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मिडिया ने अभी तक रंगमंच को कोई खास जगह नहीं दिया है | भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अभी नया है और फिलहाल पेड न्यूज़, ब्रेकिंग न्यूज़ और टीआरपी की चपेट में फंसकर गलाकाट प्रतियोगिता में संलग्न है | हमारे यहाँ लगभग हर चीज़ का एक अलग चैनल है सिवाय पारंपरिक कला और रंगमंच के | वैसे प्रिंट मीडिया की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है | विज्ञापनों के साथ ही साथ क्रिकेट और सिनेमा की खबरें हर अखबार को अपने कब्ज़े में जकड़ चुकी है वहीं नाटकों के मंचन से लेकर प्रतिबंध जैसी ख़बरें बमुश्किल ही यहाँ स्थान बना पातीं हैं |
मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है लेकिन भारतीय सन्दर्भ में यदि लोकतंत्र की बात करें तो ये साफ़ लगता है कि यह अभी वयस्क नहीं हुआ है बल्कि दिन-प्रतिदिन खतरनाक रूप से अराजक होता जा रहा है | असहमति का स्वर अब विद्रोह माना जाता है | क्रिकेट के एक शतक से एक व्यक्ति लखटकिया नायक हो जाता है वहीं पूरा जीवन कला, साहित्य, रंगमंच की सेवा करनेवाला कलाकार और आम आवाम जीवन की मूलभूत सुविधाओं तक से महरूम है | ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के खम्भों की क्या हालत होगी इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है | चंद बड़े नामों को छोड़ दें तो पत्रकारों की स्थिति भी कुछ खास अच्छी नहीं है |  
एक वक्त था जबअधिकतर प्रतिष्ठित अखबारों में साप्ताहिक कला और संस्कृति नामक पन्ना प्रकाशित हुआ करता था जिनमें नाटकों, गीत, संगीत, नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर समीक्षात्मक व सूचनात्मक आलेखों का प्रकाशन होता था |  तब समाचार का मूल माध्यम अखबार, रेडियो तथा दूरदर्शन हुआ करता था | फिर विचार के अंत (Post Modernism) की घोषणा के साथउदारीकरण, निजीकरण और बाज़ारवाद का ऐसा दौर आया और उसी के साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया की कुछ ऐसी आंधी चली कि लगा अखबार के दिन गए ! पर ऐसा हुआ नहीं | हाँ, अखबारों ने इस दौरान अपना स्वरूप बदला और धीरे- धीरे उन खबरों को विलुप्त करता गये जो ‘गंभीर’ की श्रेणी में आती थीं | कला-संस्कृति भी यहाँ से विलुप्त हो गई और किसी ने मीडिया के इस कुकर्म का सामूहिक विरोध नहीं किया ! अख़बारों के सम्पादक अब केवल सम्पादक नहीं रहे बल्कि नफ़े-नुकसान का बही-खाता संभालने वाले एक ऐसे जीव के रूप में परिवर्तित हो गए हैं जिन्हें अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए मुनाफ़े का मंजन घिसते रहना था | नीति साफ़ थी किअखबार अब उन्हीं ख़बरों को छापेगा जो सनसनी पैदा करे | कला-संस्कृति की ख़बरें कौन पढ़ता है ?
भारत में रंगमंच का इतिहास सदियों पुराना है पर रंगमंच पर कोई निष्पक्ष और निरंतर पत्रिका नहीं है, जो हैं उनकी स्थिति न होने जैसी ही है | जहाँ तक सवाल साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का है तो सिनेमा पर तो वे बड़े ही गर्व के साथ विशेषांक निकालते हैं किन्तु रंगमंच व अन्य कलाओं के लिए यहाँ अघोषित रूप से प्रवेश निषेध है ! वहीं संगीत नाटक अकादमियां न जाने कब की भ्रष्ट, अराजक और दिशाहीन हो चुकीं हैं | यहाँ अब कला-संस्कृति के नाम पर पैसों के बंदरबांट, कमीशनखोरी के सिवा कुछ नहीं होता है |
यह एक तरफ़ चीज़ों के तकनीकीकरण का दौर है वहीं सामाजिक चिंतन के स्तर पर व्यक्तिवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, समुदायवाद, आत्ममुग्धता, वैचारिक दिवालियेपन और सामूहिकता के ह्रास का काल भी है | इससे कोई नहीं बचा – न नाटक, न मीडिया, न परिवार और ना ही समाज | नाटक करने के लिए नाटक करने और उद्देश्पूर्ण नाटक करने में बहुत फर्क है | ग्रांट और महोत्सव आधारित रंगमंच के वर्तमान युग में गंभीर चिंतन-मनन, आलोचना-समालोचना, बात-विचार, प्रतिबद्धताएं अब रंगकर्मियों के सिर में दर्द पैदा करने लगी हैं | रंगमंच का सरोकार समाज से हो या न हो किन्तु रंगमंच सामाजिक परिघटनाओं से अछूता रह पायेगा ऐसा सोचना मूर्खता है |
रंगमंच का एक अति महत्वपूर्ण अंग है – नाट्यालोचना, जो अमूमन पत्र-पत्रिकाओं के मार्फ़त ही होती है | वर्तमान में नाट्यालोचना की स्थिति ये है कि नाटकों पर आलोचनात्मक टिपण्णी करने पर रंगकर्मियों ने समीक्षक/आलोचक को सैधांतिक या शारीरिक हिंसा से साक्षात्कार करवाया और बहिष्कार तक की घोषणा कर दी ! वहीं दूसरा सच ये कि वो लोग भी नाटकों पर अपनी कलम चलाने से बाज नहीं आते जिनको रंगमंच के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं की उतनी समझ नहीं कि वो रंगमंच की समीक्षा करें | रंगकर्म वर्तमान में घटित होनेवाला कलामाध्यम है,इसलिए नाट्यालोचना की प्रवृति अन्य कला माध्यमों से ज़रा अलग होती है | साहित्य, फिल्म, चित्रकला, मूर्तिकला ऐसी विधाएं हैं जो अपने पाठकों, दर्शकों, रसिकों के लिए सदा उपलब्ध रहतीं हैं | कोई भी इन्हें पढ़, देखकर इनकी समीक्षा से इतर अपने विचार बना सकता है,किन्तु किसी भी नाट्य प्रस्तुति के प्रदर्शन को उसी स्वरुप में चिरकाल तक जारी रखना संभव नहीं | एक ही दल द्वारा किया गया एक से दूसरा प्रदर्शन कम से कम संवेदनात्मक स्तर पर एक दूसरे से अलग होता है | नाट्य-साहित्य, नाट्य प्रदर्शन का स्वरूप ग्रहण करके ही अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है | अगर हम पूर्व प्रदर्शित नाटकों के बारे में जानकारी चाहते हैं तो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उस नाटक की समीक्षा और समाचार महत्वपूर्ण माध्यम होते हैं | इसीलिए नाटकों की खबरनवीसी, आलोचना, समीक्षा आदि एक ऐतिहासिक महत्व का काम हो जाता है | किन्तु यथार्थ ये है कि एक ख़ास तरह कीमृगतृष्णा और हड़बड़ी की चपेट में आज रंगकर्मी, नाटककार, आलोचक सब हैं |
भारत एक ऐसा कृषि प्रधान सांस्कृतिक देश है जिसके हुक्मरानों और आवाम को न तो कृषि की चिंता है ना ही संस्कृति की | जिस देश की जनता अनगिनत मजबूरियों का बोझ लादे केवल वोट डालके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाय वहां इससे बेहतर स्थिति की उम्मीद भी नहीं की जा सकती | औद्योगिक विकास के पागलपन में एग्रीकल्चर (कृषि) की बात तो खींच तानके कभी-कभार हो भी जाती है पर कल्चर (संस्कृति) की बात ? समाज का कोई भी अंग यदि अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करता तो निरर्थक है | सार्थक मीडिया और सार्थक रंगमंच का मूल काम व्यवसाय से ज़्यादा लोगों की चेतना जागृत और कोमल करने का होता है, यह पारस्परिक सहयोग से चलनेवाली प्रक्रिया है | निरपेक्षता का भाव समर्थन होता है और विरोध भी | इतिहास किसी को माफ नहीं करता, चाहें वो रंगकर्मी हो, समाज हो या मीडियाकर्मी | विकास का आधार केवल आर्थिक नहीं होता बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक भी होता है जिसकी प्रक्रिया अंदर से शुरू होती है, जो विकास बाहर से थोपा जाय वो विनाश, अराजकता और विस्थापन को बढ़ावा देता है | सनद रहे, मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं बल्कि सबके साथ होती है |
इप्टानामा नामक पत्रिका में प्रकाशित.


एक दाढ़ीवाला रंगकर्मी और वर्दीवाले गुंडे !

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सोमवार,(7 अक्टूबर 2013), की रात करीब बारह बजे बेगुसराय (बिहार) के युवा रंगकर्मी प्रवीन कुमार गुंजन काम खत्म करने के पश्चात अपने सहकर्मी के साथ बेगुसराय रेलवे स्टेशन पर चाय पी रहे कि पुलिस की जीप आकर रुकी और पूछताछ करने लगी. हम कलाकार हैं, काम खत्म करके स्टेशन चाय पीने आए हैं (इतनी रात में स्टेशन के अलावा कहीं और चाय नहीं मिलाती.) चाय पीके अपने घर चले जाएंगे शायद यह बातें पुलिसवालों के किसी काम के नहीं थे तभी तो कुछ ही मिनटों के बाद आलम यह था कि गुंजन को सड़क पर पटक-पटक के पुलिसवाले किसी आतंकवादी की तरह मार रहे थे. उसे जिस बेदर्दी से पीटा गया उसकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाए.इतना ही नहीं जम के लात, घूंसा और डंडे बरसाने के बाद उसे लॉकअप में बंद भी कर दिया. प्रवीन गुंजन रंगमंच का एक जाना माना चेहरा न होता तो क्या पता आज उस पर क्या-क्या मुकद्दमें लादी जा चुकी होती. किसे नहीं पता कि पुलिस अपनी कामचोरी बेगुनाहों को झूठे मुकद्दमों में फंसाकर ढंकती रही है. 
आखिर क्या गुनाह था गुंजन का ? यह कि वो रात के बारह बजे चाय पीने निकला ?उसने हाफ़ पैंट पहन रखी थी?उसकी दाढ़ी बढ़ी थी कि पुलिसवालों से बराबरी से बात कर रहा था ? क्या रात में दोस्तों के साथ मोटरसाइकल से निकलना, हाफ़ पैंट पहनना, दाढ़ी बढ़ाना और पुलिसवालों से बराबरी से बात करना गुनाह है ?यदि इसका जवाब हां है तो यह मान लेना चाहिए कि हम एक बहुत ही खतरनाक समय में रह रहें हैं. साथ ही एक सवाल यह कि बिना किसी अपराधिक रिकॉर्ड, कई सारे पुरस्कारों से सम्मानित रंगकर्मी को जब इस प्रकार मार-मारके बुरी हालत बनाई जा सकती है तो आम नागरिक इस तंत्र में किस भय में जी रहे हैं इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है.
प्रवीन गुंजन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का पूर्व छात्र होने के साथ ही साथ वर्तमान में तेज़ी से उभरता हुआ एक रंग-निर्देशक है. जिसके नाटक देश के विभिन्न हिस्सों में प्रदर्शित हो प्रसंशा आर्जित कर चुके हैं. लेकिन बंदूक के साए में दिन रात रहनेवाले, बारूद और डंडे की भाषा समझनेवाले,किसी प्रकार रट-रटके, घूस के बल पे नौकरी हासिल करनेवाले इन वर्दीधारियों को इस मुल्क की कला-संस्कृति, कलाकार, मानवऔर मानवीय संवेदना से क्या मतलब! भौतिक सुख के भ्रष्टाचार में नाक तक डूबे इन पुलिसियों के लिए ये सब बातें काले अक्षर भैंस बराबर हैं !वैसे जब कला को समर्थन देने के लिए बनी तमाम राजकीय अकादमियां भी जब कलाकार को गली के कुत्ते से ज़्यादा भाव नहीं देती तो किसी और महकमें से क्या उम्मीद करे कोई !किसी ने सच ही कहा है कि पुलिस महकमा सबसे संगठित और संरक्षित गुंडावाहिनी है. तभी तो लोगों को पुलिस और गुंडों से एक सामान डर लगता है.
प्रवीन गुंजन के सन्दर्भ में सवाल केवल दोषी और अपराधी प्रवृति के पुलिसकर्मियों के तत्काल निलंबन का तो है हीकिन्तु मूल बात यह है कि जिस प्रकार पुलिस महकमा में अपराधी मानसिकतावाले, असंवेदनशील और अ-कलात्मक प्रवृति के लोग भरे पड़े हैं वे आखिर कैसी जन सेवा करेंगें ? किन नागरिकों के नागरिक अधिकारों की सुरक्षा करेंगा या कर रहे हैं ? जिन्हें पकड़कर हाजत में बंद करना चाहिए उनकी तो सुरक्षा में तैनात रहते हैं और जो अपनी कला से जन में संवेदना का संचार करते हैं उन्हें कानून पालन और प्रजातंत्र की रक्षा के नाम पर अपने फ्रस्टेशन का शिकार बनाते हैं.
यह भी सच है कि इंसाफ के नाम पर ऐसे मामलों में अमूमन क़ानूनी प्रक्रिया के घुमावदार रास्ते पर ऐसा चक्कर लगवाया जाता है कि व्यक्ति गश खाके गिर पड़े. वहीं कई तात्कालिक हल निकलकर मामले की लीपापोती भी कर दी जाती है. मूल बात यह है कि वो कौन सी प्रवृति है जो खाकी धारण करते ही इंसान अपने को सर्वशक्तिमान मान बैठता है और कानून-व्यस्था उसकी रखैल बन जाती है.रक्षक से भक्षक बनाने की इस प्रक्रिया पर लगाम लगाने की ज़रूरत है, न कि जैसे तैसे मामले को सुलटा भर देने की. समस्यायों के तात्कालिक हल से समस्या नहीं हल नहीं होती बल्कि उस पर लीपापोती होती है और लीपापोती से दीर्घकालिक परिणाम नहीं हासिल किए जा सकते. लीपापोती से क्षणिक सत्ता और सफलता पाई जा सकती है आज़ादी नहीं और अगर आज़ादी मिल भी गई तो उसका चरित्र बहुजन हिताय नहीं होगा.
माना कि पुलिसकर्मियों को बड़ी ही अमानवीय और घुटन भरे परिस्थितियों में कार्य करना पड़ता है लेकिन क्या इससे इन्हें यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वे अमानवीय क्रियायों को अंजाम दें. हरगिज़ नहीं. दुखद सच यह है कि इस प्रकार की घटनाएंपुरे देश में दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही हैं. जो किसी भी प्रकार के लोकतान्त्रिक मुल्क के लिए शर्मनाक है !पुलिस की नौकरी का अर्थ केवल अपना और अपने परिवावालों के पेट पालना और रिटायरमेंट के बाद पेंशन पाने के लिए नहीं होता, यह एक ज़िम्मेदारी है, एक गंभीर ज़िम्मेदारी. कर्तव्य, निष्ठा और संविधान की रक्षा की झूठी कसमें खानेवाले इन महानुभावों ने शायद ही संविधान और नागरिक अधिकारों की पुस्तकों को पलटा हो. वो कौन सा अपराध है जो ये पुलिसवाले नहीं करते ?लोगों को जूठे मुकद्दमे में फंसाना, हाजत में मासूमों का रेप, हफ्तावसूली, शराब पीकर पेट्रौलिंग, आदि ख़बरें तो आम हैं.
जिस बेगुसारय की धरती पर कानून के दानवी अवतारों ने एक युवा रंगकर्मी की पीट-पीटकर बुरी गत बना दिया गया वह स्थान कभी बिहार की साहित्यिक राजधानी मानी जाती थी. मुझे तो शक है कि पुलिसवालों ने राष्ट्रकवि दिनकर का नाम भी सुना होगा कि नहीं ! कोई दरोगा यह न कह बैठे कि कौन है दिनकर उसे थाने में पकड़ लाओ, उसको राष्ट्रकवि कहनेवाला चोर होगा. क्योंकि जब गुंजन पुलिसवालों को यह बताने की कोशिश कर रहा था कि वो भारत के राष्ट्रपति के हाथ से सम्मनित हो चुका है तो पुलिसवालों ने जवाब में जो कुछ कहा वो जस का तस यहाँ लिख देने पर राष्ट्रपति महोदय के सम्मान में ‘चार-चांद’ लग जायेगें और मुझपर मुकद्दमा ! ताकत के मद में चूर ये वर्दीवाले गुंडे हैं आखिर, उन्हें किसी देश-राष्ट्र से क्या मतलब ! वैसे भी आतंकवादियों का कोई देश, जात, धर्म और चेहरा नहीं होता, मानवता तो होती ही नहीं. ज़रा सा शर्म होती तो गुंजन के शरीर और मन पर लगी चोट को देखते हुए तत्काल इन पुलिसवालों के खिलाफ़ करवाई की जाती. पुलिस के डंडे किसी संवेदनशील इंसान के शरीर पर पड़ें तो उसकी अंतरात्मा और आत्मसम्मान तक ज़ख़्मी हो जाता है. क्या यही है मेरा भारत महान की परिकल्पना ? क्या हमें इस तंत्र का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने गुंजन को बिना किसी मुकद्दमे में फंसाए छोड़ दिया ! उसे जिस तरह से पीटा जा रहा था, कोई आश्चर्य नहीं कि पुलिसवाले उसे जान से मार देते.
व्यवस्था का यह असंवेदनशील चेहरा कोई नया नहीं है. इतिहास गवाह है कि जन संस्कृति के निर्माण में कार्यरत लोग पर इस तंत्र ने कैसी क्रूरता नहीं बरती हैं, झूठे मुकद्दमें लादकर वर्षों जेलों में कैद रखा है, गोलियां बरसाई, फर्जी इनकाउंटर तक कर दिया. कानून व्यवस्था के नाम पर यह प्रक्रिया आज भी निरंतर जारी है. आज यह व्यवस्था इतनी ज़्यादा अराजक हो चुकी है कि वो हर उस व्यक्ति को अपनी चपेट में लेकर कुचल डालना चाहती है जो किसी भी वजह से इससे आंख मिलाकर बात करने की हिम्मत करता है. हमारी मजबूरियां, हमारा विशिष्ट होने का दंभ और हमारा मौन ऐसी कारवाइयों का मौन समर्थन हैं. आज ज़रूरत है तमाम अंतर्विरोधों को दरकिनार कर, अपने बने-बनाए दायरों और सफलता-असफलता के बने बनाए मापदंडों से परे हटकर सामाजिक सच से साक्षात्कार करने की, नहीं तो वह समय दूर नहीं जब सारे कोमल और सुगन्धित फूल या तो कुचल दिए गए होंगें या फिर सत्ता के गलियारे में पेशाबघर के पास सजाए जा रहे होंगें. समाज ज्वलंत सवालों से टकरा रही है ऐसे समय में समाज में चल रहे उथल पुथल से कोई सरोकार न रखते हुए केवल कला की बात करना आत्ममुग्धता नहीं तो और क्या है. हम कलाकार हो, कवि हों, कथाकार हो, फिल्मकार हो या जो भी हो, समाज व्याप्त अच्छाई-बुराई से बचे नहीं रह सकते, चुकी हम सब भी इसी समाज के हिस्से हैं इसलिए आज नहीं तो कल तमाम तरह के सामाजिक अच्छाई-बुराई हमारे दरवाज़ों पर भी दस्तक देगा ही.गुंजन के साथ जो कुछ भी हुआ वो कल हम सबके साथ भी हो सकता है, हो रहा है. एक सार्थक कलाकार का दायित्व है कि वो अपनी कला और कला की सामाजिक स्वीकारोक्ति के साथ ही साथ सामाजिक बुराइयों के लिए भी आवाज़ बुलंद करे.
ईमानदार लोग हर जगह हैं, निश्चित रूप से पुलिस में भी होंगें ही. किन्तु ईमानदार लोग की इस देश में क्या दशा है यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है. ईमानदार आदमी के साथ “बेचार” नामक टैग लगा दिया जाता है. अभी पिछले दिनों झारखण्ड में राष्ट्रपति शासन लगा था. राज्यपाल महोदय ने पुलिस के तमाम बड़े अधिकारियों की एक मीटिंग बुलाई और सबसे पहला सवाल यह किया कि कौन-कौन ईमानदार हैं ? केवल एक अफसर ने हाथ उठाया और रोने लगा. बाद में उसने बताया कि उसे इमानदारी की क्या-क्या कीमत चुकानी पड़ती है. बेचारा ईमानदार आदमी !

गोदान में पांच किलो प्याज़ !

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प्याज़ की कसम खाके विश्वास दिलाता हूं कि किसी बाबा के भक्तों या नेता के चमचों की तरह झूठ नहीं बोलूंगा. वैसे भी बड़े-बुजुर्गों का कहना था कि अन्न-जल की कसम खाकर कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए. शायद इसीलिए पुराने लोग खाते वक्त चुप रहते थे. आप चाहे तो पुरातनपंथी कह सकते हैं किन्तु खानेवाले चीज़ और वो भी प्याज़ की कसम खाके झूठ नहीं बोलूंगा. वैसे भी प्याज़ की कीमत आसमान छूकर खाने वालों का जिस प्रकार मुंह चिढ़ा रहीं हैं, आनेवाले दिनों में हो सकता है कि प्याज़ की कसम खाना भी इतना महंगा पड़े कि हिम्मत जवाब दे दे. वैसे आज के युग में ज़रूरत से ज़्यादा सत्यवादी लोग बेचारे कहलाते हैं और तत्काल मेरा मन बेचारा कहलाने का नहीं है.
जबसे कीमतें बढ़ी हैं तमाम मध्यवर्गीय परिवारों की तरह हमने भी तय किया कि बिना प्याज़ के खाना बनाएगें. कुछ दिनों तक यह सिलसिला चला भी. पर क्या करें जीभ जो न कराए. स्वाद कम हिंसक चीज़ नहीं है ! प्रतिष्ठा में प्राण गंवाने का कोई तुक नहीं है सो आखिरकार एक दिन किलो भर बड़े-बड़े प्याज़ ले आए. खरीदते वक्त सोना खरीदने जैसी खुशी मिल रही थी, जैसे कोई अनमोल खजाना हाथ लग रहा था. घर आके लगा कि कहीं छुपा के रखा जाय. चोर घर में आएगा तो सबसे पहले प्याज़ ही चुराएगा.
इन दिनों हमारे शहर में चोरियां बढ़ गई हैं, लोग या तो खुद जागकर पहरा दे रहें हैं या फिर किसी आदमी को नियुक्त कर रहे हैं जो रात भर सिटी बजाकर और डंडे पीटकर “शरीफों” को चैन की नींद सुलाता है. यह हाल पुरे देश का है. हां, देश के सन्दर्भ में अब यह फर्क करना मुश्किल हो गया है कि कौन पहरेदार है और कौन चोर ! वैसे, ‘शरीफों’ की नींद आज भी वैसे ही कायम है.
नींद बड़ी प्यारी चीज़ है. स्वस्थ रहने और सपने देखने के लिए सोना बहुत ज़रुरी है. हो सकता है कि सपनों में आप पचास किलो प्याज़ के मालिक हों, प्याज़ के कोट पहने हों, जूते, टोपी, टाई सब प्याज़ के हों और किसी प्याजू अप्सरा के साथ एक शानदार प्याजू होटल में, प्याज़ की पकौड़ी का आनंद तब तक ले रहे हों जब तक यथार्थ की कड़वी सच्चाई आपके सपनों का मुंह न नोच ले.  
प्याज़, नींद, सपने और यथार्थ के साथ दादाजी की भी बात करते हैं. दादाजी जो एक किसान हैं, मंझोले किसान. ओह हैं नहीं थे. वो थे  और प्याज़ की भी खेती करते थे. प्याज़ की फसल जैसे ही खेत में तैयार होती उसे खरीदनेवाले व्यापारी घूमने और कीमत लगाने लगते थे. दादाजी पूरे घर में मचान बनाकर प्याज़ रखते. दादीजी और बुआजी का काम होता हर ओ-चार दिन में मचान पर चढ़कर प्याज को पलटना और सड़े हुए प्याज़ को निकालना. रोज़ व्यापारी दरवाज़े पर दस्तक देकर रेट बता जाता. दो-चार दिन और रखके देखते हैं, शायद दाम ज़रा और बढ़े – ऐसा पूरा गांव सोचता और रोज़ ढेर सारा प्याज़ कूड़े के ढेर में फेंका जाता. खेत से उखड़ते वक्त प्याज़ जिस दाम पर बिकता है उसे बता दूं तो उन नेताओं के चेहरों पर कालिख पुत जायेगी जो ये कहते हैं कि प्याज़ की कीमत बढ़ने से किसानों को फ़ायदा हो रहा है.
नेता चाहे जैसा भी हो चुकी वह चुनाव नामक जादुई और पहेलीनुमा प्रक्रिया को पार करके जनप्रतिनिधि का मुकुट पहनता है और जिसे लोकतंत्र का पर्याय माना जाता है. इसलिए इनके बारे में कुछ बोलने का कोई अर्थ ही नहीं बनता है. वे बोलें जो इन्हें चुनकर पुष्ट प्याज़ की तरह सीना फुलाकर घूमते हैं कि मेरा प्याज़ (नेता) जीत गया. और जश्न शांत पड़ते ही फिर कुढ़ते हुए कि हमने किस सड़े ‘प्याज़’ को चुन लिया, अगले चुनाव का इंतज़ार करते रहते हैं.
अलग-अलग रूप-रंग के बारह प्याजों के बीच मुकाबला है, इनमें से एक प्याज़ के चयन का हक़ प्रजातंत्र में प्रजा का नैतिक अधिकार है. उसे प्रतिनधि तय करने का अधिकार नहीं क्योंकि इसमें पार्टियों का आरक्षण है. पार्टियां प्यादों को खड़ा करती हैं और जनता उन्हें वोट देकर हराती-जिताती हैं. यह जादुई प्रक्रिया किसी सस्ते लाइन होटल के मिक्स वेज की तरह है, जिसमें कौन-कौन और कैसी-कैसी चीज़ पड़ी है “छोटू” के अलावे कोई नहीं जानता. होटलवाले को पता है कि खानेवाले को बस मज़ा आना चाहिए. जो होटल मज़ा देता है वहां खरीदारों की कतार लग जाती है और छोटू इन कतारों में खड़े “शरीफों” को मुस्कुराता हुआ पच से गुटखे की पीक सड़क पर थूकता है. वैसे जब प्याज़ में आग लगी है लोग होटलों में खाना कम प्याज़ ज़्यादा खाने लगे हैं. कुछ होटलवालों ने प्याज़ की जगह सेव का सलाद देना शुरू कर दिया है वहीं कुछ होटलों ने अपने मुख्य द्वार पर एक बोर्ड टंगवा दिया है जिस पर लिखा है कि यहां पांच सौ रूपये के खाने के साथ प्याज़ का सलाद भी मिलाता है.
प्याज़ और राजनीति में बहुत सारी समानताएं हैं. मसलन – दोनों के कई परतें होतीं हैं, दोनों के उपरी और अंदरूनी रंग में फर्क होता है, दोनों जैसे होते हैं वैसे दिखते नहीं, दोनों के परत दर परत निकालते जाने पर अनतः कुछ हासिल नहीं होता, दोनों एक खास मौसम में फलते-फूलते हैं पर मुनाफ़ा कमाने के लिए सालों भर सहेजकर रखे जाते हैं, दोनों जब लगाए जाते हैं तो हरियाली से भरपूर होते हैं पर जैसे-जैसे पकते हैं हरियाली सुखाने लगती है, दोनों को जमीन से उखाड़कर गोदाम में रखा जाता है और दोनों अपने पैदा करनेवालों के बजाय दूसरों को मुनाफ़ा देते हैं. सबसे ज़रुरी और अहम् बात यह कि दोनों ही अनतः इंसान को रुलाते हैं.
राजनीति में परिवार, चमचा-चमचीवाद और चिकन, मटन व सब्ज़ी में प्याज़ की उपयोगिता जायका बढ़ाती है. यह भी सच है कि प्याज़ की राजनीति भी होती है और राजनीतिक प्याज़ भी होता है.
दुनियां की महाशक्ति वाले देश में बच्चों से पूछा गया कि दूध कहां से आता है. बच्चों ने जवाब दिया दूध वाली मशीन से. इसलिए जो लोग प्याज़ नामक वस्तु, फल, जड़ से नावाकिफ हैं उनके लिए यह बता देना ज़रुरी है कि यह एक ऐसी चीज़ है जो अमूमन खेतों में उगाया जाता है और बाज़ार में बेचा जाता है. इसमें कई परत होते हैं और इसे बहुत दिनों तक साधारण वातावरण के नहीं रखा जा सकता है. इसके लिए अनुकूल वातावरण बनाना होता है. जो लोग भी अनुकूल वातावरण बनाकर प्याज़ को सहेजते हैं और मुनाफ़ा कमाते हैं उन्हें अमूमन जमाखोर कहा जाता है. जो एक संकीर्ण सोच माना जाना चाहिए. वे जमाखोर नहीं समाजसेवक हैं. क्योंकि वो इंसान के जीभ और जायका की सेवा के लिए दिन रात चिंतित हैं, कई बेरोजगारों को रोज़गार देते हैं और सरकारी व गैर-सरकारी तंत्रों को “वेतन” पहुंचाते रहते हैं. ये वेतन न दें तो सरकारी कारकून पता नहीं कबके सर्वहार हों गए होते. इस एवज में ज़रा सा मुनाफ़ा कमाना इनका नैतिक अधिकार बनता है. कम से कम ये सरकारी गोदामों की तरह अनाज को सड़ाते तो नहीं हैं. स्वाद के दीवानों को खुले दिल से इनकी तारीफ़ और धन्यवाद ज्ञापन करना चाहिए और इनके अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करनी चाहिए.
सरकारी गोदामों की जो हालत है ये गैर-सरकारी जमाखोर न हों तो हमारे देश में साल में कुछ महीने ही प्याज़ के दर्शन हों. वैसे यह एक बहस का विषय है कि प्याज़ जड़ है, फल है, सब्ज़ी है या राजनीति. क्योंकि आजकल राजनीति की भी फसल बोई. उगाई और काटी जाती है ! यह एक सदाबहार फसल है जो हर मौसम, हर स्थान, हर दल बोता, सहेजता और काटता है.
वैसे डॉलर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमतों के मद्देनज़र प्याज़ की बढ़ती कीमतों से गर्व होना चाहिए कि कुछ तो है हमारे पास जो डॉलर का मुकाबला कर सकता है ! हमारा तंत्र ज़रा सी मेहनत और करें तो हम बहुत जल्द प्याज़ की बदौलत डॉलर को औकात बता सकते हैं और शान से कह सकते हैं कि हिम्मत है तो डॉलर से रोज़ाना सौ किलो प्याज़ खरीदके दिखाओ ! अमेरिकी राष्ट्रपति की हेंकड़ी झट न निकल जाए तो कहना !  
दुनियां में इंसान, इंसान में इंसानियत और किचन में प्याज़ अब खगोलशास्त्रियों के अध्ययन का विषय होना चाहिए क्योंकि अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में वाइरस का प्रकोप आजकल कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है. राजनीतिशास्त्र का सीपियो तो न जाने कब से चोर बाज़ार में धूल खा रहा है. एक से एक समाजवादी, साम्यवादी, दलितवादी, आदिवासीवादी, मनुवादी, इस्लामवादी, चर्चवादी, बुद्धिवादी इंजिनियर लगे पर मामले को सुलझाने के बजाय तारों को इतना ज़्यादा उलझा दिया कि इस सीपियो को ठीक करने से ज़्यादा बेहतर लगता है कि नया ही लगा लिया जाय. लेकिन नए के लिए अभी कोई तैयार नहीं. बुजुर्गों का कथन है कि ज़्यादा प्याज़ नहीं खाना चाहिए. इससे कोई भी समझ सकता है कि नया खिलाड़ी है.  
हम चीज़ें फेकते नहीं सहेज कर रखते हैं. न जाने कब कौन सी चीज़ कब काम आ जाए. इसीलिए हर घर में एक कबाड़ की जगह होती है. राजनीति का सीपियो भी इसी कबाड़ में कहीं पड़ा है !
लो प्याज़ पर बात करते-करते पता नहीं क्या-क्या बक गया. मूल मुद्दे से भटका देना भी एक शानदार कला है, जिसे नहीं आता उसे ज़रूर ही सिखाना चाहिए. वैसे यह विश्वास करना ज़रा मुश्किल है कि यह कला किसी को नहीं भी आता होगा ! हमारे यहाँ तो यह कला बचपन से ही रगों में डाल दिया जाता है. ये पोलियो के नाम पर जो ‘दो बूंद ज़िंदगी की’ पिलाई जाती है उसमें दरअसल पानी के साथ मुद्दे भटकानेवाले वाइरस ही पिलाया जाता है, विश्वास नहीं तो फोरेंसिक जांच करा लें !
एक हैं पोलियोग्रस्त बाबा खुरपेंची. जब ये बच्चे थे तो पोलियो की दावा नहीं पी पाए, सो उम्र कोई मायने नहीं रखता का सिद्धांत मानते हुए बुढ़ापे में पोलियो की एक पूरी खुराक खाने के बाद कहते हैं – “प्याज़ और लोकतंत्र एक मध्यवर्गीय समस्या है. सर्वहारा तमाम चीज़ों के बावजूद जन्मजात क्रांतिकारी होता है और क्रांतिकारियों लोग पेट भरने के लिए खाते हैं स्वाद के लिए नहीं, स्वाद के लिए खाना एक सामंतवादी प्रवृति हैं जिसका विरोध हर क्रांतिकारी को करना चाहिए. स्वाद व्यक्तिवाद का पोषक है. एक क्रांतिकारी समाज में व्यक्तिगत स्वाद की कोई जगह नहीं होती. बुर्जुआ और उच्चवर्ग को न प्याज़ की समस्या से मतलब है ना ही लोकतंत्र की समस्या से.” बोलते-बोलते बाबा खुरपेंची अन्तर्ध्यान हो जाते हैं. भक्त लोग कहते हैं कि बाबा चाइना चले गए माओवाद का ककहरा रटने. बाबा पहले रूस जाते थे - वाया जर्मनी, अब चाइना जाते हैं - वाया नेपाल. इधर  कदम के पेड़ के नीचे खादी का झोला और झोले के अंदर भारतीय संविधान की पुस्तक पर सर रखे एक ऊंघता हुआ आजनबाहू महात्मा सपना देख रहा है कि तीसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका है और तमाम विकसित देश अपने-अपने फाईटर प्लेनों से पुरी दुनियां पर बमों की जगह प्याज़ बरसा रहें हैं और पूरी दुनिया के लोग अपने साड़ी, लुंगी, गमछों, मच्छरदानी में प्याज़ लूट रहें हैं ! महात्मा झट से चांद पर बैठ जाते हैं और धरती को निहारने लगते हैं जो लाल-लाल प्याजों से पटी पड़ी है. वहां से इंसान नहीं प्याज़ ही प्याज़ दिख रहे हैं.
ओह, दादाजी की कथा तो रह ही गई. विस्तार से क्या बताएं. एक साल जम के प्याज़ उपजा. कोई ढंग का खरीदार न मिला. क़र्ज़ के बोझ तले दबे दादाजी ने सारी फसल सड़क पर डाल दी और खुद अंधे कुएं में कूद गए. इस अंधे कुएं की उम्र और लोकतंत्र की उम्र एक है. भरोसा नहीं तो कुएं पर अंकित इसके उद्घाटन की तारीख आप खुद ही देख लें. 
अंत में एक बात और, चुकी सरकारी मुआवज़ा मिल चुका था इसलिए दादाजी का श्राद्ध बड़े-धूम धाम से किया गया. गोदान में पंडितजी ने बछिया लेने से मना कर दिया, बोले ई सब लेके क्या होगा, गोदान में यदि कुछ देना ही है तो पांच किलो प्याज़ दे दो !  

इप्टानामा : हमें थोड़े लोगों का विशिष्ट रंगमंच नहीं चाहिए.

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विगत दिनों मुकेश बिजौल (आवरण), रोहित रूसिय, पंकज दीक्षित के रेखाचित्रों से सुसज्जित रंगमंच पर केंद्रित पत्रिका ‘इप्टानामा’ (भारतीय जन नाट्य संघ की वेब-पत्रिका का प्रथम वार्षिकांक) का प्रकाशन हुआ. पत्रिका का सम्पादन अविनाश गुप्ता व अपर्णा के सहयोग से दिनेश चौधरी ने किया है. यह इप्टा के 70 साल पूरा होने का एक उपक्रम भी है. पत्रिका के केन्द्र में आम-जन से सरोकार रखकर किया जानेवाला रंगमंच हैं, जहाँ प्रोफेशनल होने का मतलब केवल आर्थिक नहीं हुआ करता है और उत्सवधर्मिता के नाम पर विचारों की बलि नहीं चढाई जाती. रंगमंच पर सदियों से ‘प्रवचन’ देते आ रहे तथाकथित मुख्यधारा के रंगमंच के महर्षि इस पत्रिका से नदारत हैं, यह ‘इप्टानामा’की सार्थकता है और यही बात इसे रंगमंच की अन्य पत्रिकाओं से अलग भी करती है. ऐसी पत्रिकाएं सौंदर्य की दृष्टी से अमूमन काबिलेतारीफ नहीं होती हैं किन्तु ‘इप्टानामा’इस मिथ का अपवाद है.भगवत रावत (वे इसी पृथ्वी पर हैं), केदारनाथ सिंह (बिना दुभाषिये के), गोरख पाण्डेय (कला, कला के लिए), विनोद दास (मे आई कम इन सर), स्वप्निल श्रीवास्तव (हत्या एक कला की), अली सरदार जाफरी (खूनी सरमाये का निवाला), कैफ़ी आज़मी (मकान), नरेश सक्सेना, आत्मा रंजन, धूमिल, विष्णु नागर आदि की कविता पोस्टरों व कविताओं से ‘इप्टानामा’ को बखूबी सुसाज्जित किया गया है. 
पत्रिका में प्रमुखता से प्रकाशित ‘अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस 2013 के अपने सन्देश में इटली के व्यंगकार, नाटककार, नाट्य-निर्देशक, संगीतकार, अभिनेता, नोबल पुरस्कार विजेता दरियो फ़ो तमाम ज़ोर ज़बरदस्ती के खिलाफ़ आवाज़ बुंलद करने के आह्वान के साथ कह्तें हैं “बहुत समय पहले सत्ता ने कामेडिया दे लार्ट के अभिनेताओं को देश से बाहर कर उसके विरुद्ध अपनी असहिष्णुता को संतुष्ट किया. आज ऐसे ही संकट के कारण अभिनेताओं और थियेटर कंपनियों के लिए सार्वजनिक मंचों, प्रेक्षागृहों और दर्शकों तक पहुंचना कठिन हो गया है. शासकों को अब उन लोगों से कोई समस्या नहीं, जो विडंबना और व्यंग की अभिव्यक्ति करते हैं क्योंकि न तो अभिनेता के लिए कोई मंच है और ना ही दर्शक, जिसे संबोधित किया जा सके.” रंगमंच की ताकत फ़ो इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैं– आँखे जो देखती हैं, वह इन किताबों में पढ़ेजाने की तुलना में कहीं अधिक गहराई से आत्मा को प्रभावित करता है.” वहीं अन्तर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस 2013के अपने सन्देश में ताइवान के विश्वविख्यात नृत्य प्रशिक्षक लिन व्हाई मिन कहतें हैं – “नृत्य एक शसक्त अभिव्यक्ति है, जो धरती और आकाश से संवाद करती है. हमारी खुशी, भय और आकांशाओं को व्यक्त करती है. नृत्य अमूर्त है, फिर भी जन के मन के संज्ञान और बोध को परिलक्षित करता है, मनोदशा को और चरित्र को दर्शाता है. आज के डिजिटल युग में, भाव-भंगिमाओं को छवियां लाखों रूप लेती हैं. वो आकर्षक होती हैं. परन्तु ये नृत्य का स्थान नहीं ले सकती क्योंकि छवियां साँस नहीं लेतीं. नृत्य जीवन का उत्सव है. आईये अपने टेलीविजन बंद कीजिये. कंप्यूटर शटडाउन कीजिये और नृत्य करने आईये. अपने आपको उस श्रेष्ट और सुन्दर वाद्य के माध्यम से अभिव्यक्त करिये, जो हमारा शरीर है.इन दोनों आलेखों का हिंदी अनुवाद अखिलेश दीक्षित ने किया है.
सम्पादकीय आलेख में सम्पादक दिनेश चौधरी चिंता ज़ाहिर करते कि “अनेकानेक कारणों से थियेटर करना अब मुश्किल होता जा रहा है. अब राज्याश्रय केवल उन्हीं कलारूपों के लिए सहज हासिल है जो बाज़ारवादी व नवउदारवादी व्यवस्था के पोषण में निर्लज्ज सहमति प्रदान करते हों. इसके विपरीत प्रतिबद्द-शौकिया रंगमंच करनेवालों के लिए स्पेस छीनता जा रहा है और नुक्कड़ नाटक जैसे मारक विधा को सरकारी योजनाओं व गैर-सरकारी संगठनों ने हाइजैक कर लिया है. नाटकों को प्रतिबंधित व रंगकर्मियों को जेल भेजने का सिलसिला भी चल पड़ा है. यानी, किसी न किसी रूप में अपने शहर को थियेटर मुक्त करने की प्रक्रिया जारी है.”
दस्तावेज़कॉलम के अंतर्गत कुल तीन लेख प्रकाशित हैं. इप्टा के पचास साल पुरे होने के उपलक्ष्य पर कैफी आजमी द्वारा दिए वक्तव्य को लेख की शक्ल में प्रकाशित किया गया है. कैफी आजमी उस वक्त इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, अपने इस वक्तव्य में वे उस वक्त के चुनौतियों के प्रति सजग और इप्टा को और ज़्यादा सरगर्म बनाने की वकालत करते हुए कहते हैं – “किसी भी थियेटर के लिए अहम् दिन वह होता है जिस दिन वह बामकसद और ख़ूबसूरत नाटक खेलने में कामयाबी हासिल करे.”  अगला आलेख रामविलास शर्मा के इप्टा, आगरा से जुड़ाव और उनकी रंग-गतिविधियों के बारे में हैं जिसे कलामबद्द किया है इप्टा से संस्थापक सदस्य राजेन्द्र रघुवंशी जी का है, प्रस्तुति सचिन श्रीवास्तव की है. सन 1955में प्रकाशित बलराज साहनी का सिनेमा और नाटकशीर्षक आलेख भी यहाँ संलग्न है.
समाज और संस्कृतिकॉलम के तहत कुल तीन आलेख हैं. रनबीर सिंहका आलेख अंग्रेज़ी में है ‘कल्चर इन्स्योर्स यूनिटी एंड स्टेबलिटी आफ सोसाइटी’तथा जयप्रकाशका ‘नव ओपनिवेशिक अतिक्रमण का सांस्कृतिक प्रोजेक्ट’शीर्षक से प्रकाशित आलेख के केन्द्र में जयपुर साहित्य उत्सव 2012 है. वो सुबह कभी तो आएगी की घोषणा के तहत ज्ञानोदय से बाज़ारोदयनामक अपने बेहतरीन आलेख में अजय आठलेछत्तीसगढ़ी संस्कृति के बहाने कला, समाज, विस्थापन, विकास, बाज़ारवाद, शहरीकरण आदि की बात करते हुए कहतें हैं कि “विजेता की संस्कृति हमेशा हावी रहती है, ऐसी बात नहीं है. वह विजित की संस्कृति से पहले टकराती है, फिर घुलमिलकर नया रूप धारण करती है.”
आमने-सामनेकॉलमके तहत दो साक्षात्कारों का प्रकाशन किया गया है. वरिष्ट कवि व नाटककार राजेश जोशी का साक्षात्कार हरिओम राजोरिया, बसंत सकरगाय व सचिन श्रीवास्तव तथा इप्टा के महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी का साक्षात्कार सचिन श्रीवास्तव ने किया है. दोनों ही साक्षात्कार में जनपक्षीय रंगकर्म के व्यावहारिक-सैधांतिक पहलुओं पर बातें की गई है. राजेश जोशी कहतें हैं “अब कारपोरेट हाउस और सरकार यह बता रही है कि कैसा नाटक करें. अब थियेटर सजावटी सा हो गया है. इसमें न कोई सोशल मैसेज है, न पॉलिटिकल. ऐसे नाटक होने लगे हैं जो किसी के लिए असुविधा पैदा नहीं करते. ग्रांट लेकर थियेटर करनेवाले समूह से तो उम्मीद करना बेकार है. नाटक ऐसी विधा नहीं है कि इसे सरकारें कंट्रोल कर सकें.” अपने विस्तृत साक्षात्कार में जितेन्द्र रघुवंशी ज़मीनी स्तर पर रंगमंच के विस्तार को ज़ोर देते हुए कहतें हैं कि “थियेटर करना ज़्यादा मुश्किल होता जाएगा. रंगकर्मियों को अपनी आजीविका के प्रति सावधान रहना होगा.”नुक्कड़ नाटकों के संदर्भ में वे कहते हैं कि “आज इसका मुहाबरा बड़ा ही राटा-रटाया और स्टीरियोटाइप हो गया है, नए ढंग से बात करने की ज़रूरत है. रंग आंदोलनों को तो पॉपुलर कल्चर में भी हस्तक्षेप करना चाहिए. विचार और कला दोनों का प्रशिक्षण ज़रुरी है. सारा थियेटर क्रांतिकारी या सामाजिक हो जायेगा, इसकी उम्मीद बेमानी है. सभी तरह के फूल खिलें. लेकिन देश की बहुसंख्य गरीब जनता को संबोधित रंगमंच विकसित करना ज़रुरी है. वह रंगमंच जो सिर्फ आनंद ही न दे, बल्कि सोचने के लिए बाध्य करे. हमें थोड़े लोगों का विशिष्ट रंगमंच नहीं चाहिए.”
रंगकर्म और मिडियाविषय पर कुल दो आलेख और एक रिपोर्टिंग है; रंगमंच और मिडिया : विकास की उल्टी प्रक्रिया, रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी (संजय पराते) और हमें उनसे वफ़ा की है उम्मीद (रिपोर्ट – दिनेश चौधरी). इन तीनों को मिलाकर जो मूल स्वर उभरकर सामने आता है वो यह कि “मिडिया की चाहे जितनी भी आलोचना क्यों न की जाय, उसका सम्मोहन अपनी ओर खींचता ही है. आज मिडिया में रंगमंच को जो जगह मिल रही है वह समीक्षा नहीं मात्र रिपोर्टिंग है, जिसका आधार नाटक के ब्रोशर्स हैं. रंगमंच की खबरनवीसी, आलोचना, समीक्षा एक ऐतिहास महत्व का काम है. किन्तु एक ख़ास किस्म की मृगतृष्णा और हड़बड़ी की चपेट में आज रंगकर्मी, नाटककार, आलोचक सब हैं. रंगमंच अपने-आपमें एक मिडिया है इसलिए इसे अपनी आलोचना खुद गढनी चाहिए.”
संगे-मीलकॉलमके तहत कुल पांच आलेख हैं. ‘अच्छा इंसान ही बन सकता है अच्छा कलाकार’शीर्षक के तहत रमेश राजहंस अदाकार एके हंगल से जुड़ी ज्ञानवर्धक यादों को साझा कर रहें हैं. एक वाक्या कुछ यूं है : “हंगल का मार्क्सवादी सिधान्तों पर अटूट आस्था थी, किन्तु वह कभी इसे दूसरों पर थोपने की कोशिश नहीं करते थे. उनके मित्र मज़ाक में कहते कि कम्यूनिस्टों को दुनियां बदलना है, अब आप ऐसे पैसिव रहेंगें, तो दुनियां कैसे बदलेगी सर !” हंगल साहेब का जवाब होता – “देखो जी, घोड़े को घास के पास ले जाया जा सकता है, ज़बरदस्ती खिलाया नहीं जा सकता.” चित्रकार व सामाजिक कार्यकर्त्ता चित्तप्रसाद को याद करते हुए अशोक भौमिक, बलराज साहनी को श्रद्धान्जली देता हुआ रश्मी दोरास्वामी, फोटोग्राफर सुनील जाना पर आधारित विनीत तिवारी एवं लेखक, नाटककार, अभिनेता कामतानाथ पर लिखा राकेश का आलेख पत्रिका की धरोहर है. इनके साथ ही साथ जन्मशती वर्ष के अवसर पर हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, विष्णु प्रभाकर, मख्दूम मोहिउद्दीन, मंटो, के.के.हैब्बार, अली सरदार जाफरी, असरार-उल-हक ‘मजाज’, हेमांग बिस्वास, अशोक कुमार, उपेन्द्रनाथ अश्क, प. नरेंद्र शर्मा का संक्षिप्त परिचय भी संलग्न है.
अनुदान और आयोजनकॉलमके तहत कुल दो आलेख हैं, उषा वैरागकरआठले का नाट्य समारोह और सांस्कृतिक राजनीति हनुमंत किशोरका रंगमंच का मरण उत्सव. दोनों आलेख वर्तमान में चल रहे नाट्य समारोहों व अनुदान रुपी अनुष्ठानों की पड़ताल करते हुए सत्ता की वर्चस्ववादी व चाटुकारितापूर्ण उस सांस्कृतिक राजनीति की पड़ताल करती है जो रंगमंच से जनपक्षीय विचार को ख़ारिज कर एक ‘खास’ प्रकार की मानसिकता पूरी बेशर्मी से थोप रही है. इन दोनों आलेखों में कुछ भ्रामक तथ्य हैं जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए था.
विविधाकॉलम के तहत प्रकाशित शकील सिद्धीकीका आलेख ‘एक आग जो जलती है’अभीको एक तरह से भारतीय प्रगतिशील लेखक आंदोलन के उतार-चढाव का लेखा-जोखा कहा जा सकता है. अपने इस आलेख में शकील लिखतें हैं “एक हथौड़े वाले से कई हथौड़े वाले फौलादी हाथों वाले होते चले जाने के बावजूद पूंजीवाद का कुछ नहीं बिगड़ा. कई दिनों बाद घर में दाने आने की दारुन स्थिति अब भी शेष है. वाम दिशा विहान दिशा हो आई है. बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि भोर का स्वपन अपना समूचा सम्मोहन खो चुका है. जो आग 1936 (प्रलेस का पहला अधिवेशन) में रौशन हुई थी, उसकी आंच कम हुई है पर वह बुझी नहीं है.”प्रबीर गुहा अपने आलेख को ‘मैं और मेरा रंगमंच’ तक ही सीमित रखते हैं. अभिनेत्री ज़ोहरा सहगल की आत्मकथा करीब सेपर नासिर अहमद सिकंदर की टिपण्णी व आत्मकथा का एक अंश भी प्रकाशित किया गया है.
नाट्यलेखकॉलम के तहत नाटक ‘अरण्य-गाथा’ प्रकाशित है. प्रेम साइमन लिखित यह नाटक एक ही साथ बहुत सारी विषयों को छू लेने, कथ्य-शिल्प के स्तर पर ढेर सारे प्रयोग कर देने की हड़बड़ी का शिकार है. यहाँ संस्कृत नाटकों से नुक्कड़ नाटक तक की तीब्र यात्रा है. वहीं ऐसे धार्मिक प्रतीकों का भी प्रयोग है जिनकी आज भी भारतीय जनमानस में अपनी एक ‘खास’ पहचान है. ऐसे प्रतीकों को लेकर आधुनिक नाटक रचा जा सकता है किन्तु जो सावधानी यहाँ बरती जानी चाहिए थी, वो गायब है. शायद इसिलिय यह नाटक सब कुछ कहने की पीड़ा से ग्रस्त होकर अन्तः यथास्थितिवाद का ही पोषक बन जाता है. नायक (राम) को जनता को कोई प्रतिकार नहीं दिखता और अन्तः “अभागों, उठो, जागो, साहस करो” जैसे निरा बौधिक और स्टीरियोटाइप प्रलाप करके नाटक समाप्त हो जाता है. विकल्पहीनता व जबरन का विकल्प, दोनों ही प्रकार की प्रवृति खतरनाक है.
‘इप्टानामा’में कुछ आलेख अंग्रेज़ी में हैं. बहुभासिये पत्रिका का अपना एक महत्व हो सकता है किन्तु पत्रिका किसी एक भाषा में ही निकले तो ज़्यादा सहज है. कुल 250पृष्ठों की यह पत्रिका संग्रहणीय है. इस तरह की पत्रिकाओं की आज सख्त ज़रूरत है. यदि चुनौती स्वीकार की जाय तो इप्टा जैसे संगठन, जिसकी पुरे देश में लगभग 600इकाइयां हैं, के लिए इस पत्रिका को एक निरंतरता प्रदान करना कोई मुश्किल काम भी नहीं है. रंगमंच पर गंभीर चिंतन, लेखन, दस्तावेज़ीकरण आदि भी एक महत्वपूर्ण काम है, जिसे अब तक हम (लगभग) अनदेखा करते आए हैं. 
इप्टानामा, सहयोग राशि : 50रूपये. सम्पादक : दिनेश चौधरी. प्रकाशक : इप्टा के लिए विकल्प, डोंगडगढ़(छत्तीसगढ़). संपर्क : iptaindia@gmail.com.

डोंगरगढ़ राष्ट्रीय नाट्य समारोह के नौवें अध्याय का कैनवास

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भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांवों में बसता है, लेकिन हम शहरवासियों का ख्याल है कि भारत शहरों में ही है और गांव का निर्माण शहरों की ज़रूरत पूरा करने के लिए हुआ है । –  गांधी.

प्राकृतिक सुंदरता से लबरेज़ छत्तीसगढ़ का क़स्बा डोंगरगढ़आज मूलतः बमलेश्वरी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है । हम पुस्तकों में पढ़ते हैं कि मुल्क की पहचान उसकी कला-संस्कृति से होती है, किन्तु कला के नाम से कोई स्थान प्रसिद्ध हो, ऐसी भारतीय परम्परा नहीं है शायद ! इतिहास की पुस्तकें इस बात की गवाह हैं कि किसी ज़माने में यह क़स्बा ढोलक उद्योग (बनाने) के लिए भी प्रसिद्ध रहा है । किन्तु वर्तमान विकास की उल्टी प्रक्रिया ने बड़े से बड़े लघु व कुटीर उद्योगों की हवा निकाल दी, आजीविका के लिए गांव से शहर की ओर पलायन बढ़ा है, तो ढोलक कब तक बचता और बजता भला । अब विकास का रास्ता आर्ट-कल्चर-एग्रीकल्चर के रास्ते नहीं बल्कि मशीनी उद्योगों, आर्थिक मुनाफ़े और विस्थापन की गली से गुज़रता है ! मशीनीकरण की आंधी में जीवंत कला-संस्कृति के विकास की अवधारणा लगभग अस्तित्वहीन है । विकास के वर्तमान मॉडल में कला-संस्कृति का स्थान कहां है यह एक शोधका विषय हो सकता है ! मानसिक और सांस्कृतिक विकास की बात तक अब कौन करता है ! क्या किसी पार्टी के चुनावी घोषणापत्रों तक में कला-संस्कृति, साहित्य आदि के विकास पर एक भी शब्द खर्च किए जाते हैं ? 
ऐसे क्रूर समय में विकल्प, डोंगरगढ़ के नाट्य समारोह में शिरकत एक सार्थक उर्जा का संचार कर जाती है । जनपक्षीय कलाकारों को जन से कला और कला से जनका संवेदनशील और सार्थक रिश्ते से रु-ब-रु होने का अवसर मिलता है । रंगमंच की यह उत्सवधर्मिता निरुदेश्य, रूटीनी, दिखावटी, ज़रूरत से ज़्यादा खर्चीली और थोपी हुई नहीं है, बल्कि यहाँ कला, कलाकार, कलाप्रेमी व आमजन एक दूसरे की सार्थकता और ज़रूरत हैं । भाग लेनेवाले दलों के कलाकार साजो-सामान समेत लोकल ट्रेनों तक की यात्रा करके अपने नाटकों का प्रदर्शन करने का जूनून रखते हैं तो कलाप्रेमी भी उन्हें निराश नहीं करते । अपनी तमाम सीमाओं और मजबूरियों के बावजूद यहाँ कला केवल सतही मनोरंजन, विलासिता और अपने को विशेषसाबित करने का माध्यम नहीं बल्कि कला और कलाकार की रचनात्मक सार्थकता और सामाजिक सरोकरता का माध्यम बनकर उभरता है । 
सब्ज़ी बेचनेवाली बाई नाटक शुरू होने से एक घंटा पहले अपना बोरिय-बिस्तर समेटकर, खाना-वाना खाकर दर्शकदीर्घा में विराजमान हो जाती है नाटक देखने के लिए, रात आठ बजे से बारह बजे तक नाटक देखती है, जनगीत सुनती है और दूसरे दिन उन नाटकों और गीतों पर अपनी सरल और बेवाक प्रतिक्रिया देती है । यह प्रक्रिया बड़े-बड़े कार्पोरेटी अख़बारों में अपनी रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष करते बुद्धिजीवीनुमानाट्य-समीक्षकों के रूटीनी लेखन से एकदम अलग है । ऐसा करनेवाली यह अकेली दर्शक हो ऐसा नहीं है बल्कि ज़्यादातर लोग दिन भर अपना काम करते हैं जिससे उनकी जीविका चलती है और शाम होते ही नाटक के लिए पंडाल में हाज़िर । तमाम वर्ग के दर्शकों से पंडाल खचाखच भर जाता है और पूरे प्रदर्शन के दौरान दर्शक दीर्घा में ऐसा कुछ नहीं होता जिससे नाट्यकला की गरिमा को ज़रा सा भी धक्का लगे । इसके पीछे वजह मात्र इतनी है कि जो लोग भी यहाँ आए हैं वो नाटक देखने आए हैं इत्मीनान से । महानगरों की अफरातफरी यहाँ अभी पुरी तरह पहुंची नहीं, जो इत्मीनान कस्बों को हासिल है वो शहरों को कहां ! 
क़स्बा ! यहाँ अन्य लाख समस्याएं हो सकती है किन्तु रिश्ते बड़े जीवंत होते हैं । कहां क्या हो रहा है सबको पता है और सब एक दूसरे को जानते-पहचानते और यथासंभव मतलब भी रखते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि ये स्थान हिंदी फिल्म के गांव की तरह एकदम ‘पवित्र’  है । मानव जीवन के समक्ष चुनौतियाँ यहाँ भी हैं – बिना चुनौतियों के जीवन कैसा ? 
अतुल बुधौलिया डोंगरगढ़ स्टेशन पर उतरकर जैसे ही ऑटोवाले से बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण चलने को कहते हैं ऑटोवाला झट से कह उठता है - नाटक देखने आए हैं क्या सर ?”  टाटानगर के प्रवीन और नवीन करीब पन्द्रह घंटे की ट्रेन यात्रा कर नाटक देखने पहुंचे हैं यहाँ और ट्रेन का टिकट भी अपनी जेब से कटाई है । यह इनका तीसरा साल है जब वे यहाँ नाटक देखने आए हैं । नाट्य समारोह तक ये यहीं मंच के पीछे एक कमरे में रहेंगें । यदि सब सही रहा तो हर साल आएगें । दोनों नाटक देखते हुए प्रोजेक्शन तथा मंच परे के अन्य कई काम संभाल कर समारोह की सफलता में योगदान करते हैं । नाट्यकला के प्रति इन दोनों नवयुवकों का ये कौन सा भाव है और इससे इन्हें क्या हासिल होगा, आप खुद ही तय करें । 
शहर में घुसते ही हर तरफ़ नाट्य समारोह के पोस्टर स्वागत में तैनात हैं, एक रिक्शा भी घूम रहा है जो घूम-घूमकर नाट्य समारोह की लिखित व मौखिक सूचना लोगों तक लगातार पहुंचा रहा है । यह प्रचार का एक पुराना, कारगर और जीवंत तरीका है । प्रचार के इस तरीके से न जाने कितनी यादें जुड़ी हैं, जिसे लोग नॉस्टाल्जिया का नाम दे सकते हैं । वैसे भी व्यक्तिगत भावनात्मक स्मृतियों दूसरों के लिए नॉस्टाल्जिया ही तो हैं । आज के समय बहुतेरे लोग रंगमंच जैसी विधा के प्रति निःस्वार्थ समर्पण और जनपक्षीयता के विचार को भी एक प्रकार का नॉस्टाल्जिया ही मानते हैं ! 
अखबार में शीर्षक है माँ बमलेश्वरी के दरबार में सजेगा इप्टा का नाम ।”  पढ़कर भले ही फार्स लगे किन्तु इसमें कुछ भी झूठ नहीं है । सच भी कभी-कभी फार्स होता है और फार्स भी कभी-कभी सच । ज्ञातव्य हो कि तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए इप्टा की डोंगरगढ़ इकाई सन 1983 से लगातार सक्रिय है, जिसकी वजह से यहां रंगमंच की एक समृद्ध परम्परा विकसित हुई है । यहां इप्टा नाटकों का पर्याय है और जनसहयोग से रंगकर्म करती रही है । भारतीय रंगमंच में इप्टा का क्या योगदान है यह यहाँ अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है । 
नाट्योत्सव का यह नौवां संस्करण है और हर बार यह बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण में ही आयोजित होता है । बमबलेश्वरी मंदिर संचालन समिति न केवल अपना प्रांगण नाट्योत्सव के आयोजन के लिए उपलब्ध कराती है बल्कि ज़रूरत पड़ने पर कई अन्य सहयोग भी प्रसन्नतापूर्वक प्रदान करती है । एक धर्म का पोषक, दूसरा जनवाद का ! एक तरफ़ आरती चल रही है वहीं दूसरी तरफ़ उसके तुरंत बाद जनवादी जनगीतों का गायन भी शुरू होगा । क्या इसे ही उदार सह-अस्तित्व कहा जाता है ? इसका जवाब शायद विचारकों-बुद्धिजीवियों और संतों के पास होगा क्योंकि इनके पास सृष्टि के सारे सवालों का जवाब होता है ! बहरहाल नाट्योत्सव के समय यह जगह जितना गुलज़ार और कलामय होता है, बाकि दिन तो कला के लिहाज से बस एक सन्नाटा ही पसरा रहता है यहाँ ! भारतीय रंगमंच के अग्रिणी निर्देशक हबीब तनवीर के रंगकर्म का एक अध्याय डोंगरगढ़ और यहाँ की पहाड़ी के पास स्थित रणचंडी मंदिर से जुड़ता है ! इस अध्याय का ज़िक्र फिर कभी । 
आयोजन में बाहर की टीमें भी हैं पर आयोजन का स्वरूप ऐसा है कि मेहमान-मेजबान में फर्क कर पाना मुश्किल है । एक जैसे विचार वालों की बीच वैसे भी इस तरह का फर्क करना आसान नहीं होता । आयोजन स्थल पर सब अपने-अपने काम में लगे हैं । थ्रू मिनिमम, क्रिएट मैक्सिमम का सिद्धांत चलता है यहाँ । कोई कनात लगा रहा है, कोई राशन का सामान ला रहा है, कोई बांस काट रहा है, कोई पोस्टर-बैनर लगा रहा है, कोई मंच सजा रहा है, कोई दरी बिछा रहा है, कोई प्रकाश उपकरण लगा रहा है तो कोई ध्वनि, कोई लाल-लाल कुर्सियां सजा रहा है, कोई इस काम में लगा है, कोई उस काम में लगा है ये सब डोंगरगढ़ के रंगकर्मी और नागरिक हैं जो आयोजन को सफल बनाने में जुटे हैं । वहीं दूसरी तरफ़ स्टेज पर आज प्रस्तुत होने वाले नाटकों का सेट, लाईट आदि का काम भी तो चल रहा है । 
यहाँ लाइटें नहीं मिलतीं, भिलाई से मंगाया गया है । शरीफ अहमद की लाइटें हैं । वही इप्टा वाले शरीफ अहमद जो पूरी तरह नाटक को समर्पित थे और एक सड़क दुर्घटना में इनकी दुखद मृत्यु हुई थी । खैर, शरीफ भाई का विस्तृत ज़िक्र फिर कभी । नुरूद्दीन जीवाराजेश कश्यपमहेन्द्र रामटेकेनिश्चय व्यास,गुलाम नबी, दिनेश नामदेवराधेकृष्ण कनौजिया के साथ ही सब बाल इप्टा के लड़के-लड़कियां दिनेश चौधरी, राधेश्याम तराने, मनोज गुप्ता और अविनाश गुप्ता के नेतृत्व में अपने-अपने मोर्चे पर तैनात हैं । राधेकृष्ण कन्नौजिया टेंट का काम करके जीविका चलाते हैं और नाटकों में अभिनय भी करते हैं । जोश से लबरेज़ मितभाषी मतीन अहमद डोंगरगढ़ के मजे हुए अभिनेता हैं । आजीविका के लिए पान की गुमटी लगाते हैं और इस आयोजन में खान-पान की पूरी व्यवस्था चुपचाप और पूरी जवाबदेही से निभाते हैं । दिन भर भागदौड़ करने के बाद शाम को जनगीत के गायन में शरीक होते हैं और फिर नाटक में मुख्य भूमिका भी तो निभाते हैं । मज़ाल कि थकान का कोई नामोनिशान भी उनके चहरे पर कभी झलके । जिस काम में जी लगे उसमें थकान नहीं, आनंद है । 
पहले यह आयोजन हर दो साल में होता है किन्तु अब हर साल । इसका इंतज़ार केवल रंगकर्मी ही नहीं, दर्शक भी करते हैं । आयोजन स्थल पर जबलपुर के रंगकर्मी-चित्रकार विनय अम्बर भी अपने नाट्य दल के साथ आए हैं जो कभी स्थानीय बाल रंगकर्मियों के स्केच बना रहे हैं तो कभी किसी कविता पर आधारित कविता पोस्टर बनाकर उपहार दे रहें हैं । एक पोस्टर मुझे भी दिया गया जिस पर पवन करण की खूबसूरत कविता पानीअंकित है । बगल में बैठे पवन करण अपनी कविता पर पोस्टर बनते देख शायद अंदर ही अंदर मुस्कुरा रहे हैं । इधर मैं उनकी कविता की सरलता पर मुग्ध था । हम तीन, फिर क्या था, चल पड़ा बातों का सिलसिला । दुनिया भर की बातें ! बातों-बातों में पता चला कि विनय अम्बर को एक बार ट्रेन के शौचालयों को पेंट करने का जूनून सवार हुआ । वो चलती ट्रेन के शौचालयों में घुस जाते और कविताओं की पंक्तियों व स्केच से उन्हें सजा देते । यह काम संपन्न करने के पश्चात् वो शौचालय के बाहर चुपचाप खड़े होकर लोगों की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करते । ट्रेन के शौचालय कैसी ‘कलाकारी’ से भरी रहती हैं यह बात हम सब जानते हैं और वहां जब हमारा सामना अच्छी कविता या स्केच से हो तो अमूमन क्या प्रतिक्रिया होगी इस बात की सहज कल्पना भी हम कर सकते हैं । यह आइडिया रेलवे नियमों के हिसाब से कितना क़ानूनी और गैर-कानूनी है, से ज़्यादा मज़ा मुझे यह सोचकर आ रहा था कि कितना क्रिएटिव आइडिया है । ऐसी क्रिएटिविटी के लिए यदि कानून में बदलाव लाने की ज़रूरत है तो यथाशीघ्र लाना चाहिए । क्या यह ज़रुरी है कि साहित्य सदा कागजों पर छपकर मुनाफ़ाखोर प्रकाशकों के मार्फ़त ही जन तक पहुंचे या फिर लाइब्रेरियों में कैद रहे ? जिस प्रकार नाट्य सहित्य को रंगकर्मी जन तक ले जाते हैं उसी प्रकार क्या इस तरह के गंभीर प्रयास से साहित्य को जनसुलभ क्यों नहीं बनाया जा सकता है ? आखिर यह जगह क्यों ताकतवाला क्लिनिकऔर बीमार मानसिकतावाले लोगों के लिए कोरे कैनवास का काम करता रहे ! साहित्य शिलालेखों और भोजपत्रों से होते हुए कागज़ तक पंहुचा, यहाँ से दरो-दीवार तक पहुंचे तो बुराई क्या है
बहरहाल, इस साल यह 3 दिवसीय आयोजन संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार और डोंगरगढ़ इप्टा के सहयोग से विकल्पडोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) ने 9 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह नाम से किया, जिसका उद्घाटन हिंदी के चर्चित कवि पवन करण ने किया । इन्होनें अपने उद्घाटन वक्तव्य में एक कस्बे में नाट्यप्रेमियों के उत्साह व उपस्थिति से गदगद होते हुए कला और समाज के अंतरसंबधों पर प्रकाश डाला । इस आयोजन में आयोजकों द्वारा पवन करण के जनगीतों की पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी । गीतों की पारंपरिक शैलियों जैसी सरलता व गहनता, दिनेश चौधरी की कल्पनाशीलतापूर्ण पोस्टर परिकल्पना ने उपस्थित दर्शकों-पाठकों को अपनी तरफ़ आकर्षित किया । नाट्य प्रस्तुति प्रारंभ होने के पूर्व काफी संख्या में लोग इस पोस्टर प्रदर्शनी को देख, पढ़ और समझ रहे थे । इस पोस्टर प्रदर्शनी का ज़िक्र करते हुए इप्टा, डोंगरगढ़ के कलाकार राजेन्द्र भगत का ज़िक्र न किया जाय तो बात अधूरी रह जाएगी, जिन्होंने अपने हाथों से बांस का बड़ा ही खूबसूरत स्टैंड बनाया था । राजेन्द्र भगत अपनी आजीविका के लिए बांस का काम करते हैं और एक अच्छे ढोलक वादक व गायक हैं । यहां के सारे कलाकार अपनी आजीविका के लिए दूसरे-दूसरे काम करते हैं । बहरहाल, इस पोस्टर प्रदर्शनी में पवन करण लिखित कामवालियों का गीत,विधायक का गीतथाने का गीतअखबार बांटने वालों का गीतरेल के जनरल डिब्बे का गीतअंग्रेजी का गीत,प्रधानमंत्री का गीतबेरोजगारों का गीतसब्जी वाले का गीत,पत्रकार का गीतछोटू का गीतसंसद का गीतखेत का गीत आदि जनगीतों को शामिल किया गया था । जिनके भी मन में यह सवाल उठता है कि हिंदी का एक चर्चित कवि एकाएक जनगीत क्यों लिखने लगा उन्हें यह पोस्टर प्रदर्शनी तथा प्रदर्शनी देख रहे लोगों की प्रतिक्रियाओं से अवगत होना चाहिए । यहाँ कविता केवल पढ़ी ही नहीं देखी, सुनी और मनोज गुप्ता के नेतृत्व में गाई भी जा रही थी । इधर पवन करण जो इस आयोजन के मुख्य अतिथि थे अपनी सहज, सरल और दोस्ताना व्यक्तित्व के कारन कब मित्रवत हो गए पता ही न चला । हम गेस्ट हॉउस से नहा धोकर दस बजे सुबह के आसपास आयोजन स्थल पर पहुँचते फिर नाटक, देश, दुनियां, समाज, कविता, कहानी, चुटकुले आदि पर बात के साथ ही सामूहिक खाने और खासकर शानदार सब्ज़ियों पर फ़िदा हो जाते । यहाँ की मंगौड़ी के साथ चाय का क्या कहना । हम प्रस्तुतियों पर बात करते हुए जब वापस गेस्ट हॉउस पहुँचते तो रात के बारह कब के बज चुके होते । 
माहौल ऐसा कि यहाँ बहुत सारे “मैं” मिलकर “हम” हो रहे थे । इस “हम” में जो मज़ा और जिस भावना का वास होता है उसे रस और रसिक के सिद्धांत से नहीं समझा जा सकता । भावना, बुद्धि और विवेक से परे नहीं होती । मुक्तिबोध लिखते हैं “ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खड़ी है । यदि ज्ञान और बोध की बुनियाद गलत हुई, तो भावनाओं की इमारत भी बेडौल और बेकार होगी ।” 
यह आयोजन कला के रंगमंच के शास्त्रीय अवधारणाओं पर कितना खरा उतरता है सवाल इसका नहीं है बल्कि मूल बात यह है कि रंगमंच नामक कला अपनी सामाजिक सरोकारों के साथ खड़ा है कि नहीं । यह सामाजिक सरोकारता कोई अलग से लादी गई चीज़ नहीं होती बल्कि मानव, मानवीयता और मानव समाज के प्रति संवेदनशील नज़रिया होता है । दरियो फ़ो कहते हैं “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं ।” 
चीजें तकनीक नहीं विचार की वजह से क्रांतिकारी होती हैं और क्रांतिकारी होने के अर्थ “पकाऊ” होना तो कदापि नहीं होता । भारतीय रंगमंच का जो मूल चरित्र है उसमें तकनीक और शस्त्र बाद में आता है अभाव और चुनौतियां पहले ही मोड़ पे खड़ी मिलती हैं । अभाव श्रृजन की जननी है इस बात में कितनी सत्यता है, मालूम नहीं । वैसे भी सत्य-असत्य का व्यावहारिकता से नैतिक सम्बन्ध ज़रा कम ही होता है और इनके कई पहलू भी होते हैं । आदर्शवादी होना अच्छा है लेकिन आदर्श व्यवहारिक हो यह भी उतना ही ज़रुरी हो जाता है । चौबे दा (योगेन्द्र चौबे) कंधे पर हाथ रखते हुए कहते हैं “हर जगह अपनी महानता साबित करने के लिए नाटक नहीं किया जाता ।” सच भी है । कई बार सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थियां कला, साहित्य, संस्कृति के अनुकूल होती हैं, तो कई बार परिस्थियों के अनुकूल ढलना होता है । लोक व्यवहार तो यही कहता है । आदर्श होता नहीं बनाया जाता है, गढा जाता है । गढने के इसी हुनर को हम कला कहते हैं, शायद । यह एक भ्रम है कि राजधानियों और शहरों में ही कला, संस्कृति, साहित्य आदि की आधुनिक मुख्यधाराएं प्रवाहित होती है और बाकि जगह ‘मूढ़’ बस्ते हैं । यहाँ से निकला जाय तो इन विधाओं के हमें कालिदास भले न मिलें पर कबीर आज भी भरे पड़े हैं । बहरहाल, आयोजन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - आयोजन - 9 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह । दिनांक  - 21 से 23 दिसम्बर 2013 । आयोजक विकल्प, डोंगरगढ़ । स्थान बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण । नाट्य प्रस्तुतियां प्लेटफार्म (प्रस्तुति - इप्टा, भिलाई, लेखक व निर्देशक शरीफ अहमद), बापू मुझे बचा लो (प्रस्तुति - इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक दिनेश चौधरी, निर्देशक राधेश्याम तराने), बल्लभपुर की रूपकथा (प्रस्तुति - विवेचना रंगमंडल, जबलपुर, लेखक बादल सरकार, निर्देशक प्रगति विवेक पाण्डे), व्याकरण (प्रस्तुति - इप्टा, रायगढ़, परिकल्पना, संगीत व निर्देशन हीरा मानिकपुरी), कोर्ट मार्शल (प्रस्तुति - इप्टा, गुना, लेखक स्वदेश दीपक, निर्देशक अनिल दुबे), इत्यादि (बाल इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक राजेश जोशी, निर्देशक पुंज प्रकाश) एवं गधों का मेला (प्रस्तुति - नाट्य विभाग, खैरागढ़ विश्वविद्यालय, लेखक तौफ़ीक-अल-हकीम, निर्देशक डॉक्टर योगेन्द्र चौबे), विशेष आकर्षण पवन करण की कविताओं की कलात्मक पोस्टर प्रदर्शनी । 

कबीरा इस संसार में भांति भांति के भक्त

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हटिया पटना एक्सप्रेस में रांची में एक सज्जन हमारी कम्पटमेंट में चढ़े - साईं भक्त। सज्जन क्या हैं पूरी चर्बी के चलते फिरते नमूने थे। आते ही उन्होंने अपने 4 बड़े बड़े लगेज सीट के नीचे जय साईं राम करते हुए घुसेड़ दिए और चेन के सहारे एक बड़ा सा ताला भी यह कहते हुए जड़ दिया कि ट्रेन में "साले"चोर बदमाश भी बहुत घुसने लगे हैं। यह कहते हुए भाई साहेब महीने भर पहले घटित किसी चोरी की कथा का गालियों सहित वाचन भी करने लगे। सीट के नीचे उन्होंने इतना सामान भर दिया कि अब किसी और के लिए कोई जगह नहीं बची थी। वो तो खैर मनाइए कि मिडिल का दो बर्थ खाली था नहीं तो महाभारत तय थी। फिर मोबाइल पर साईं भजन बजाते हुए यह बखान करने लगे कि वो साईं के कितने बड़े भक्त हैं। फिर योगा (जो निश्चित ही यह व्यक्ति कभी न करता होगा) पर प्रवचन देने लगे। फिर ट्रेन, बर्थ आदि की समस्या पर भी अपने ज्ञान बांटने लगे जैसे हम सब चाँद से आए हो और हमें इस दुनियां के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं है। उनकी सबसे बड़ी शिकायत बर्थ की चौड़ाई है जिसकी वजह से जनाब करबट तक नहीं बदल पाते हैं। इनकी साइज देखकर शिकायत जायज भी है लेकिन इन्हें कौन समझाए कि समस्या बर्थ का साइज नहीं बल्कि ये खुद हैं। फिर तकिया कम्बल के लिए झिक झिक करने लगे और आखिरकार दो तकिया और एक कम्बल सिर के नीचे अपनी ऊपरवाली सीट पर लगा के विंडो सीट पर विराजमान हो गए। बेचारे सरकार को कोस भी रहे थे कि लोयर सीट नहीं दिया।
खैर, जैसे ही सामने वाले एक सज्जन ने लैपटॉप ऑन किया भाई ने प्रभु प्रभु यदि आपकी आज्ञा हो तो -- करते हुए अपना मोबाइल का केबल उसमें घुसेड़ दिया और तब तक चार्ज करते रहे जब तक लेपटॉप ने दम न तोड़ दिया। फिर वो फोन पर व्यस्त हो गए और बहुत देर तक आपकी कृपा, आपका आशीर्वाद, प्रभु की कृपा जैसे वाक्यों से सहयात्रियों को कृतार्थ करते रहे। मुझे मोबाइल पर फ़िल्म देखनी थी तो मैंने कहा प्रभु लाइट बंद कर दें? उनका रुखाई से जवाब आया - नहीं मैं अभी फ़ोन कर रहा हूँ। फिर वो प्रभु तबतक फोन करते रहे जबतक कि फोन की बैट्री ने दम न तोड़ दिया।
अभी सुबह उठे हैं और प्रभु मैं आपका चार्जर इस्तेमाल कर सकता हूँ कहते हुए एक सहयात्री का चार्जर अपने मोबाइल में घुसेड़के बकबक किए जा रहे हैं। जनाब कपड़ा भी खुलेआम बदल रहें हैं और बातें तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहीं हैं। हाँ वैसे इनकी भाषा बड़ी अच्छी हैं। हिंदी, अंग्रेजी और मगही दनादन बोले जा रहे हैं। और मैं यह सोच रहा हूँ कि साईं तो ताजीवन दूसरों की सेवा में लगे रहे लेकिन साईं के ये भक्त ---? पूजने मात्र से क्या होता है जी? संवेदनशीलता और सेवाभाव पूजने से नहीं आती। साईं भी सोच रहे होगें भांति भांति के भक्त हैं मेरे। वैसे कल जो इन्होंने बड़ा सा टिका अपने माथे पर सजा रखा था उसका अब कहीं कोई नामोनिशान नहीं है। बिस्तर ने इनका टीका तो पोंछ दिया लेकिन मन? मुझे बाबा कबीर की याद आ रहे हैं।

नटमेठिया का भिखारी ठाकुर

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राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल से त्यागपत्र देने के पश्चात मैं कुछ दिन पूरी तरह से विश्राम की मुद्रा में था कि एक दिन रणधीर कुमार का फोन आया और पूछा कि क्या सूत्रधार (संजीव का उपन्यास) पर नाटक लिखा जा सकता है? यह उपन्यास पढ़े कई साल हो गए थे इसलिए तत्काल कुछ कहना संभव नहीं था। मैंने कहा पहले पढ़ता हूं फिर आगे की बात करता हूं। झारखण्ड की राजधानी रांची में साहित्यिक पुस्तकों की बड़ी किल्लत है। मगर घर में धुरंधर पढाकों की वजह से मुझे एक जगह का पता चला जहां किताब मिलने की संभावना थी। बल्कि पढाकों के पास वहाँ का फोन नंबर भी निकल आया और दुकान चूँकि घर से बहुत दूर थी इसीलिए पहले फोन से ही कन्फर्म कर लिया गया कि किताब वहाँ है। मैं रांची के लिए नया था इसलिए मैं और स्वाति स्कूटी से दुकान की ओर चले। पता चला कि स्वाति को दुकान के जहां होने का पता था दुकान वहाँ है ही नहीं। आखिर घर से फोन पर बातचीत के कई दौर और गलियों के कई चक्कर लगाने के बाद आखिर पता चला कि दुकान कहीं और चली गयी है। किसी तरह वहाँ जाने का पैदल रास्ता पता चला। हम ये सोच ही रहे थे कि वहाँ स्कूटी से कैसे पहुंचा जा सकता है कि तब तक स्वाति की स्कूटी ने स्टार्ट होने से ही मना कर दिया। दुकान के बजाये अब हम किसी मेकैनिक का पता लगाने लगे और ठेल ठाल कर वहाँ पहुंचे। हमारी तीन महीने की बिटिया घर में नाना नानी के पास थी तो हम बहुत देर भी नहीं कर सकते थे। सो स्वाति मुझे स्कूटी बनवाने छोड़कर अकेले दुकान की खोज में चली। उसके जाने के कुछ ही देर बाद ज़ोरदार बारिश शुरू हो गयी और लगभग घंटे भर होती रही। हमारे पास न छाता न बरसाती। स्वाति का फोन मेरी जेब में रह गया था तो उससे कोई संपर्क भी नहीं हो पा रहा था। बीच में घर से फोन आया तो मैंने गाडी ले कर आने को कह दिया। बारिश के बीच में ही उस सज्जन दुकान मालिक ने, जो स्वाति के बाबूजी के मित्र भी हुआ करते हैं, स्वाति को परेशान देख कर उसे अपनी गाडी पर भिजवा दिया। उस पतली सी दुकान में लगभग घंटे भर मकैनिक हमारी स्कूटी ठीक करता रहा और हम किसी तरह उस टपकते छत के नीचे अपने आपको बारिश से बचाते रहे। पहाड़ी इलाके की बारिश बड़ी ज़ालिम होती है, भीगे नहीं कि सर्दी, जुकाम और बुखार ने आ दबोचा। आख़िरकार गाडी का आगमन हुआ और स्वाति मुझे छोड़ कर दौडी दौडी अपनी माँ और बेटी के साथ उस पर बैठ गयी। गाडी में जगह और थी मगर स्कूटी को तो घर ले ही जाना था। गनीमत है कि घर से बरसाती आ गयी थी। अब मैं और बेचारी बीमार स्कूटी लगभग दस किलोमीटर ठुमक-ठुमककर चलकर भींगते हुए घर पहुंचे।
बहरहाल, कई दिनों तक भिखारी ठाकुर रचनावली, सूत्रधार व उनके ऊपर लिखे कई अन्य आलेख पढ़ने के बाद यह तो तय हुआ कि भिखारी ठाकुर के रचनाकर्म और संघर्षों के लेकर नाटक लिखा जाना चाहिए किन्तु उसके केन्द्र में उसके अलावा क्या होगा यह बात अभी तय होना बाकी थी। नाटक और डाक्यूमेंट्री दो अलग विधा है इसलिए नाटक में क्या होना चाहिए क्या नहीं इस बात को लेकर रणधीर और मेरे बीच फोन पर लंबी-लंबी बातों का सिलसिला शुरू हो गया। इन बातों से जो सार निकला वो यह कि नाटक संगीतमय होगा और हम भिखारी ठाकुर को एक आम रंगकर्मी की तरह ट्रीट करेंगें, पहले ही दृश्य से महान कलाकार के रूप में नहीं। साथ ही यह भी तय हुआ कि इसमे जातीय संघर्ष, नाट्यकला और सामाजिक सन्दर्भ को भी समाहित करने का प्रयास किया जाएगा। इसी क्रम में कहीं न कहीं यह भी निर्धारित हुआ कि एक ही नाटक में सबकुछ कह देना संभव और उचित नहीं इसलिए हम इसमे भिखारी ठाकुर के जन्म से लेकर एक प्रतिबद्ध कलाकार बनने तक की कथा ही कहें तो ठीक है। अब सवाल यह था कि इसे केवल भिखारी ठाकुर के जीवन तक ही सीमित किया जाय या फिर इसमें आज के कलाकारों के सवाल और चुनौतियों से भी जोड़ा जाय। क्योंकि समय भले ही बदला हो कलाकारों की दिशा और दशा में कोई गुणात्मक परिवर्तन लगभग ना के बराबर ही हुआ है। लेकिन सबसे पहले यह समझना ज़रूरी था कि मोकाम कुतुबपुर दियर, पोस्ट कोटवा पट्टी रामपुर, छपरा, जिला सारन के भिखारी ठाकुर आखिर थे कौन। इसे समझने के लिए संजीव का उपन्यास और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा प्रकाशित भिखारी ठाकुर रचनावली तो थी ही साथ ही हृषिकेश सुलभ का नाटक बटोही, मधुकर सिंह का नाटक क़ुतुब बाज़ार के साथ ही साथ जगदीशचंद्र माथुर, तैयब हुसैन ‘पीड़ित’, नारायण भक्त, विद्याभूषण, डॉ बालेंदु शेखर तिवारी, उमापति पाण्डेय, अंकुश्री, डॉ सिद्धेश्वर, चंद्रशेखर, ब्रज कुमार पाण्डेय, प्रोफ़ेसर रामसुहाग सिंह, जख्मिकांत ‘निराला’, गजेन्द्र नारायण सिंह, उर्मिल कुमार थापियाल, सुभाषचंद्र कुशवाहा, केदारनाथ सिंह, निराला, रघुवंश नारायण सिंह, मुन्ना कुमार पाण्डे आदि के आलेखों और रिसर्च का सहारा भी था। फिर उसी दौरान मैं रौवार्तो क्लासो की पुस्तक क भी पढ़ रहा था तो कुछ प्रभाव उसका भी था। इसी किताब का प्रभाव था जो इस तरह के संवाद नाटक में समाहित हुए – “ब्राहमण वह है जो ज्ञानी हो और स्वयं अपनी काया गलाकार संतुष्ट रहे। यहाँ तो ज्ञानी-पंडित भी जात देखकर बात करता है।”
तभी पता चला कि मेरे गांव बड्डोपुर में भी भिखारी ठाकुर अपने नाटकों की प्रस्तुति कर चुके हैं। तो पापा के साथ ही साथ गांव के कुछ बड़े बुजुर्गों से बातचीत कर उनके नाटकों और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया। भिखारी ठाकुर के जीवन और रचनाओं पर तुलसीदास कृत रामचरितमानस का बड़ा प्रभाव था इसलिए इस ग्रंथ को भी पढ़ा। इंटरनेट पर भी खूब सर्च किया। वहां बहुत सी जानकारी मिली किन्तु एक अनमोल खजाना जो हाथ लगा, वह था भिखारी ठाकुर की आवाज़ में उन्हीं के नाटक बिदेसिया का गीत – डगरिया जोहत ना। बुढ़ापे में भी आवाज़ की खनक सुनकर उनकी बहुमुखी प्रतिभा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर बिहार के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक इतिहास की भी पड़ताल ज़रुरी थी। बचपन में रात-रात भर जागकर देखे गए नाच-तमाशे और श्री संजय उपाध्याय के साथ लगभग दो साल तक भिखारी ठाकुर के प्रसिद्द नाटक में मेरे द्वारा निभाया गया नायक बिदेसी का अनुभव भी काम आ ही रहा था।  
इतना सबकुछ हो जाने के बाद मन में एक सवाल बहुत प्रखरता से कौंध रहा था कि हमारा भिखारी ठाकुर कैसा होगा? यदि वह बाकी लेखन से इतर न हुआ तो फिर इस लेखन की ज़रूरत ही क्या है? दो नाटक तो लिखे ही गए हैं उनके ऊपर फिर एक और नाटक की ज़रूरत ही क्या है? यह चिंतन मन में चल रहा था। रणधीर और मैं लगभग रोज़ घंटों इस मुद्दे पर फोन से बातचीत करते। इसी क्रम में यह समझ में आया कि हम नैरेटिव स्वरुप में काम करेंगें और हमारा भिखारी ठाकुर ऐसा रंगकर्मीं होगा जिसने तमाम संकटों, चुनौतियों, जातिगत संघर्षों आदि को पार करते हुए पूर्णतः देसज अंदाज़ में रंगकर्म को एक नया आयाम प्रदान किया। फिर यह भी समझ में आया कि जो काम बड़े-बड़े आधुनिक भरतमुनि नहीं कर पाए वह काम अपने समय में अनपढ़ माने जानेवाले भिखारी ठाकुर ने कर दिखाया। बिना समझौते और किसी प्रकार के ग्रांट के बिना सालों भर चलनेवाले एक व्यावसायिक रंगमंडल की स्थापना की। अपने नाटक लेकर जगह-जगह घूमे और अपने नाटकों के माध्यम से नाम और दाम कमाया। नाटक में एक जगह भिखारी कहते हैं – “खाली लगन भर कमाए से साल भर का खर्ची नहीं निकलेगा और जब नाच का धंधा कर लिया तो खाली लगन ही काकहे, साल भर कमाय के हिसाब बनावल जाओ।”
अब सबसे पहले यह तय होना था कि नाटक की भाषा क्या हो – तथाकथित बिहारी हिंदी, भोजपुरी या कुछ और? उक्त विषय पर रणधीर से बातचीत होने पर यह साफ़ हो गया कि चुकी इस नाटक को व्यापक दर्शकवर्ग के लिए तैयार किया जाना है इसलिए इसकी भाषा ऐसी रखी जाय जो व्यापक दर्शक वर्ग के समझ में आए। हालांकि इस बात का खतरा था कि एक भोजपुरिया पात्र जब शुद्ध हिंदी में संवाद अदायगी करेगा तो उसे लोग सहजता से स्वीकार करेंगे या नहीं। किन्तु यह सत्य ही है कि जब तक नाटक दर्शकों के समक्ष प्रदर्शित नहीं हो जाता तब तक हम दावे से कुछ नहीं कह सकते कि क्या स्वीकार किया जाएगा और क्या नहीं। इसी दौरान रणधीर ने यह भी बताया कि यह उसका “ड्रीम प्रोजेक्ट” है। मुझे काटो तो खून नहीं। एक तो भिखारी ठाकुर जैसा प्रसिद्द कलाकार और ऊपर से निर्देशक का ड्रीम प्रोजेक्ट। अब लिखूं तो क्या लिखूं। वैसे सच ही है कि वह भय ही है जो हमें चुनौती देता है। इससे डर गए तो मात और लगन, सार्थकता, सकारात्मक और सृजनात्मक उर्जा से भिड गए तो कुछ न कुछ अच्छा तो हो ही जाएगा। चिंतन की प्रक्रिया में एक बात तो साफ़ हो गई कि मुझे भिखारी ठाकुर के माध्यम से तुलसीदास से लेकर कबीर तक की यात्रा करनी है और दूसरी यह कि भिखारी ठाकुर के जीवन में घटित प्रमुख घटनाओं के माध्यम से जितनी भी मेरी समझ है उसके अनुसार कुछ सवाल भी खड़े करने हैं और साथ ही साथ तब से लेकर अब तक वर्ग, वर्ण और संस्कृतिकर्म पर टिपण्णी भी करनी है। भिखारी ठाकुर अपने नाटकों को नाच नहीं बल्कि तमाशा कहते हैं किन्तु नाच उनके तमाशे की प्रमुख श्रृंगार था, इसे भी परिभाषित करना था। नाटक में एक स्थान पर नाच को परिभाषित करते हुए भिखारी ठाकुर कहते हैं – “यह देह एक बागीचा है जिसमें तन-मन और आत्मा का वास होता है। नाच केवल तन नहीं बल्कि मन और आत्मा की चीज़ है। जब हम नाचते है तो पूरा देह नाचता है। सभी कुछ ताल में। एक ताल समाजी का, मतलब बजबैया का ढोलक, झाल और सारंगी और दूसरा ताल हमारे देह से निकलता है। कलाकार का ताल-लय, गीत-संगीत सब आत्मा से निकलना चाहिए तभी रस पैदा होगा नहीं तो सबकुछ ऊपर ही ऊपर रह जाएगा। जब देह, मन और आत्मा एकाकार हो जाता है तब आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, दीन, दुनियां का अस्तित्व खत्म हो जाता है और कला अपने पूरे कलात्मक स्वरूप से ओतप्रोत हो निराकार और उर्जावान रूप धारण कर लेती है।” कहने की ज़रूरत नहीं कि यहां जानबूझकर नाट्यशास्त्र का सात्विक अभिनय और स्तानिस्लावासकी के अभिनय सिंद्धातों का समावेश किया गया है। भिखारी ठाकुर ने भले ही कोई नाट्य सिद्धांत नहीं लिखा किन्तु यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनके मन में इस प्रकार के विचार नहीं चले होंगे। वैसे भी नाट्य-रचना में काल्पनिकता का समावेश न हो तो फिर रचना का आनंद खत्म हो जाता है। इतिहास लेखन और वृत्तचित्र से नाटक एक अलग विधा है।
हमें एक ऐसे कलात्मक चरित्र की रचना करनी थी जो सामाजिक ताने बाने में जाति के आधार पर कर्म निर्धारण को चुनौती पेश करे और मनमाफ़िक काम को करने की चुनौती स्वीकार करे। मैंने खुद से सवाल किया कि हमने रंगमंच जैसी अस्वीकृत और चुनौतीपूर्ण विधा का चयन क्यों किया? और जो जवाब मिला उसे भिखारी ठाकुर के मार्फ़त कुछ यूं कहलवाया  - “काम ऐसा हो जिसमें मन लगे। और मन ऐसा हो, जो मनमाफिक काम करने को बैचैन रहे। मनमाफिक काम का स्वाद एक बार मिल जाय, तो कहीं और मन कहां लगता है? तब क्या किया जाय – नाच? लोग क्या कहेंगें! मन में बहुत सारे ख्याल उठ रहें हैं। थोड़ा उजाला और ढेर सारा अँधेरा। क्या करें, कैसे करें?”
सूत्र मिल चुका था तो आखिरकार ए4 साइज़ के 84 पन्ने में नाटक का पहला ड्राफ्ट तैयार हुआ। इस ड्राफ्ट में ढेर सारे सीन थे बहुत सारे प्रकाश के अन्धकार और उजाला के साथ। यह निश्चित रूप से बहुत ही प्राथमिक स्तर का आलेख था जिसे रणधीर ने बड़े ही गौर और धर्य के साथ पढ़ा होगा और पहली प्रतिक्रिया दी कि नाटक में फेड आउट, फेड इन नहीं चाहिए ज़्यादा से ज़्यादा क्रॉस फेड कर सकते हो। फिर हम फोन पर एक-एक सीन पर घंटो बात करते रहे। आखिरकार मैंने कुछ दिन बाद दूसरा ड्राफ्ट भेजा जो 71 पन्ने का था। इस ड्राफ्ट के भेजने के कई दिनों तक रणधीर ने कोई फोन नहीं किया। इधर वो अभिनेताओं के साथ भिखारी ठाकुर से जुड़ी चीज़ों को पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया शुरू कर चुका था। मैं भी इस संकोच से फोन नहीं कर रहा था कि शायद उसे नाटक पसंद नहीं आया। अचानक एक दिन उसका फोन आया जिसका लब्बोलुआब यह कि “कई बार नाट्यालेख पढ़ने के पश्चात् उसकी राय यह है कि एक मुक्कमल नाटक तैयार करने के लिए बहुत सारा कच्चा माल उपलब्ध है इस आलेख में तो अब इस आलेख के सहारे काम शुरू किया जा सकता है। लेकिन नाटक बहुत बड़ा है लगभग पांच घंटे का हमें ज़्यादा से ज़्यादा डेढ़ घंटे का नाटक बनाना है।” वैसे यह पहले से ही तय था कि नाटक का फाइनल ड्राफ्ट फ्लोर पर काम करते हुए ही बनाना है। कुछ दिन रणधीर अभिनेताओं के साथ काम करेगा फिर वो, मैं और अभिनेतागण उसे सामूहिक रूप से अंतिम रूप देंगे। तो आलेख के साथ अभिनेताओं ने प्रयोग शुरू किया और मैं एक थियेटर वर्कशॉप के लिए डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) चला गया। अब समस्या यह कि नाटक का नाम क्या रखा जाय? मैंने जो नाम सुझाए थे वो रणधीर को पसंद नहीं थे। फिर मैंने भिखारी ठाकुर, नटयोगी, नटनायक, दलनायक, खेला, रंगमहल, नाच, तमाशा, मंडली, नाचलोक, समाजी, सवैय्या, नेवता, संवदिया, सट्टा आदि नाम सुझाए किन्तु कोई भी नाम उसे जंच नहीं रहा था। हर नाम पर खूब चर्चा ज़रूर हुई। बाद में पता चला कि नाम के तलाश में कई अन्य लोग भी लगे थे। नाम को लेकर मेरा मानना था कि नाम ऐसा हो जिसे सुनते ही पता चल जाए कि यह भिखारी ठाकुर के बारे में है लेकिन रणधीर का मानना था कि नहीं, हम ऐसा कुछ नहीं करना चाहते जिससे दर्शक किसी भी प्रकार पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर नाट्य प्रदर्शन देखने आए।
पुरी रचना प्रक्रिया में हम दोनों एक दूसरे से क्रिएटिव रूप से सहमत-असहमत होते रहे। यह सहमति-असहमति नाटक के पहले भी थी और आज भी है। आज भी नाटक में कुछ चीजे मुझे पसंद नहीं तो कुछ उसे। बहरहाल, मैंने कहा तुम्हें जो नाम पसंद है रख लो। कुछ दिन के बाद उसने पूछा कि नटमेठिया नाम कैसा रहेगा? मैंने कहा एकदम सही। नट माने अभिनेता और मेठिया मेठ से बना है अर्थात नेतृत्वकर्ता। भिखारी ठाकुर नायक ही तो थे - नटों के नायक।
बहरहाल, कार्यशाला खत्म कर मैं पटना पहुंचा और कुछ दृश्य इधर-उधर, कुछ नए संवाद जोड़कर, कुछ घटाकर नाटक को एक रूप देने का कार्य सामूहिक रूप से शुरू हुआ। आज इस नाटक के बारे में विश्वास से यही कह सकता हूं कि यह एक जीवनीपरक (Bio-graphical) नाटक है जिसके केन्द्र में हैं लेखक, कवि, अभिनेता, निर्देशक, गायक, रंग-प्रशिक्षक भिखारी ठाकुर और भारतीय समाज की जटिल वर्गीय व जातीय बुनावट। यह नाटक जितना सच है उतना ही काल्पनिक भी। भिखारी ठाकुर की संघर्षशील जीवनयात्रा का काल 1887 से 1971 है यानि ब्रिटिश राज से लेकर आज़ाद भारत और भारत निर्माण तक का काल। यह वही समय है जिसमें दुनियां में क्रांतियों व विश्वयुद्धों का दौर चलता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचता है और भारत एक आज़ाद देश घोषित होता है। वैश्विक धरातल पर तेज़ी से घटित होता यह तमाम सामाजिक - राजनीतिक परिघटनाएं इस नाटक के विषय वस्तु को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं और कहीं-कहीं तो सीधे विषय-वस्तु ही बन जाती हैं। नाटक के केन्द्र में ‘नाच’ जैसी ‘इरोटिक’ और विशुद्ध मनोरंजन मात्र के रूप में लोकप्रिय विधा भी है जिसे परिष्कृत और कलात्मक बनाकर आज के आम आदमी का दुःख दर्द को अभिव्यक्त करने का माध्यम के रूप में प्रस्तुत करने की छटपटाहट भिखारी ठाकुर के अंदर साफ़-साफ़ महसूस किया जा सकता है; जिसमें एक तरफ़ सामाजिक संघर्ष है तो दूसरी तरफ़ एक कलाकार के अपने अंतर्जगत का संसार। कहीं परम्परा का निर्वाह है तो कहीं उसके घुटन भरे ताने-बाने से निकलने की चटपटाहट भी।
यह नाटक नाट्यकला के प्रति पूर्णतः समर्पित भिखारी ठाकुर के जीवन, कला व लेखन के माध्यम से एक खास प्रकार का दलित, स्त्री व रंगमंचीय विमर्श भी प्रस्तुत करने का प्रयत्न भी करता है। जिसमें उनके संघर्ष के साथ ही साथ भारतीय वर्ग-वर्ण व्यवस्था का सजीव, रोचक व क्रूर चित्रण भी सामने आता है।
एक ऐसे समाज में जहाँ पर्व-त्येहारों व कर्म-कांडों आदि के अलावा नाचना-गाना शूद्रों का पेशा माना जाता है और “नाटक/नौटंकी मत करो”  जैसे वाक्य लगभग गाली के रूप में इस्तेमाल होते हैं वहां समाज में व्याप्त कुरीतिओं के खिलाफ़ जब कोई कलाकार पारंपरिक कलात्मक व सामाजिक तौर-तरीकों, प्रतीकों (Traditional artistic & Social Styles-Symbols) का इस्तेमाल सुधारवादी चिंतन के लिए करता है तो उसे लोकप्रियता के साथ ही साथ कला और समाज के विचारों के अंतरद्वन्द का भी सामना करना ही पड़ता है। इस द्वन्द के सार्थक इस्तेमाल से ही तो कला और समाज दोनों में निखार आता है और मानवीय संवेदनाएं वर्जनाओं और कर्मकांडों से ऊपर उठकर और ज़्यादा मानवीय होने की दिशा में अग्रसर होतीं हैं।
तमाम वर्गों, वर्णों, जातियों, समुदायों में विभाजित, सामंती और उपभोक्तावादी मानसिकता से ग्रसित समाज में कला, कलाकार, वर्ग और समाज का संघर्ष पुराना है। तिथियाँ बदली हैं, परिस्थितियां बदली हैं, स्वरुप बदला है, तरीका बदला है किन्तु यह संघर्ष आज भी समाप्त नहीं हुआ है। प्रस्तुत नाटक भिखारी ठाकुर के माध्यम से कला-कलाकार व समाज के बीच व्याप्त इसी द्वन्द व संघर्ष की एक व्यावहारिक गाथा है।
इस नाटक की रचना प्रक्रिया में निर्देशक रणधीर कुमार के अलावा सुनील बिहारी, मनीष महिवाल, अजित कुमार, बुल्लू कुमार, आशुतोष अभिग्य, रवि महादेवन, शिल्पा भारती, आकाश कुमार, रवि कौशिक, निखिल, और आकाश आदि अभिनेताओं तथा भूपेंद्र कुमार, मार्कंडेय पांडे, आदित्य गुंजन, विनय राज आदि पार्श्वकर्मियों ने बराबर की भागेदारी की है। पटना की भीषण उमस वाली गर्मी में इस नाटक के एक-एक दृश्य को रचने, सजाने-सवारने में जम के अपना पसीना बहाया है। इनके प्रति आभार व्यक्त किए बिना इस नाटक की रचना अधूरी है। राग, पटना के तत्वावधान में 8 जुलाई 2014 को इस नाटक की पहली प्रस्तुति पटना के कालिदास रंगालय में हुई। तब से लेकर आजतक कई सारे दृश्य बदले, अभिनेता बदले लेकिन इसकी प्रस्तुति पटना सहित देश के विभिन्न शहरों में सतत जारी है। लगातार मंचित होते रहने और उसमें सक्रिय भागीदारी निभाते रहने से एक-एक करके नाट्यालेख की कमज़ोर कड़ियां पता चल रही हैं जिसे हम निर्देशक, अभिनेताओं के आपसी सामंजस्य से दूर करते चल रहे हैं। प्रसिद्द नाटककार दरियो फ़ो ने कहा है कि – “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।” फ़ो के इसी कथन की परिणति है मेरा पूरा रंगकर्म और नटमेठिया नामक यह नाटक भी।” कहा जा सकता है कि इस नाटक मे भिखारी ठाकुर और उन पर लिखी तमाम साहित्यिक कृतियों के माध्यम से हम सब अपने आपको ही तलाश रहे हैं और यह तलाश आज भी सतत जारी है। नटमेठिया रोज़ नए रूप धरता है, यही उसकी नियति है। उसमें शायद ही कभी पूर्ण-विराम लगे।  

युगल किशोर : वो ज़िन्दादिली, वो शरारत भरी मुस्कान

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कल रात तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही थी तो मैं जल्दी सो गया था. सुबह – सुबह तड़के आँख खुलते ही नेट ऑन करके फेसबुक, वाट्सअप आदि के मैसेज चेक करना अब हम जैसे लोगों की आदतों में शुमार है. जैसे ही नेट ऑन किया तो वेदा राकेश जी का मैसेज वाट्सअप पर पड़ा था - V sad news…Jugal passed away. मैसेज 11.24 बजे रात्रि का था. मैं अभी ठीक से जगा भी नहीं था. मैंने जवाब में केवल व्हाट लिखा. सच कहूँ तो इस खबर पर यकीन नहीं किया जा सकता है. मैंने फ़ौरन वेदा जी को फोन लगाया. राकेश जी ने फोन उठाया. हमेशा बुलंद आवाज़ में बात करनेवाले राकेश जी के स्वर में बेहद उदासी थी. उन्होंने बस इतना ही कहा कि बड़ा ही विकट समय है, एक एक करके सारे अच्छे लोग हमें छोड़कर जा रहे हैं. मेरी और राकेश जी दोनों ही के समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि इस वक्त और क्या बात किया जा सकता है. सच है कि कभी – कभी शब्द बड़े ही बौने हो जाते हैं और मौन मुखर.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में बतौर कलाकार मेरे साथ भारतेंदु नाट्य अकादमी के कुछ पूर्व विद्यार्थी भी कार्यरत थे. उनके मुंह से जुगल सर के किस्से बहुत सुने थे. हालांकि सुनी सुनाई बातों पर किसी भी व्यक्ति के बारे में कोई अवधारणा बनाना उचित नहीं लेकिन इतना तो समझ में आ ही गया था कि एक खुशमिजाज और जिंदादिल इंसान की कथा है. फिर पीपली लाइव नामक फिल्म देखी तो इनके चहरे से भी रु-ब-रु होने का अवसर प्राप्त हुआ. चेहरे पर लखनवी पानी और नमक की चमक साफ़ - साफ़ देखी जा सकती थी. साथ ही साथ यह भी अंदाज़ा हो गया कि वो निश्चित ही एक बेहतरीन अभिनेता हैं.
फरवरी 2015 को युगल सर से मुलाकात हुई इप्टा के डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) इकाई द्वारा आयोजित 10 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह में. रामलीला नाटक के लेखक राकेश जी, निर्देशिका वेदा राकेश जी के साथ युगल सर भी इस आयोजन में मुख्य अतिथि के बतौर आमंत्रित थे. चाय पीते – पीते पता नहीं कब गप्पों का सिलसिला शुरू हो गया. अजनबी जैसा कुछ लग ही नहीं रहा था. अपने एकांतप्रिय स्वभाव के कारण मैं पहले थोड़ा असहज ज़रूर था किन्तु फ़ौरन ही यह असहजता कब और कैसे गायब हो गई, पता ही नहीं चला. फिर क्या था हम तीन दिनों तक जमके बातें करते रहे. दुनियां जहान के किस्से, मज़ाक. सकारात्मक सोच के इन तीनों इंसानों को सुनना ही मेरे मन में उर्जा का संचार कर रहा था. हम साथ – साथ नाश्ता करते, चाय पीते, खाना खाते, नाटक देखते, अतिथि की कुर्सी पर बैठते, घूमते – टहलते और खूब सारी गप्पें मारते.
एक शाम हम नाटक देखने पहुंचे. साउंड चेक करने के लिए ऑपरेटर कबीर का एक गीत “मन लागो यार फकीरी में” बजा रहा था. युगल सर और मैं दोनों सुकून भरा यह गायन सुनने लगे. युगल सर ने पूछा – किसने गाया है. मैंने कहा – सर मुझे पता नहीं. जुगल सर बोले – बड़ा सुकून से गया है. गीत खत्म हुआ तो युगल सर उठकर ऑपरेटर के पास गए और उससे दुबारा यह गीत बजाने का अनुरोध करते हुए पूछा कि यह गीत किसने गाया है. ऑपरेटर ने कहा – मुझे पता नहीं. फिर युगल सर ने कहा  - उन्हें यह गीत मिल सकता है क्या? ऑपरेटर ने कहा - पेन ड्राइव या स्मार्ट फोन है तो ले लीजिए. युगल सर के पास यह दोनों नहीं था. मैंने कहा – सर मैं ले लेता हूँ फिर आपको भेज दूँगा. युगल सर ने कहा – ठीक है. बाद में मैंने उस ऑपरेटर से यह और एक और गीत लिया – “पत्ता बोला बृक्ष से.” ले लिया. मैं जब गीत अपने मोबाईल में ट्रांसफर कर रहा था तो पता चला कि यह सुजात हुसैन खान ने गाया है. लेकिन अफ़सोस आजतक यह गीत मेरे ही पास हैं.
तीन दिन साथ रहने के पश्चात् हम विदा हो गए. युगल सर को जब भी मौका मिलता फोन लगा देते और फिर हम गप्पें मारने में व्यस्त हो जाते. अभी पिछले दिनों वो अपना नाटक “बेयरफुट इन एथेंस” (निर्देशक – राज बिसारिया) लेकर पटना आए हुए थे. लेकिन अफ़सोस कि मुझे उसी दिन पटना से रांची के लिए गाड़ी पकड़ना था. उन्हें मंच पर अभिनय करते हुए देखने की तमन्ना अधूरी ही राह गई. बहरहाल, कितनी बातों का अफ़सोस किया जाय. हां यह शिकायत ज़रूर रहेगी कि रंगमंच और समाज में जिंदादिल लोग अब बहुत ही कम बचे हैं. जिससे भी मिलो हाय पैसा, हाय पैसा करता रहता है. ऐसे समय में युगल सर का हमसे जुदा होना कही से भी सही और तर्क संगत नहीं है. यह भी कोई उम्र थी? इस उम्र में ही तो अभिनेता का अभिनय जवान होता है. अब तो बस यही उम्मीद है कि जुगल सर की जिंदादिली और शरारत भरी मुस्कान हम जैसे को सही राह दिखाए. अलविदा सर नहीं कहूँगा क्योंकि आप हम जैसे पता नहीं कितने शिष्यों के ह्रदय में धड़कन बनके धड़क रहे हैं और धड़कते रहेंगें.   

बिहार विधानसभा चुनाव 2015 उर्फ़ मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है!

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मेरा गांव बाढ़ शहर से लगभग आठ किलोमीटर अंदर है लेकिन चुनाव का क्षेत्र मोकामा पड़ता है। बाढ़ शहर से गांव की तरफ़ जानेवाली सड़क का अतिम पड़ाव है मेरे गांव। उसके आगे आज भी पगडंडियों का ज़माना है। गांव के लोग लगभग रोज़ ही बाढ़ जाते हैं, मोकामा नहीं। स्टेशन भी बाढ़ ही पड़ता है लेकिन चुनाव क्षेत्र पता नहीं क्यों मोकामा। आज से पच्चीस साल पहले गांव में बिजली थी और नल से पानी आता था। फिर एक समय इलाके में बिजली के तार की चोरी होने लगी। तो एक रात हमारे इलाके की तार भी चोरी हो गई और हम सब राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से लालटेन युग में चले गए। बिजली गई तो पानी भी गायब हो गया। सड़क की हालत ऐसी की कहाँ गड्ढा है और कहाँ सड़क यह तय कर पाना किसी कठिन पहेली को सुलझाने जैसा दुरूह प्रश्न था। लालटेन युग में अपराध का आलम यह हुए कि एक जाति का आदमी दूसरे जाति के गांव में जाने से भय खाने लगा। खुद मेरे गांव का रास्ता भी बदल गया। अब बगलवाले गांव में जाना खतरे से खाली नहीं रह गया था।
गांव में बहुत पहले स्टेट बैंक की एक शाखा खुली थी। बैंक मैनेजर रोज़ बाहर से आता था। एक दिन बैंक के मैनेजर से ही पैसे मांगने लगे कुछ लोकल गुंडे तो बैंक ही वहां से उठकर पंडारक चला गया। वहां आज भी बैंक के बोर्ड पर मेरे गांव का ही नाम टंगा है। ऐसा नहीं था कि सब एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए हों लेकिन दूध भरी बाल्टी को दूषित करने के लिए एक मक्खी ही काफी है।
गांव के दक्षिण कोने पर मुसहर नामक दलित जाति की बस्ती है। एक से एक नायक, जननायक हुए बिहार में लेकिन विकास की कोई भी निशानी वहां तक पहुँच नहीं पाई। राजधानी से वहां के लिए कुछ चला भी तो बड़ी जाति की बस्ती में आकर ठहर गया। कुछ बदलाव हुए भी लेकिन इस बदलाव में सरकार की भूमिका के बजाय पलायन की भूमिका ज़्यादा है। पहले खेत में बनिहार और बंधुआ मजदूर बनकर किसी जानवर की तरह खटनेवाले यह लोग खेती और सामंतवाद की हालत खस्ता होने के उपरांत शहरों की ओर पलायन कर गए। वहां हाड़ तोड़ मेहनत मजदूरी करके रोज़ कमाओ, रोज़ खाओ वाले की श्रेणी में शामिल हो गए। इन्हें सामंतवाद की क्रूरता से तो मुक्ति मिली है लेकिन पूंजीवाद का दमन अभी भी इनकी किस्मत बनी है।
पुरे गांव का चक्कर मारिए तो उसकी भी हालत देश की हालत जैसी ही है अर्थात एक या दो घर अमीरी की चादर लपेटकर तरक्की (आर्थिक रूप से) कर रहे हैं और बाकि के लोग दिन प्रतिदिन और ज़्यादा गरीब होते जा रहे हैं। हां जो बिना किसी भेद भाव के बढ़ रहा है वह आबादी, गरीबी और पलायन। गाँव में पर्व - त्योहारों में थोड़ी रौनक आ भी जाती है लेकिन बाकि दिन तो सन्नाटा ही पसरा रहता है। जो लोग सालों भर यहाँ रहते हैं उनके चहरे देखर साफ़ समझा जा सकता है कि उन्होंने सालों से खुले दिल से ठहाका नहीं लगाया है। गांव की सामूहिकता और बैठकी तो अब इतिहास की बात हो गई है।
खेती यहाँ का मुख्य साधन है लेकिन उसकी हालत खस्ता है और न जाने कब से सरकारों को इसकी कोई चिंता भी नहीं है। घरों के ऊपर केवल टीवी के छाते और हाथ में मोबाईल आ गए हैं। पहले तीन फेज बिजली आती थी, जिससे सीचाई का काम भी होता था अब केवल एक फेज बिजली है जिससे आप टीवी देखिए, फ्रिज चलाइए और मोबाईल चार्ज कीजिए। हां, इधर शहर से गांव जानेवाला सड़क में कुछ सुधार है और कुछ छोटे अपराधी जेल की हवा खा रहे हैं। लेकिन जीवन और समाज के मुलभुत सवाल आज भी जस के तस मुंह बाए खड़े हैं।
यह स्थिति लगभग पुरे इलाके अर्थात एशिया का सबसे बड़ा टाल कहे जानेवाले इलाके की है। ऐसी स्थिति के बीच आखिरकार बिहार विधानसभा का एक और चुनाव संपन्न संपन्न हो गया। बहरहाल, बिहार विधानसभा चुनाव मुख्यतः नितीश-लालू महागठबंधन और मोदी की भाजपा के बीच थी। महागठबंधन का मुख्य चेहरा नितीश कुमार थे तो भाजपा ने किसी भी बिहारी नेता को भाव न देते हुए मोदी ब्रांड सुनामी ही चलाने का काम किया। उन्हें शायद यह विश्वास था कि जब यह हवा देश में चल गई तो बिहार में क्यों नहीं चलेगी। जहाँ तक सवाल लालू का है तो वो क्या थे और क्या हो गए यह बात सबको पता है। वैसे भी जयप्रकाश नारायण के शिष्यगण उनका नाम लेकर आज के समय में क्या गुल खिला रहे हैं, यह बात अब जग ज़ाहिर है। कॉंग्रेस की हालत बिहार में चटनी जैसा है जिसे खाते वक्त ज़रा सा चाट लिया जाता है और वामपंथ अपना खूंटा ही तलाश ले तो काफी है।
तो मूल मुकाबला महागठबंधन और मोदी (यह चुनाव व्यक्ति केंद्रित ज़्यादा था पार्टी और विचारधारा केंद्रित कम) के बीच था। दोनों तरफ़ से ऐसे ऐसे और इतने प्रकार के दावे -वादे किए हैं कि उनमें से यदि आधे भी कोई पूरा किया जाय तो बिहार पता नहीं कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा। लेकिन अफ़सोस ऐसा होगा नहीं। क्योंकि जुमले का जवाब जुमला था और झूठ का जवाब उससे भी बड़ा झूठ। कोई कहता हम आम देंगें तो दूसरा झट से कह उठता कि आम क्या हम तो आम के साथ कटहल भी देंगें। यह कोई बताने को तैयार नहीं कि यह आम और कटहल और इसके लिए पैसा कहाँ से आएगा।
नेता एक दूसरे के ऊपर बड़े ही बेशर्म होकर कीचड़ फेंकते रहे और किसी ने बिहार और बिहार की जनता की मुलभुत ज़रूरतों और समस्याओं पर कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। गरीबी, बेरोज़गारी, जातिवाद, शिक्षा आदि को छोड़कर गाय और जंगलराज का कानफोडू शोर ही होता रहा। जाति की बात हुई भी तो केवल वोट बटोरने के लिए। चुनाव के ठीक पहले कुछ हत्याएं और धार्मिक स्थलों पर मांस के टुकड़े फेंकने जैसा पुराना नुस्खा भी अपनाया गया, जिसे बिहार की जनता ने बड़ी ही क्रूरता से नकार दिया। इसके लिए उनकी जितनी भी तारीफ़ की जाय, कम है। दंगा कराकर वोट का धुर्वीकरण करना जिनका पेशा है वो बेचारे बड़े निराश भी हुए होंगें और बिहारियों को पानी पी-पीके कोसा भी होगा। जहाँ तक सवाल भाजपा का है तो इसकी विचारधारा के अंदर ही भष्मासुर के तत्व विराजमान हैं, जो अपना विनाश खुद ही करेगा। हां, इस चुनाव में वाम एकता भी हुए लेकिन वाम ने यह काम तब किया है जब वो आवाम से तमाम हो रहा है और देर आए लेकिन दुरुस्त आने जैसा अब कुछ बचा ही नहीं है इनके लिए बिहार में।
भारत के कोई भी चुनाव अब ताकत और पैसे का खेल बन चुका है। इस चुनाव के मद्देनज़र इलेक्शन कमीशन द्वारा बनाई गई टीम एवं इन्कम टेक्स डिपार्टमेंट द्वारा अब तक कुल 39 करोड़ रुपया (विदेशी मुद्रा सहित),1.67 लाख लीटर शराब, 857.91 किलोग्राम गांजा, 7.84 लाख किलोग्राम महुआ, 336 ग्राम हीरोइन, 8.66 किलोग्राम सोना पकड़ा गया। इतना तो पकड़ा गया। इससे कहीं ज़्यादा इस चुनाव के "महापर्व"में खाप गया होगा।
ज्ञातव्य है कि इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव कुल पांच चरणों में संपन्न हुआ। मुख्य चुनाव अधिकारी के अनुसार इस चुनाव में कुल 300 करोड़ रूपए खर्च हुए हैं। जिसमें 152 करोड़ विभिन्न गाडियां, पेट्रोल, डीजल, बूथ बनाने, उसकी बैरिकेटिंग और चुनाव से सम्बंधित चीज़ों की छपाई में खर्च हुए। इस चुनाव में कुल 89,000 गाड़ियों का इस्तेमाल हुआ। वहीं सुरक्षा और केंद्रीय फ़ोर्स पर कुल 78 करोड़ रुपया खर्च किया गया। यदि विभिन्न पार्टियों द्वारा खर्च किए गए रुपयों को भी इस खर्च में जोड़ दिया जाय तो खर्च का यह आंकड़ा कितने हज़ार करोड़ पर जाके रुकेगा इसका अनुमान मात्र से ही किसी भी आम नागरिक का ह्रदय गति रुक सकता है।
चुनाव आयोग जितना रूपया खर्च करने की इजाज़त एक प्रत्याशी को देता है उतने में बहुत कम ही प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं। अभी हाल ही में एक स्ट्रिंग ऑपरेशन हुआ था जिसमें एक प्रतिष्ठित पार्टी के मंत्री महोदय रुपया ग्रहण करते हुए उदगार व्यक्त कर रहे थे कि एक प्रत्याशी को "सही तरीके से"चुनाव लड़ने में करोड़ों रुपया खर्च बैठता है। यदि इसे सच माना जाय तो काले धन का इस्तेमाल भी कोई आश्चर्यजनक तथ्य नहीं है।
इस बार के बिहार चुनाव में Bihar Election Watch and Association for Democratic Reform के अनुसार कुल 3450 कैंडिडेट मैदान में थे, जिनमें महिला उम्मीदवारों अर्थात आधी आबादी के उम्मीदवारों की संख्या केवल 273 (8%) थी। यह संख्या पिछले चुनाव से एक प्रतिशत कम थी। पार्टियां महिलाओं के लिए बड़े बड़े वादे तो करती हैं लेकिन उन्हें टिकट देने में हद दर्जे की कंजूसी करती है। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में 3523 प्रत्याशियों में 3019 की जमानत जब्त हो गई थी। ज्ञातव्य हो कि उस वर्ष कुल 307 महिला प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था जिनमें से 242 की जमानत जब्त हो गई थी। तो हारनेवाले प्रत्याशी पर कोई भी दल दाव और पैसे क्यों लगेगा भला? प्रसिद्द लेखिका इस्मत चुगताई अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक “कागज़ी है पैराहन” में लिखतीं हैं – “यह मर्द की दुनियां है, मर्द ने बनाई और बिगाड़ी है। औरत एक टुकड़ा है उसकी दुनियां का जिसे उसने अपनी मुहब्बत और नफ़रत के इज़हार का ज़रिया बना रखा है। वह उसे अपने मुड के मुताबिक पूजता भी है और ठुकराता भी है।” तो क्या यह चुनाव भी मर्दों और पैसों का खेल है? जो भी हो लेकिन लोगों का आज भी मतदान में हद दर्ज़े का विश्वास है। और कवि धूमिल के शब्दों में कहा जाय तो – बुरे और कम बुरे के बीच चुनते हुए न उन्हें भय है, न लाज है। इस चुनाव में 796 (23%) उम्मीदवारों पर हत्या, हत्या का प्रयास, सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गम्भीर अपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें भाजपा के 39%, जदयू के 41%, राजद के 29% कांग्रेस के 18% उम्मीदवार शामिल हैं। पिछले साल इनकी संख्या 560 (18%) थी। यानि की इस साल 5% की बढ़ोतरी हुई है। तर्क या कुतर्क यह कि दोषी या निर्दोष अदालत तय करेगा, हम या आप नहीं और फिर मुकद्दमे का क्या है वह तो किसी के ऊपर कोई भी कर सकता है। इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि हम जानते हैं कि फलां का पूरा इतिहास ही अपराधिक रहा है लेकिन हम उसे अपराधी नहीं कह सकते, मानना तो बहुत दूर की बात है। फिर अपराधी अगर दबंग है और अपनी जाति का है तो वह खलनायक नहीं बल्कि नायक होगा। हालत तो यह है कि अदालत से सजा पाने के बाद भी लोग पार्टियों के सुप्रीमो बने हुए हैं और जमानत पर बाहर निकलके खुलेआम न केवल चुनाव प्रचार कर रहे हैं वरन् राज्य और देश की दशा और दिशा सुधारने की बात भी कर रहे हैं! और सबसे बड़ा आश्चर्य यह कि हम उनपर विश्वास भी करते हैं।
कहा जाता है कि बिहार एक गरीब और पिछाडा हुआ राज्य है। लेकिन भाजपा के 67%, जदयू के 75%, राजद के 65%, कॉंग्रेस के 20% उम्मीदवार सहित 1150 अन्य उम्मीदवार करोड़पति हैं। वही एक उम्मीदवार की संपत्ति तो 928 करोड़ है। तो गरीब राज्य के मंत्री अमीर कैसे हो जाते हैं? क्या सच में बिहार एक गरीब राज्य है? तो फिर एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म) और बिहार इलेक्शन वॉच के इस आकड़े को क्या कहेंगें जो यह बताते हैं कि पिछले चुनाव (2010) से इस चुनाव के बीच जो विधायक पुनः चुनाव लड़ रहे हैं उनकी कुल संख्या 160 है। जिनमें जदयू के 52, भाजपा के 66, राजद के 12 और कांग्रेस के 6 विधायक शामिल हैं। उनमें जदयू विधायकों के धन में 314%, भाजपा के 155% और राजद के 76% की बढ़ोतरी हुई। पिछले 5 वर्षों में इन 160 विधायकों की औसत सम्पत्ति करीब 200% बढ़ी हैं। 2010 में इनकी औसत सम्पत्ति 86.1 लाख रूपए थी। यह 2015 में बढ़कर 2.57 करोड़ हो गई। जदयू के एक विधायक की सम्पत्ति तो 13 हज़ार प्रतिशत तक बढ़ गई। अब सवाल यह है कि यदि बिहार एक गरीब राज्य है तो एक गरीब राज्य के विधायक दिन प्रतिदिन अमीर कैसे होते जा रहे हैं?
बिहार ही नहीं भारत के बारे में भी यही बात प्रचारित की जाती है कि भारत एक गरीब देश है लेकिन पुरे भारत के नेताओं को देखकर क्या सच में ऐसा लगता है? “आज का भारत 1940” नामक पुस्तक में इतिहासकार रजनी पामदत्त का कथन हैं – “भारत गरीबों का देश है, लेकिन भारत गरीब देश नहीं है। भारत की वर्तमान स्थिति से दो तथ्य सामने आते हैं। एक तरफ़ भारत की प्राकृतिक सम्पदा एवं संसाधनों की बहुलता वर्तमान आबादी एवं उससे भी ज़्यादा आबादी को समृद्ध – संपन्न बनाने की क्षमता रखती है।” तो क्या इस देश की प्राकृतिक सम्पदा एवं संसाधन की लूट ज़ोरों से नहीं हो रही हैं और इस लूट में क्या वो सबलोग शामिल नहीं हैं जिनके उपर की इस देश का भविष्य संवारने का दारोमदार था/है। ज्ञातव्य है कि ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत की आधी से ज़्यादा आबादी आज भी गरीबी और भुखमरी से पीड़ित है।
खैर हम एक उदार लोकतंत्र के निवासी हैं और इन सब बातों से लोक और लोकतंत्र दोनों को ही अब कोई फर्क पड़ता नहीं पड़ता है! यहाँ चुनाव को एक ऐसे महापर्व के रूप में प्रचारित और प्रसारित किया जाता है जैसे सारी समस्यायों का हल इसी से हो जाएगा! बहरहाल, चुनाव संपन्न हुआ। निश्चित ही किसी न किसी की जीत हार तो होगी ही। लेकिन जीतती भी जनता है और हारती भी जनता है !!! प्रसिद्द कवि धूमिल अपनी चर्चित कविता “पटकथा” में लिखते हैं –
मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्राएँ हैं
हर तरफ़
शब्दवेधी सन्नाटा है।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूंथाता हुआ। घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है। 

दिवाली : एक कम्युनिस्ट के बेटे का मूर्खतापूर्ण इमोशनल पोस्ट

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बात उस ज़माने की है जब कम्युनिस्ट पार्टी के पास जूनून था, हौसला था। उसके कार्यकर्ताओं की आँखों में नई दुनियां बसने और बनाने का सपना था। हां कुछ नहीं था तो - पैसा। यह बिहार के पृष्ठभूमि में 1974 के छात्र आंदोलन के बाद वाले काल की बात है। जब कम्युनिस्ट होलटाइमर अपना घर परिवार छोड़कर अपने-अपने इलाके में किसी फकीर की तरह रहते थे। जो मिलता वो खाते, जहाँ नींद लगती वहीं जनता के साथ ही किसी घर, दालान या खुले आकाश के नीचे में सो जाते। सम्पत्ति के नाम पर उनके पास बस एक सर्वोदयी झोला होता जिसमें कलम, कॉपी, किताब, एकाध कपड़े के अलावा यदि कुछ होता तो वह था नई दुनियां बनाने का सपना। इसी काल में शायद “झोलटंग” नामक शब्द भी प्रचालन में आया था, जो शायद इनका ही उपहास बनाने के लिए प्रचलित हुए होगा। वैसे भी झोला और दाढ़ी तो उन दिनों फैशन बन ही गया था। महिलाओं की दाढ़ी आती नहीं, हां महिला कार्यकर्त्ता भी होंगे ही उन दिनों, अब वो झोलटंगी करती थीं या नहीं यह एक अध्ययन का विषय है।
वह चिट्ठी युग था - मोबाईल और टेलीफोन युग नहीं। वे कार्यकर्त्ता घर से महीनों महीना गायब रहते और उनके घरवालों को उनकी कहीं कोई खोज-खबर नहीं मिलती। अब ज़रा कल्पना कीजिए उन पत्निओं की हालत का जो इनसे ब्याह दी गईं थी और जिन बेचारियों को यह समझ ही नहीं आता था कि उनका पति आखिर करता क्या है। भिखारी ठाकुर की नायिका प्यारी सुंदरी को तो कम से कम यह तो पता था कि उसका पति बिदेसी बिदेस गया है तो नगदा-नगदी दाम कमाने; लेकिन इन पत्नियों को तो यह भी पता नहीं था कि उसके अच्छे खासे पढ़े लिखे पति कोई ढंग की नौकरी करने के बजाय जाता कहाँ है और करता क्या है! नगदा-नगदी दाम की तो बात ही बेकार है। घर आते वक्त कभी पांच पैसे का एक लमचुस (उस वक्त का टॉफी) भी ले आए तो गनीमत। अब इन बेचारियों की किस्मत में इंतज़ार और घर और आस पड़ोस के ताने सुनने के सिवा शायद ही कुछ और था। इनके पति जब कभी पुलिस द्वारा गिरफ़्तार कर लिए जाते तब तो दुःख का पहाड़ ही टूट पड़ता जैसे। क्योंकि मान्यता यह है कि पुलिस तो गुंडे मवाली को पकड़ती है! खैर ये बेचारी पत्नियाँ किसी बटोही के कंधे पर सिर रखके सरेआम – “पीया निपटे नादंवा ए सजनी” भी नहीं गा सकतीं थी।
यह महिलाएं सिमोन द बुवआर भी नहीं नहीं थी कि अपने इस क्रांतिकारी और समाज की चिंता में बेदर्द हो गए पति को त्याग कर अपनी आज़ादी को गले लगा लें। यह एकदम साधारण सोच रखने वाली औरतें थीं जिनके लिए शादी का अर्थ जन्म जन्मांतर का बंधन जैसा ही कुछ था। अब इनके सामने घर के किसी अंधेरे कोने में मुंह दबाते हुए रोने-सिसकने और चुपचाप घरवालों के ताने सुनते हुए घर के काम में व्यस्त रहने के सिवा कोई और चारा भी नहीं था। अपने पति के आगमन पर कितनी रातें इन्होनें मीना कुमारी अंदाज़ में बिताएँ होंगें, किसी सामाजिक विज्ञानी के पास शायद ही इसकी कोई जानकारी उपलब्ध हो!
इनके बच्चों का आलम तो पूछिए ही मत। परिवार यदि निम्न मध्यवर्गीय है तो ये कब खाए, क्या खाए, क्या पहने और कब कुपोषित होते हुए बड़े हुए – किसे पता? साल में एक नया कपड़ा मिल जाए तो गनीमत। ऐसे ही एक ग्यारह वर्षीय लड़के को एक बार दिवाली में दो उपहार मिले। पहला कि पापा/पिताजी/बाबू घर आए और साथ ही कुछ पटाखे भी लाए। पता चला कि पापा को पटना में कोई कम्युनिस्ट पार्टी के नौकरी पेशावाले समर्थक मिल गए थे। उन्हें जैसे ही पता चला कि कॉमरेड घर जा रहे हैं – खाली हाथ, तो बच्चों के लिए कुछ पटाखे खरीदकर पकड़ा दिए और शायद कुछ पैसे भी। पत्नी के लिए कुछ साड़ी – वाडी जैसा कोई उपहार तो शायद नहीं ही था।
अब उस बच्चे को बीड़ीया पड़ाका (पटाखा) और छुर्छुरी तो चलाना आता था लेकिन आसमान तारा कैसे चलाया जाय, पता ही नहीं था। तो गोतिया के एक चाचा आए और शीशे की एक खाली शीशी (बोतल) में रखके आसमान तारा चलाते रहे और वो लड़का उसे ही देखकर मस्त होता रहा।
कुछ साल बाद फिर दिवाली आई। तबतक वो लड़का अपने एक भाई, बहन और माँ के साथ अपने पापा के कार्यक्षेत्र में ही रहने लगा था। उसकी माँ ने अन्तः यह तय कर लिया था कि अब चाहे जो हो उसे अपने पति के साथ ही रहना है। वह एक दलित जाति की बस्ती थी जिसमें उसके पापा कार्यरत थे। उस दिवाली की रात बाकि सारे लड़के पांच-दस बीड़ीया पड़ाका (पटाखा) लेकर फोड़ रहे थे। चौदह साल का यह बच्चा खाली हाथ ललचाई नज़रों से उन्हें देख रहा था। फिर वो दौड़ता हुआ आया और पटाखे की ज़िद्द करने लगा। पापा की जेब खाली थी और माँ के पास पैसे कहाँ से आएगें? पापा ने पहले समझाया, लेकिन बच्चा ज़िद्द पर अडा रहा तो पापा का धैर्य जवाब दे दिया और अपनी मज़बूरी और लाचारी को गुस्से में बदलकर पहले तो बच्चे की पिटाई की फिर उसे घर से (जिस सार्वजनिक स्कूल के एक कमरे में वो रहते थे) बाहर निकाल दिया। बच्चा बाहर निकला और बस्ती के एक खाली पड़े झोपड़ी में घुसकर बहुत देर तक सिसकता रहा। गुस्सा शांत होने पर उसके पापा उसे खोजते हुए आए और गोद में उठाकर सीने से लगा लिया। बच्चा अब भी सिसक रहा था और शायद पिता के आँखों में भी आसूं थे लेकिन अँधेरा इतना ज़्यादा था कि उस बच्चे को उसके पिता के आसूं शायद दिखाई नहीं पड़े।
उस बच्चे ने उसी दिन पटाखा नहीं चलाने का कसम खाया और वो अपने इस कसम पर आज भी कायम है। उसके पिता आज 60 की उम्र पार कर चुके हैं और आज भी मार्क्सवाद में उनकी आस्था अटूट है। वो आज भी कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाइमर हैं लेकिन आज पार्टी को उनकी कोई परवाह नहीं है। पिछले दिनों उसके पापा का एक गंभीर सड़क दुर्घटना हुआ था, जिसमें उनकी जान जाते जाते बची। लेकिन उनके कुछ व्यक्तिगत शुभचिंतकों के अलावा किसी को कोई खास फर्क नहीं पड़ा। पार्टी ने तो उन्हें न जाने कब का मृत मान चुकी है। कारण यह कि आज जिस लाइन पर उनकी पार्टी चल रही है उससे इनकी पूर्ण-सहमति नहीं है।
पार्टी के पास जब कुछ पैसा आया था तो उसने अपने होलटाइमरों के लिए महीने की उतनी राशि देने का वादा किया था जितने में कि इनका परिवार साधारण तरीके से खा-पी और जी सके लेकिन पिछले कई सालों से इस रकम पर बिना किसी कारण और वाद-विवाद के रोक लगा दी गई।
और बेटे का आलम यह है कि मार्क्सवाद में पूर्ण विश्वास होते हुए भी वह किसी पार्टी का सदस्य नहीं है क्योंकि वह सिद्धांत चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि वह व्यवहार में नहीं है तो उसका उसके लिए कोई महत्व नहीं है।
बेटा पापा को कहता है - "पापा आपने अपने पुरी ज़िंदगी कम्युनिस्ट पार्टी में लगा दी, इस दौरान आपने कई जेनरल सेक्रेटरियों के साथ काम किया और आज आप यहाँ अनवांटेड की श्रेणी में डाल दिए गए हैं। कुछ नहीं तो कम से कम अपनी पुरी ज़िन्दगी पर बेवाकी से संस्मरण ही लिख दीजिए ताकि आनेवाली पीढियां आपलोगों की गलतियों और अच्छाइयों से कुछ सीख ले।” पापा साफ़ माना करते हुए कहते हैं – “इससे कम्युनिस्ट पार्टी की बहुत बदनामी होगी और अभी वो समय नहीं है। हमारा कार्य अभी अधूरा है और अभी बहुत सारे महत्वपूर्ण कार्य करने हैं।”
बेटा एकटक उनकी तरफ़ देखता और सोचता है कि ये लोग किस मिट्टी के बने हैं। इनका विश्वास क्या कभी थकेगा नहीं? हालांकि बेटा ऐसे कई पिताओं को जानता है जो आज अपनी ही पार्टी में अनवांटेड की श्रेणी में डाल दिए गए हैं कुछ तो न जाने कब के मौत के गर्त में समा गए जिनकी असमय और अवसादग्रस्त मौत पर कुछ व्यक्तिगत साथियों के अलावा किसी ने लाल सलाम तक पेश नहीं किया।
बहरहाल, परिस्थिति शायद अभी ज़्यादा अनुकूल नहीं हैं। चुनौतियाँ और अंदर-बाहर का संघर्ष भी खतरनाक रूप से बढ़ा है लेकिन सबसे अच्छी बात है सपनों का ज़िंदा रहना क्योंकि सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।
पुनश्च – बेटे के पिता शायद इस पोस्ट को सबसे ज़्यादा नापसंद करें, लेकिन क्या किया जाय बेटे ने भी तो सत्य बोलना और उसके पक्ष में खड़ा होना अपने पिता से ही सिखा है। इसकी कीमत की परवाह जब पिता ने आजतक नहीं किया तो बेटा क्यों करे? वैसे भी सर्वहारा के पास खोने के लिए कुछ नहीं होता और पाने के लिए सारी दुनियां।

कोठागोई : यथार्थ का किस्सागोई

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संगीत और कला को जब-जब बाँधने की कोशिश की जाती है वह बाँध तोड़कर आगे बढ़ जाती है । - कोठागोई 

अपने अंदर बृहद कालखंड समेटे वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रभात रंजन की किताब कोठगोई (चतुर्भुज स्थान के किस्से) एक ही बैठकी में पढ़ी जानेवाली एक ज़रुरी रचना है । समाज और समाजिकता के स्याह और धूसर पन्नों के इतिहास और किस्सागोई में लेखक की विभिन्न लोगों से साक्षात्कारों, गप्पों, स्मृतियों और तमाम इन्द्रियों के सहारे गोते लगाती यह एक सामाजिक विज्ञान की पुस्तक भी बन जाती है । जिसमें इतिहास का स्याह और सफ़ेद अध्याय है, किस्सा है, कहानी है, गप्प है, गल्प है, उपन्यास है, निबन्ध है, कवित्त है, गीत है, आत्मकथा है, संस्मरण आदि है । तो मूल बात यह कि इस पुस्तक को किस स्थापित श्रेणी में रखा जाय ? शायद कहीं नहीं या शायद हर जगह । वैसे भी कुछ चीज़ें और कुछ इंसान ऐसे होते हैं जो बने बनाए किसी भी खांचे और सांचे में फिट नहीं बैठते । वैसे सच कहूँ तो मेरे व्यक्तिगत अनुभव और समझ उतनी उन्नत भी नहीं है कि इसे किसी खांचे में डालके पैक कर दूँ । और फिर लोक इतिहास यथार्थ और कल्पना के सटीक मेल से ही तो बनता है; नहीं क्या ? यह सुनी, सुनाई और इस सुनने सुनाने से बनाई गई कथागोई है । “जितनी उसने सुनाई थी, जितनी मैंने उसके सुनाए से बनाई थी ।” – (कोठागोई, पृष्ठ – 169) क्या इसे ही रिसर्च वर्क कहा जाता है ? यदि नहीं तो किसे कहा जाएगा  ?
वैसे पुस्तक की जड़ में मुज़फ्फरपुर (बिहार) का चतुर्भुज स्थान तो है लेकिन यहाँ मन में आनेवाले विचारों की तरह उन्मुक्त फैलाव भी है । जिसमें “अंधेरे-उजाले के बीच संगीत इबादत से पहले !”, “सुना गुना समझा जाना बुना !”, “ज़िंदगी उस पार जितनी ज़िंदगी उस पार है”, “गुमनाम कवि बदनाम गायिका, बाकि बाजत रसनचौकी”, “इज्ज़त उसे मिली जो वतन से निकल गया”, “दर्द का किस्सा यार बहुत है”, “पढ़ कर आगे जाना है अपना दाग मिटाना है”, “दर मिला मुझको दरबदर होकर”, “ब्लू कलर का पैंट पहनकर हैंड कमर में लाती हो”, “दुनियां दुनियां जीवन जीवन”, “अंतिम प्रणाम लोक देवता को”, आखिरी बात आदि कुल तेरह शीर्षकों के सहारे किस्से स्वतंत्र, रोचक और सहज तरीके से विचरण करते है; बिलकुल दादी, नानी और लोक कथाओं के कहानियों की तरह । यहाँ कथा है तो कथा कि परिकथा और उपकथा भी । कला है तो नंगा और क्रूर यथार्थ भी है, विषय है तो विषयान्तर भी, “विषय के नाम पर विषयान्तर, कथा के नाम पर कथान्तर !” (कोठागोई, पृष्ठ – 96), या “क्या कीजिएगा विषय के नाम पर विषयान्तर हो ही जाता है ।” (कोठागोई, पृष्ठ - 73) कई स्थान पर तो एक ही कथा के कई वर्जन भी हैं । बिलकुल वैसे ही जैसे एक ही घटना पर अलग-अलग व्यक्ति का वर्जन थोड़ा अलग होता है । सच्चाई, सहजता और यथार्थ भी तो यही है । यथार्थ के धरातल पर भी सच है तो उसमें कल्पना का मिश्रण भी कम नहीं । तो फिर ? सच-झूठ से ज़्यादा ज़रूरी नज़रिया हो जाता है । नजरिया समझ, अनुभव और ज्ञान से ही बनता है; तब जब दिल-दिमाग खुले हों और मन में सवाल उत्पन्न होते हों, दिल में बैचैनी का घर हो । साधारण जीवन जीना और बने बनाए ढर्रे पर रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह चलते चले जाना मुश्किल हो सकता है, मज़ेदार तो कतई नहीं है । ठीक वैसे ही जैसे कान तो सबके पास होते ही हैं लेकिन सब “कनरसिया” नहीं होते । वैसे यहाँ कथाओं का अंत गुमनाम है या फिर अंत के कई किस्से ।
साधारण जिंदगियों की कहानियां भी बड़ी ही साधारण होतीं हैं । शायद जीवन भी अति साधारण ही होता होगा । चुनौतियों का क्या, वो तो हर किसी की सहयात्री होती ही हैं । अलग-अलग रुतवे के लोग अपनी अलग-अलग ज़रूरतों के लिए अलग-अलग चुनौतियों का सामना करते हैं । इसमें कोई खास बात नहीं । तो  ? कहानियां होती हैं उनकी जो दुनियां के बीच रहकर भी कुछ अलग जीते हैं । अब यह जीवन खुशी से स्वीकारते हैं या मज़बूरी से यह बात और है । वैसे भी मनपसंद जीवन जीने का मौका और ज़ज्बा मिलाता ही कितने लोगों को है  ?
किस्सागोई एक सांस्कृतिक दस्तावेज़ भी है गाने-बजाने, सीखने-सीखने, सुनने-सुनाने, गुनने-गुनाने, बेचने-खरीदने, प्रसिद्धि और फिर गुमनामी के अंधेरे कोने में दफ़न हो जाने को अभिशप्त ना जाने कितने लोगों और संस्कृतियों का । लेकिन जैसा की प्रामाणिक सत्य है कि कुछ भी पूरी तरह से कभी खत्म नहीं होता, बल्कि उसका स्वरूप बदल जाता है । यह बदलाव अच्छा भी हो सकता है और अच्छा नहीं भी हो सकता है । बदलाव के बहुत से कारक होते हैं – सांस्कृतिक, एतिहासिक, आर्थिक, राजनैतिक और पता नहीं क्या क्या ! बदलाव कभी अंदरूनी होता है तो कभी बाहरी, लेकिन दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित तो करते हैं, इस तथ्य से कैसे इनकार किया जा सकता है । इस प्रकार कोठागोई चतुर्भुज स्थान की स्थापना से लेकर और न जाने कितने किस्से समेटते हुए उसके उत्थान-पतन की भी कथा कहता है ।
कोठागोई इस पुस्तक के लिए एकदम अनुकूल शीर्षक है । भाषाशास्त्री, भोलानाथ तिवारी, “शब्दों का जीवन” नामक पुस्तक में लिखते हैं – “शब्द जनमते हैं । जी हां, शब्द जनमते हैं । नयी घटनाएँ, नए विचार, नयी परम्पराएं, नयी वस्तु, प्रायः नए शब्द को जन्म देते हैं । पाकिस्तानियों ने 1965 में भारत में घुस-पैठ की और हिंदी में ‘घुस-पैठिया’ शब्द ने जन्म लिया । विभिन्न प्रलोभनों ने हमारे विधायकों को दल बदलने को मजबूर किया जिसका परिणाम था ‘दलबदलू’ शब्द का जन्म ।” कोठों का किस्सा सुनाने के लिए लेखक ने किस्सागोई नामक शब्द से प्रेरणा लेकर कोठागोई नामक शब्द की रचना की होगी या क्या पता यह शब्द पहले से प्रचलन में हो । लेकिन क्या कोठागोई केवल कोठे के किस्से तक ही सीमित है । नहीं, हरगिज़ नहीं । कथा का सूत्र किसी बरगद की जड़ की तरह चतुर्भुज स्थान से होकर ना जाने कितने देस-परदेस तक का सफ़र तय कर विभिन्न जाने अनजाने चरित्रों और घटनाओं के माध्यम से शब्दों के मार्फ़त अपनी यात्रा तय करता है ।
कोठागोई का किस्सा सूत्रधारात्मक (Narrative) है सदियों पुरानी प्रथा किस्सागोई की तरह । जिसका सूत्रधार निश्चित रूप से लेखक ही हैं । हलांकि यह भी विश्वास से कहना उचित नहीं होगा । हां, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि किस्से लेखक के मार्फ़त ही आते हैं । अब लो यह भी कोई बात हुई, किस्से लेखक के मार्फ़त ही तो आएंगें ना ! खैर, पुस्तक के शुरुआत ही में लेखक ने यह दावा पेश किया है कि “मैं चतुर्भुज की शपथ लेकर कहता हूँ कि इस पुस्तक में जो लिखा है सब झूठ है । इसमें झूठ के सिवा कुछ नहीं है ।” यह बड़ा अटपटा है । दरअसल, लेखक का यह कथन ही इस पुस्तक का सबसे बड़ा झूठ है । वही कुछ और विचार पुस्तक में बार-बार अन्य-अन्य तरीके से दुहराए जाते हैं जो निश्चित ही उपरोक्त कथन की बार-बार पुष्टिकरण ही करते हैं । वो भी इतनी बार की कई बार तो इस पुष्टिकरण पर ही संदेह होने लगता है । किसी ने सच ही कहा है कि इंसान एक बार झूठ का सहारा ले ले तो उसे बरकरार रखने के लिए बार-बार झूठ का सहारा लेना पड़ता है और हो सकता है कि अगला झूठ पिछले झूठ से बड़ा झूठ हो । इस प्रक्रिया में भय यह रहता है कि झूठ का एक बड़ा पुलिंदा ही न बन जाए । लेकिन इंसान की बात अलग है और लेखक की अलग । लेखक झूठ में सच और सच में झूठ की मिलावट न करे तो शायद कोई किस्सा ही न बने । इसी को नाट्यशास्त्र में भरतमुनि कथावस्तु (Plot) कहते हैं । जिसके तीन श्रोत होते हैं - प्रख्यात यानि किसी प्रसिद्द कथा को विषय बनाकर लिखा गया । उत्पाध यानि किसी काल्पनिक कथा वस्तु को आधार बनाकर लिखा गया । मिश्रित यानि प्रसिद्ध तथा काल्पनिक कथा वस्तु को मिलाकर लिखा गया । हालाकिं भरतमुनि यह बात नाटक के सन्दर्भ में कह रहे हैं लेकिन क्या कथा, कहानियों व उपन्यासों आदि का भी सच यही या इसी के आसपास नहीं है ? वैसे “सच - झूठ होता क्या है ? अपना अपना नज़रिया है । --- जो हमें अच्छा लगता है हम उसे सच मान लेते हैं । --- सच असल में कुछ होता नहीं, अपने-अपने सोच की सुविधा होती है ।” (कोठागोई, पृष्ट - 57)
तो क्या कोठागोई का सच फार्स और काल्पनिकता है ? नहीं, हरगिज़ नहीं ! बल्कि यहाँ रचनात्मक सच है । भारतीय परम्परा में जिसे काव्यात्मक सच (Poetic Truth) कहा गया है । यह सच झूठ से परे एक विश्वास है । जिसकी अन्तःप्रेरणा है कथ्य । इसी कथ्य को अभिव्यक्त करने के लिए रचनाकार रचनात्मक सच रचता है । इसे सच नहीं, सच का एहसास (Sense of Truth) कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा । यहाँ पाठ नहीं बल्कि समय, काल, स्थिति और परिवेश आदि ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं । यहाँ जितना इतिहास है उतना ही गप्प भी । जितना सच लगभग उतनी ही गल्प । निरा गप्प भी नहीं बल्कि चुन-चुनकर सजाया हुआ, इतिहास के पन्नों से निकाला और कुरेदा हुआ गप्प । जिसके केन्द्र में हैं एक पूरी की पूरी कला और पल-पल बदलता, टूटता, बिखरता और समृद्ध होता या तबाह होता नंगा यथार्थ । सामाजिक मान्यताओं ने जिसे बदनाम का नाम दे रखा था लेकिन उसका रस भी इसी समाज ने जम के चूसा और जब सारा गूदा खत्म हो गया तो आम की गुठली की मानिंद चतुर्भुज स्थान से बाहर फेंक दिया और किसी नए मनबहलाव की खोज में व्यस्त हो गया । वैसे कुछ आमों की किस्मत में चूसा जाना भी नहीं होता बल्कि वो वही पड़े-पड़े कुढ़ते-खीजते और अंततः कुम्हलाते हुए किसी अंधेरे कोने में गुम हो जाते हैं; तो कुछ चुसे जाने के बाद ज़मीन के सहारे एक नया पौधा बन जीवन प्राप्त करते हैं । यह सच है कोई हैरत की बात नहीं । वैसे भी “जब यथार्थ ही इतना अविश्वसनीय हो चला हो तो ऐसे में किसी भी बात पर हैरत नहीं होना चाहिए ।” (कोठागोई, पृष्ठ – 184)
कोठागोई, कोठे के मार्फ़त समाज की कथा कहता है । इसे ऐसे भी कहें तो गलत नहीं कि कोठागोई समाज के मार्फ़त कोठे की कथा कहता है । या फिर इसे यूं भी कहा जा सकता है कि कोठागोई कथाएँ कहता है जिसमें इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, समाज विज्ञान, कोठा, सांस्कृतिक परम्परा, कला, देह, रुतबा, रूपया आदि और पता नहीं क्या-क्या समाहित होता जाता है । नहीं; इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि कोठागोई एक पेड़ है जिसकी जड़ तो एक है, लेकिन कई टहनियाँ हैं और अनगिनत नए, पुराने, सूखे, हरियाते, गिरे तुड़े पत्ते हैं ।
बाकी इस किताब के बारे में और क्या-क्या और लिखा जाना चाहिए मुझे नहीं पता । निश्चित रूप से इस पुस्तक में भी कई छेद होंगे ही, होने भी चाहिए । सम्पूर्ण तो आजतक कुछ हुआ ही नहीं है । लेकिन अभी तो इसके पहले प्यार में अभिभूत हूँ और प्यार जब नया नया होता है तो बस खुमारी ही खुमारी होती है । वहां कमजोरियों और बेतुकेपन पर भी प्यार ही आता है । जैसे प्रूफ की गडबड़ी के कारण शारदा सिन्हा, शारदा सिंह हो जाती हैं । अच्छा, क्या यह बात हमारे समय की सच्चाई बन चुकी है कि अब अच्छे प्रूफ रीडर बहुत ही कम हैं और प्रकाशकों ने लेखक को ही यह सारा काम करने को अभिशप्त कर दिया है ? वही एकाध जगह नैरेशन में अंगेजी के शब्दों का प्रयोग भी खटकता है । लेकिन यह सब छोटी-मोटी बातें हैं जिसे अगले संस्करण (यदि छपा तो !) में आराम से दुरुस्त किया जा सकता है ।
कोठागोई गुमनाम जगहों और लोगों का किस्सा है । जो काल्पनिक नहीं बल्कि यथार्थ है – नंगा यथार्थ । हम इसे स्वीकारें न स्वीकारें यह अलग बात है । वैसे भी “शाम होते ही मर्द बाहर निकल आते हैं और घर बाज़ार बन जाते हैं । दिन में वे घर होते हैं, पुरुष होते हैं, बच्चे होते हैं, शाम को बस बाज़ार । कुछ खरीदार होते हैं, कुछ तफरीहदार ।” (कोठागोई, पृष्ठ – 91) सच यह है कि दुनियां बाज़ार में तेज़ी से तबदील होती जा रही है और इंसान उपभोक्ता के रूप में परिवर्तित होने को अभिशप्त । लेकिन इस सच को स्वीकारने के लिए बहुत कम लोग तैयार है । अब यह अज्ञानता है, अनभिज्ञता, तटस्था, अक्खड़ता, अहम् या कुछ और या सब कुछ, या कुछ भी नहीं; कौन जाने  ? बहरहाल –
शोहरत-वोहरत इज्ज़त-विज्जत जिसको चाहे मिल जाये
चादर-वादर दौलत-वौलत जिसको चाहे मिल जाए
सच्चे फनकारों को कदरदां हर टेशन पर मिल जाए
बाकि तो सब फाव की दौलत जिसको चाहे मिल जाए
तो अंत में बस इतना ही कि कोठागोई पढ़िए और मेरी लिखी सारी बातों को सिरे से ख़ारिज कर दीजिए मुझे ज़रा भी दुःख नहीं होगा – सच्ची-मुच्ची । चतुर्भुज स्थान की कसम । लेकिन बिना पढ़े खारिज़ करेंगें तो किसी का भला नहीं होनेवाला, आपका भी नहीं । वैसे लगे हाथ यह भी बता ही दूँ कि कसम उसम पर मेरा कोई यकीन नहीं है । वैसे भी “जीवन के उमंग से जगानेवाली आवाज़ें कभी अमर नहीं होतीं । उनका मरना ही उनकी नियति है शायद । जिनका कोई नाम नहीं होता उनका गुम हो जाना ही उनकी नियति होती है । हम बस खोज सकते हैं । उनको जो गुम हो गए ।” (कोठागोई, पृष्ठ – 65)

कोठागोई (चतुर्भुज स्थान के किस्से), लेखक – प्रभात रंजन, प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, मूल्य 295 रुपया  
                                                       पाखी में प्रकाशित 

कम्युनिस्ट पार्टियां कभी ऐसा भी करतीं थीं, अब पता नहीं!

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एक पुरानी भारतीय कहावत है कि पैसा अपने साथ बहुत सारी बुराइयों को भी लाता है। एक समय ऐसा भी था जब बिहार के कम्युनिस्ट पार्टियों के पास पैसा था ही नहीं। लेवी और विभिन्न प्रकार के टेक्स लेने का पेशा अभी शुरू नहीं हुआ था। कैडरों की ईमानदार, प्रतिबद्धता और जूनून और मेहनतकश जनता की एकता और अपने नेता पर उनका विश्वास ही उनकी कुल जमा पूंजी थी। आज का हाल तो खैर सबको पता है ही।
तो उसी ईमानदार काल का एक किस्सा कुछ यूं है – किसी इलाके के में पर्चा छपना था। पहले पर्चे का ड्राफ्ट तैयार किया गया। उस ड्राफ्ट को कुछ लोगों के बीच (जिनमें ग्रामीण ज़्यादा थे, नेता एक या दो) पढ़ा गया। फिर जो सुधार लोगों ने सुझाया उसे ठीक लगने पर दुरुस्त किया गया। फिर गाँव में चंदा किया गया। गांव क्या था कुछ झोपड़ियों से सुशोभित दलितों की बस्ती थी। रोज़ कुआँ खोदना और रोज़ पानी पीना यही उनकी ज़िंदगी थी। तो ऐसी बस्ती में चंदे के रूप में नगदी की कल्पना तो किया ही नहीं जा सकता है। वहां चंदे के रूप में वह अनाज ही मिलता जो औरत, मर्द रोज़ कमाकर या मेहनत से कमाए पैसे से खरीदकर लाते थे।
हम बच्चों को यह ज़िम्मेवारी मिलती थी कि कई प्रकार का झोला लेकर शाम के समय बस्ती में दरवाज़े दरवाज़े जाते और लोग उसमें अपनी मुट्ठी से चावल, दाल, आंटा आदि चीजें डालते। फिर उसको दूकान में बेचा जाता और उससे जो पैसा मिलता उससे पर्चा छप के आता। पर्चा जब छपकर हाथ में आता तो वह किसी अनमोल धरोहर से कम नहीं होता।
पर्चा चुकी बहुत ही कम छप पता था तो हर गांव के हिस्से कुछ दर्जन पर्चे ही आते; जिसे लोग किसी अमानत की तरह संभालकर पढ़ते। अमूमन कोशिश यह किया जाता कि शाम में सबको बुलाकर यह पर्चा पढ़कर सुनाया जाय और बाकि पर्चे को बांटने के काम में लाया जाय। फिर भी कुछ लोग ऐसे थे जो अपने हाथों से पढ़ते। जो पढ़ सकते थे खुद पढ़ते और जो नहीं पढ़ सकते थे वो हम जैसे किसी बच्चे को पकड़कर पढ़वाते और बीच-बीच में हां-हूँ करते रहते। कहीं कुछ नहीं समझ में आने पर उस पंक्ति को बार-बार पढ़वाते। जब पर्चा पढ़ लिया जाता तो उसे किसी और को पढ़ने के लिए सौंप दिया जाता।
उस काल में कोई पर्चा फेंका हुआ पा लिया जाना एक बहुत बड़ी घटना थी और ऐसी घटनाएं शायद ही कभी हुईं।
केवल पर्चा ही नहीं बल्कि बैनर और पोस्टर भी ऐसे ही बनाए जाते। कूट (गत्ता) पर सदा कागज़ चिपकाया जाता और उस पर दातुन की कुंची बनाकर नारे लिखे जाते और उसे बांस के फट्ठे या किसी सीधे डंडे में किसी पतली रस्सी की सहायता से बड़ी ही सफाई से बंधा जाता।
बैनर के लिए लाल कपड़ा और एल्युम्युनियम पेंट का छोटा सा डब्बा ख़रीदा जाता और उसे अपने हाथों से बनाया जाता। दीवाल लेखन भी कुछ ऐसे ही होता था। टीन के छोटे-छोटे डब्बे में होली में इस्तेमाल होने वाले रंगों को थोड़ा गढा मिलाया जाता और उसे बबूल के दातून की कुंची बनाकर दीवाल पर लिखा जाता।
अब तो पर्चा कौन लिखता है, कैसे छपता है और कब बाँट दिया जाता है, किसी को कुछ पता ही नहीं चलता। बैनर, पोस्टर तो अब प्रोफेशनल ही बनाते हैं। सबकुछ एक रहस्य की तरह हो गया है। पर्चे पर वाद-विवाद तो अब दूर की बात है। लेकिन यह परम्परा हार जगह से खत्म हो गई है; ऐसा भी नहीं है। खैर, सन 1985 से 95 के बीच घटित यह पुरी घटना सुनाने के पीछे मेरा स्वार्थ केवल इतना है कि इस पुरे प्रकरण से ही मैंने पेंट और ब्रश से लिखना (कैलीग्राफी) सीखा और आज तो काफ़ी ठीक-ठाक लिख लेता हूँ। मैंने अपने नाटकों में भी मैंने अपनी इस कला का खूब इस्तेमाल किया। शुक्रिया कॉमरेड्स और जनता। 

सत्ता, संस्कृति और जनवाद की संस्कृति

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सत्ता, संघर्ष और मानव संस्कृति का इतिहास भी लगभग विश्व इतिहास के जितना ही पुराना है। आज का मानव समाज जहाँ खड़ा है वह विभिन्न एतिहासिक कालों और संघर्षों से श्रम के सहारे ही गुज़रकर इस मुकाम पर पहुंचा है। इतिहास की पुस्तकों में इसे अलग – अलग नामों से पढ़ाया भी जाता है। अलग - अलग कालों में सत्ता और संस्कृति की अच्छाई, बुराई और चुनौतियाँ अलग – अलग रहीं हैं। लेकिन कथित या तथाकथित रूप से सत्ता से आम जन का सीधा – सीधा जुड़ाव प्रजातंत्र नामक व्यवस्था के उपरांत ही देखने को मिलता है। वही सत्ता की संस्कृति और आम जन की संस्कृति का मेल-मिलाप और विभिन्न प्रकार के विरोधाभास भी सामने आते है। वहीं वामपंथ के आगमन के साथ ही जनवादी संस्कृति जैसे शब्द भी सुनाई पड़ने लगता है और यह मान्यता भी प्रखर रूप से सामने आती है कि असली जनवादी संस्कृति अक्सर सत्ता के विरोध या विपक्ष का काम करती है।
प्रसिद्द नाट्य चिन्तक नेमिचंद्र जैन का “सत्ता और संस्कृति” नामक एक आलेख है। यह आलेख सभी संस्कृतिकर्मियों को ज़रूर पढ़ना चाहिए और खासकर उनको जो यह मानते हैं कि कला, संस्कृति, साहित्य आदि स्वभाव से ही सत्ता विरोधी होते हैं; और असली संस्कृति वही है जिसका मूल चरित्र सत्ता विरोधी हो। वहीं ऐसी मान्यता वालों की भी कोई कमी नहीं जो यह मानते हैं कि सत्ता का हस्तक्षेप या संरक्षण कला-संस्कृति को अनिवार्य रूप से भ्रष्ट करता है इसलिए संस्कृतिकर्मी या कलाकार को सत्ता से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए; कला साहित्य की पवित्रता की रक्षा के लिए यह एकदम ज़रूरी है। तो कुछ लोग यह भी मानते हैं कि समाज में दो संस्कृतियाँ होती हैं - एक सत्ताधारी अर्थात शोषक वर्ग की और दूसरी क्रांतिकारी अर्थात शोषित वर्ग की और असली संस्कृति वही है जो सत्ताधारी वर्ग और उसकी संस्कृति से निरंतर संघर्ष करके शोषित वर्ग की सत्ता और संस्कृति की स्थापना में हाथ बंटाती है। नेमिचंद्र जैन इन सारी बातों का तर्क और उदाहरणों के साथ खंडन करते हैं और इन मान्यताओं को मानने वालों को कोरा भावुक, चतुर, सतही, भोला या पाखंडी मानते हैं क्योंकि इन बातों में एतिहासिक सच्चाई नहीं है। यदि यह सच होता तो विश्व इतिहास के उन महान लेखकों – कलाकारों का तो वजूद ही नहीं होना चाहिए था जो सामंतवाद काल में और सत्ता के नजदीक रहकर एक से एक महत्वपूर्ण रचनाएँ कीं।   
वर्तमान में भी सरकारी संस्थानों और उससे मिलनेवाले सहयोगों के लेकर खुद को जनवादी संस्कृति के वाहक मानने वाले समूहों और लोगों में एक खास किस्म का हिकारत का भाव है। वहीं सरकारी नौकरियां करनेवाले से इन्हें कोई परहेज़ नहीं। ऐसे लोग इन समूहों के न केवल सदस्य हैं बल्कि बड़े-बड़े पदों पर भी विराजमान हैं। लेकिन यहाँ भी शायद पदाधिकारियों और सामान्य कार्यकर्ताओं के लिए अलग-अलग नियमावली हैं। लिखित रूप में न सही व्याहारिक रूप में तो हैं हीं। वैसे भी इन समूहों में जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है उनकी स्थिति निहायत ही दैनीय ही है और वो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर कार्यकर्ताओं के दबंगई को सहना पड़ता है।
ऐसे ही एक समूह के एक सदस्य ने नाटक के लिए सरकारी ग्रांट लिया तो उसको दल से निकालने तक के लिए बैठक पर बैठक की जाने लगी जबकि उसकी खस्ता माली हालत पर ज़िम्मेवारी तो दूर, किसी ने उस विषय पर तनिक भी चिंता करना तक ज़रुरी नहीं समझा। नेमीचंद जैन कहते हैं – “इस मामले में वामपंथियों का रवैया पूरी तरह से दोमुंहा है। एक ओर वे संस्कृति को स्वभाव से सत्ता - विरोधी माननेवालों के साथ बड़े उत्साह से शामिल होते हैं और दूसरी ओर वो अपनी (और अपने जैसों – लेखक) सरकारों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के समर्थक हैं।”
अब तो कई सारे जनवादी संस्कृति के वाहक दल और व्यक्ति NGO के रूप में परिवर्तित हो गए हैं। एक तरफ सरकारी और अन्य गैरसरकारी माध्यमों से मोटी रकम उठा रहे हैं वहीं मौके बे-मौके जनवाद का ढोल भी बजाते रहते हैं। नुक्कड़ नाटक विधा में विशेषज्ञता की वजह से प्रचार-प्रसार के लिए कई सारे सरकारी और गैर कंपनियों का काम भी इन्हें आसानी से मिल जाते हैं। दुखद सच तो यह भी है कि जनवाद के कुछ ठेकेदार कई शहरों और गांव में दलाली नामक नई “जनवादी” विधा के सबसे बड़े पैरोकार भी बनकर उभरें हैं। यह उनकी आर्थिक मजबूरी हो सकती है लेकिन मजबूरियां संविधान नहीं हो सकतीं।
नेमिचंद्र जैन सवाल करते हैं कि “संस्कृति और सत्ता के सम्बन्ध को लेकर सस्ती जुमलेबाज़ी करने से पहले हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या हम सचमुच चाहते हैं कि सरकार ने जो सांस्कृतिक संस्थान स्थापित किए हैं, उन्हें बंद कर दिया जाय और संस्कृति के क्षेत्र में कोई साधन सुलभ न कराए?” सत्ता के बारे में वह लिखते हैं कि “निस्संदेह, सत्ता हाथ में आने पर सत्ताधारी अनेक बार उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगते हैं, स्वार्थ साधन में लग जाते हैं, या निरंकुश होकर सत्ता की स्थापना के मूल उद्देश्य को ही नष्ट करने लगते हैं। ऐसी हालत में उससे हटाकर सत्ता की कोई दूसरी व्यवस्था आवश्यक हो जाती है। --- जो भी सत्ता मौजूद हो, उसकी ज़िम्मेदारी और एक गैर ज़िम्मेदार सत्ता को बदलने की ज़रूरत के बीच फर्क करना बहुत ही आवश्यक है। यह न कर सकने से ही बहुत से खोखले विचार और नारे पैदा होते हैं।”
लेख के आखिर में वो लिखते हैं कि “अगर संस्कृति को सत्ता का पिछलगुआ बनना धातक है तो उतना ही आत्मघाती है उसे किसी राजनैतिक पार्टी, कार्यक्रम या विचारधारा का पिछलगुआ बनाना। यह एक विडम्बना ही है कि अपने आपको वैज्ञानिक चिंतन के हामी माननेवाले भी इस तरह के ढोंगी दोमुहें आचरण तथा वैचारिक खोखलेपन से अपने आपको मुक्त नहीं कर पाते।”
अब थोड़ी सी पड़ताल जनवाद भी किया ही जाना चाहिए। जन का क्या अर्थ होता है? क्या जन का अर्थ केवल मेहनकश वर्ग है? तो क्या बाकि लोग जन नहीं हैं? यह समूह जब ब्रेख्त के नाटकों का मंचन करते हैं तो वह जनवादी नाटक हो जाता है और कोई और करे तो कलावादी! यह दोहरापन एक पाखंड नहीं तो और क्या है? जनता और जनवाद की इनकी व्याख्या एक खास प्रकार की संकीर्णता युक्त नहीं तो और क्या है? इनकी संकीर्णता का आलम तो यह है कि यह वाद्यों तक को सामंती और सर्वहारा बना देते हैं। मसलन सितार सामंती मानसिकता का परिचायक है और नगाडा जनवादी मानसिकता का। सितार से जो ध्वनि निकलती है वह सामंतवाद की ध्वनि होती है और नगाड़े से निकलने वाली जनवाद की? ऐसी मान्यताओं वाले लोग खुद तो हास्यास्पद होते ही हैं और अपने साथ उस वैज्ञानिक विचारधारा को भी हास्यास्पद बना देते हैं जो हज़ारों फूलों को खिलने दो जैसा सिद्धांत मानता है।
जहाँ तक सवाल कला और साहित्य है तो उसके लिए प्रसिद्द नाटककार दरियो फ़ो का यह कथा ही काफी है कि “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।” फ़ो के इस कथन में क्या जनवादिता नहीं है?
अपने माथे पर किसी फलाने वाद का तमगा भर लगा लेने से कोई जनवादी और प्रासंगिक नहीं हो जाता? जनवाद और प्रासंगिकता एक गंभीर और व्यापक विषय है। अ-गंभीर, संकीर्ण, मूढ़ और स्वार्थी लोगों को केवल अपने और अपनों का फ़ायदा नुकसान दिखता है। वो अगर जन और जनवाद की बात करते भी हैं तो यह उनका केवल एक छलावा मात्र है। ऐसे लोग न केवल जन और जनवाद के कट्टर और सबसे बड़े शत्रु हैं बल्कि उस विचार को भी संकीर्ण कर देते हैं जिन्हें मानने का दंभ ये भरते हैं।     

धूमिल की पटकथा की रंगमंचीय प्रस्तुति

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दस्तक की प्रस्तुति सुदामा पांडेय धूमिललिखित
पटकथा
आशुतोष अभिज्ञ का एकल अभिनय
प्रस्तुति नियंत्रक – अशोक कुमार सिन्हा एवं अजय कुमार
ध्वनि संचालन – आकाश कुमार
पोस्टर/ब्रोशर – प्रदीप्त मिश्रा
पूर्वाभ्यास प्रभारी – रानू बाबू
प्रकाश परिकल्पना – पुंज प्रकाश
सहयोग –  हरिशंकर रवि, राहुल कुमार, राग, विश्वा, बिहार आर्ट थियेटर व पटना के तमाम रंगकर्मी.
परिकल्पना व निर्देशन - पुंज प्रकाश

पटकथा के बारे में
पटकथा हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित लंबी कविताओं में से एक है जो आम अवाम के सपने, देश की आज़ादी और उसके सपनों के बिखराव की पड़ताल करती है। देश की आज़ादी से देश आम आवाम ने भी कुछ सपने पाल रखे थे किन्तु उनके सपने पुरे से ज़्यादा अधूरे रह गए। अब अपनी ही चुनी सरकार कभी क्षेत्रीय हित, साम्प्रदायिकता, तो कभी धर्म, भाषा, सुरक्षा, तो कभी लुभावने जुमलों के नाम पर लोगों और उनके सपनों का दोहन कर रही है। इस कविता के माध्यम से धूमिल व्यवस्था के इसी शोषण चक्र को उजागर करने के साथ ही लोगो को नया सोचने, समझने तथा विचारयुक्त होकर सामाजिक विसंगतियो को दूर करने की प्रेरणा भी देते हैं। कहा जा सकता है कि पटकथा प्रजातंत्र के नाम पर खुली भिन्न – भिन्न प्रकार के बेवफाई की बेरहम दुकानों से मोहभंग और कुछ नया रचने के आह्वान की कविता है। यह कविता बेरहमी, बेदर्दी और बेबाकी से कई धाराओं और विचारधाराओं और उसके नाम के माला जाप करने वालों के चेहरे से नकाब हटाने का काम करती है; वहीं आम आदमी की अज्ञानता-युक्त शराफत भरी कायरता पर भी क्रूरता पूर्वक सवाल करती है।
नाट्य दल के बारे में
रंगकर्मियों को सृजनात्मक, सकारात्मक माहौल एवं रंगप्रेमियों को सार्थक, सृजनात्मक और उद्देश्यपूर्ण मनोरंजन प्रदान करने के उद्देश्य से “दस्तक” की स्थापना सन 2दिसम्बर 2002को हुई। दस्तक ने अब तक मेरे सपने वापस करो (संजय कुंदन की कहानी), गुजरात (गुजरात दंगे पर आधारित विभिन्न कवियों की कविताओं पर आधारित नाटक), करप्शन जिंदाबाद, हाय सपना रे (मेगुअल द सर्वानते के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास Don Quixote पर आधारित नाटक), राम सजीवन की प्रेम कथा (उदय प्रकाश की कहानी), एक लड़की पांच दीवाने (हरिशंकर परसाई की कहानी), एक और दुर्घटना (दरियो फ़ो लिखित नाटक) आदि नाटकों का कुशलतापूर्वक मंचन किया है।
दस्तक का उद्देश्य केवल नाटकों का मंचन करना ही नहीं बल्कि कलाकारों के शारीरिक, बौधिक व कलात्मक स्तर को परिष्कृत करना और नाट्यप्रेमियों तक समसामयिक और सार्थक रचनाओं की नाट्य प्रस्तुति प्रस्तुत करना भी है। रंगमंच एवं विभिन्न कला माध्यमों पर आधारित ब्लॉग मंडली का भी संचालन दस्तक द्वारा किया जाता है।
लेखक के बारे में
धूमिल का जन्म वाराणसी के पास खेवली गांव में हुआ था। उनका मूल नाम सुदामा पांडेय था। सन्1958 में आईटीआई (वाराणसी) से विद्युत डिप्लोमा लेकर वे वहीं विद्युत अनुदेशक बन गये। 38 वर्ष की अल्पायु मे ही ब्रेन ट्यूमर से उनकी मृत्यु हो गई।मरणोपरांत उन्हें 1979में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक है। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है।
सन 1960के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई थी, धूमिल उसकी अभिव्यक्ति करने वाले अंत्यत प्रभावशाली कवि है। उनकी कविता में परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता का विरोध है, क्योंकि इन सबकी आड़ में जो हृदय पलता है, उसे धूमिल पहचानते हैं। कवि धूमिल यह भी जानते हैं कि व्यवस्था अपनी रक्षा के लिये इन सबका उपयोग करती है, इसलिये वे इन सबका विरोध करते हैं। इस विरोध के कारण उनकी कविता में एक प्रकार की आक्रमकता मिलती है। किंतु उससे उनकी कविता की प्रभावशीलता बढती है। धूमिल अकविता आन्दोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। वो अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसी काव्य भाषा विकसित करते है जो नई कविता के दौर की काव्य- भाषा की रुमानियत, अतिशय कल्पनाशीलता और जटिल बिंबधर्मिता से मुक्त है। उनकी भाषा काव्य-सत्य को जीवन सत्य के अधिकाधिक निकट लाती है। इनके कुल तीन काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं - संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पांडे का प्रजातंत्र।
अभिनेता के बारे में 
आशुतोष अभिज्ञ; पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय में ऑनर्स और पिछले लगभग सात वर्षों से नाट्य अभिनय के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इस अवधी में इन्होने अब तक कई शौकिया और व्यावसायिक नाट्य दलों के साथ अभिनय किया। रंगमंच के क्षेत्र में संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2008-10का यंग आर्टिस्ट स्कॉलरशिप अवार्ड से भी सम्मानित। इनके द्वारा अभिनीत उल्लेखनीय नाटकों में रोमियो जूलियट और अंधेरा, होली, डाकघर, जहाजी, बाबूजी, दुलारी बाई, हमज़मीन, निमोछिया, एन इवनिंग ट्री, अगली शताब्दी में प्यार का रिहर्सल, बेबी, उसने कहा था, नटमेठिया आदि प्रमुख हैं।
निर्देशक के बारे में
सन 1994से रंगमंच के क्षेत्र में लगातार सक्रिय अभिनेता, निर्देशक, लेखक, अभिनय प्रशिक्षक। मगध विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में ऑनर्स। नाट्यदल दस्तक के संस्थापक सदस्य। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के सत्र 2004 – 07 में अभिनय विषय में विशेषज्ञता। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में सन 2007-12तक बतौर अभिनेता कार्यरत। अब तक देश के कई प्रतिष्ठित अभिनेताओं, रंगकर्मियों के साथ कार्य। एक और दुर्घटना, मरणोपरांत, एक था गधा, अंधेर नगरी, ये आदमी ये चूहे, मेरे सपने वापस करो, गुजरात, हाय सपना रे, लीला नंदलाल की, राम सजीवन की प्रेमकथा, पॉल गोमरा का स्कूटर, चरणदास चोर, जो रात हमने गुजारी मरके आदि नाट्य प्रस्तुतियों का निर्देशन तथा कई नाटकों की प्रकाश परिकल्पना, रूप सज्जा एवं संगीत निर्देशन। कृशन चंदर के उपन्यास दादर पुल के बच्चे, महाश्वेता देवी का उपन्यास बनिया बहू, फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास परती परिकथा एवं कहानी तीसरी कसम व रसप्रिया पर आधारित नाटक तीसरी कसम, संजीव के उपन्यास सूत्रधार, भिखारी ठाकुर रचनावली, कबीर के निर्गुण, रामचरितमानस को आधार बनाकर भिखारी ठाकुर के जीवन व रचनाकर्म पर आधारित नाटक नटमेठिया सहित मौलिक नाटक भूख और विंडो उर्फ़ खिड़की जो बंद रहती है का लेखन।
देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं मे रंगमंच, फिल्म व अन्य सामाजिक विषयों पर लेखों के प्रकाशन के साथ ही साथ कहानियों और कविताओं का भी लेखन व प्रकाशन। वर्तमान में रंगमंच की कुरीतियों पर आधारित व्यंग्य पुस्तक आधुनिक नाट्यशास्त्र उर्फ़ रंगमंच की आखिरी किताब की रचना सहित कई नाटकों के अभिनय में व्यस्त हैं। रंगमंच सहित विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक विषयों पर आधारी डायरी (www.daayari.bolgspot.com) नामक ब्लॉग के ब्लॉगर और पठन – पाठन और लेखन में विशेष रूचि रखनेवाले एकस्वतंत्र,यायावर रंगकर्मी, लेखक व अभिनय प्रशिक्षक के रूप में सतत कार्यरत हैं।
निर्देशकीय - पटकथा के बहाने
हिंदी रंगमंच में ग्रुप थियेटर पतन के साथ ही साथ सिखाने सिखाने की समृद्ध परंपरा का भी सबसे ज़्यादा ह्रास हुआ है। विभिन्न प्रकार के महोत्सवों ने एक ओर जहाँ नाटकों की प्रस्तुति की संख्या में इजाफा तो किया है लेकिन एक खास प्रकार का गणित भी रचा है, जिसमें नाटक एक उत्पाद के रूप में विकसित हो रहा है और निर्देशक प्रबंधक के रूप में परिवर्तित होने को भी अभिशप्त हुआ है। नाटकों का आदान प्रदान भी शुरू हुआ है और निर्देशक यात्रा को ध्यान में रखकर भी नाटकों की परिकल्पना करने लगे हैं। वहीं अब लोगों के पास अभिनेता को प्रशिक्षित करने का समय नहीं है। वहीं ऐसे अभिनेताओं की पुरी की पुरी जामत इकठ्ठा हो गई है जो सीखने सीखाने के बजाय खाने कमाने को ज़्यादा तबज्जो देते हैं।
सवाल यह कि एक पेशेवर परिकल्पक और निर्देशक अभिनेता प्रशिक्षण में अपना वक्त जाया क्यों करे? क्या यह उसका काम है? बिलकुल नहीं। फिर ग्रुप थियेटर तो है नहीं कि संस्थाओं के सदस्य होगें और वही इस समूह के नाटकों में अभिनय करेंगें। अब निर्देशक या परिकल्पक अपनी ज़रूरत के अनुसार अभिनेताओं को जमा करता और नाटक रूपी एक प्रोडक्ट तैयार करता है। ऐसे समय में अभिनय प्रशिक्षण का काम निश्चित रूप से अनुभवी अभिनेताओं और अभिनय प्रशिक्षकों को ही करना चाहिए क्योंकि इस तथाकथित पेशेवर समय में परिकल्पक और निर्देशक अभिनय और उससे जुडी समस्याओं के जानकार हों, यह ज़रूरी नहीं। वैसे भी जिसका जो कार्य है उसे ही वह शोभता है; और फिर इस बात से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि अभिनय प्रशिक्षण अपने आपमें एक अलग और बृहद विषय है।
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमने अभिनेता के साथ अलग से कार्य करना शुरू किया और योजना बनाई कि जो भी अभिनेता सीखने सिखाने की परंपरा में विश्वास रखता हो और पूरी लग्न और मेहनत से रंगमंच की बारीकियां समझने को तत्पर हो, उनके साथ कार्य किया जाय। इसी सोच की परिणति है यह प्रस्तुति। यहाँ प्रस्तुति की सफलता असफलता से ज्यादा महत्व निश्चित रूप से प्रक्रिया की है; कम से कम हमारे लिए तो है ही।

एक कवि ह्रदय अक्खड़ व्यक्ति और वर्तमान राजनितिक परिवेश की विडम्बनाओं को प्रतिविम्बित करता हिंदी के प्रसिद्द कवि धूमिल लिखित इस चर्चित कविता को केवल एक अभिनेता के साथ प्रस्तुत करना निश्चित ही एक दुरूह कार्य है। लेकिन मज़ा तो न सध पाने वाली बातों को ही साधने में है। हमने तो अपनी बुद्दी, विवेक और समझ से इसकी लगाम साधते और कलात्मक चुनौतियों का सामना करते हुए भरपूर पीड़ादायक आनंद और तनावपूर्ण रचनाशीलता का मज़ा लिया। उम्मीद है यह अनुभूति आप तक भी पहुंचे। बहरहाल, महीनों समझने, बुझने, गुनने और पसीना बहाने के पश्चात् जो कुछ भी बन पड़ा अब आपके समक्ष प्रस्तुत है। हाँ एक बात तो निश्चित है कि “मनोरंजन” मात्र हमारा उदेश्य को कदापि नहीं है। प्रस्तुति के उद्देश्य को समझकर अपने विवेक से निर्णय करना आपका अधिकार है और सदा रहेगा। 

हिंदी रंगमंच और महाभोज

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हाय, हाय ! मैंने उन्हें देख लिया नंगा, इसकी मुझे और सजा मिलेगी  । – अंधेरे में, मुक्तिबोध
हिंदी रंगमंच के सन्दर्भ में एक बात जो साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती है वो यह कि वह ज़्यादातर समकालीन सवालों और चुनौतियों से आंख चुराने में ही अपनी भलाई देखता है । नाटक यदि समकालीन सवालों को उठता भी है तो उसकी पृष्ठभूमि या पात्र अमूमन इतिहास के पन्नों से निकलके सामने आते हैं और आम बोल-चाल की भाषा के बजाय हिंदी की पंडिताई भाषा और परिवेश से सराबोर होते हैं । नकली एतिहासिकता का चोला धारण किए और दादा की बात पोते से करनेवाले ऐसे नाटक आधुनिक नाटक क्यों कहे जाते हैं और समकालीन भारतीय हिंदी रंगमंच और रंगकर्मी समकालीन सवालों और चरित्रों का सीधा-सीधा साक्षात्कार करने से परहेज़ क्यों करते हैं? यह सवाल एक बार आधुनिक भारतीय नाटक पढानेवाले से पूछा तो टका सा जवाब मिला कि “नाटक एक “कला” है, कोई अखबार की कतरन नहीं कि घटना हुई नहीं कि उसे मंच पर प्रस्तुत कर दिया जाय ।” इस जवाब से संतुष्ट होना संभव नहीं । यह निश्चित रूप से सवाल का सही जवाब नहीं है । यदि होता तो विश्व के प्रसिद्द नॉबेल पुरस्कार विजेता नाटककार दरियो फ़ो यह न कहते  – “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है ।” 
हिंदी रंगमंच सदा ही समकालीन सवालों से कतराता रहता है, ऐसा कहना भी निश्चित रूप से एक अतिशयोक्ति ही होगी । यह समस्या ज़्यादातर तथाकथित मुख्यधारा, महानगरीय और अकादमिक रंगमंच वाले स्थानों की है । कारकों की पड़ताल की जाय तो इसका एक मुख्य कारक जो समझ में आता है वो यह कि वैचारिक शून्यता से सराबोर हिंदी रंगमंच कुछ अपवादों को छोड़कर अमूमन आज भी एक परजीवी के रूप में ही जीवित और सामाजिक सरोकार से लगभग दूर है । वहीं लोग भी यही मानते हैं या उन्हें यह मनवा दिया गया है कि नाटक, फिल्म, संगीत, नृत्य आदि का कार्य मनोरंजन मात्र है । कलावाद का भी एक समृद्ध और स्वयम्भू इतिहास रहा है, तो इस इतिहास के मोह से निकलना भी उतना आसान भी नहीं । समकालीन सवालों से सीधे साक्षात्कार का अर्थ है जलते अंगारों पर हाथ रखना, अपने लिए और अपनों के लिए चुनौतियों और जिम्मेदारियों का दामन थामना । हो सकता है इन सबके लिए रंगकर्मी और समाज तैयार ना हो । किन्तु सभी ऐसे नहीं हैं । रंगकर्मियों का एक वर्ग रंगमंच को केवल एक कला मात्र नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक हथियार भी मानता है । यह बात अलग है कि इन रंगकर्मियों की स्थिति भी आज निराशाजनक ही है । फिर भी मंच पर समय-समय पर समकालीन सवाल पूरी कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ प्रकट हुए और यह परम्परा आज भी कमोवेश बनी हुई है । इन अभिव्यक्तियों को रंगकर्मियों, दर्शकों और नाट्य-समीक्षकों का अपार स्नेह भी हासिल हुआ । मन्नू भंडारी का नाटक महाभोज समकालीन सवालों और जलते अंगारों को छूने की एक ऐसी ही कोशिश थी/है । 
आज़ादी के जश्न का भोज खत्म हो चुका था । गांधीवाद अनुकरणीय कम, पूजनीय ज़्यादा की उपाधि प्राप्त कर चुका था, साम्यवादी गलियारे या तो कांग्रेस के दरवाज़े पर जाकर खत्म हो जा रहे थे या फिर बारूद के गोदाम में, देश आपातकाल का स्वाद चख रहा था । कई गणमान्य चेहरों से नकाब उतर चुके थे और सम्पूर्ण क्रान्ति के नाम पर एक नए किस्म की अराजकता ने अपना पासा फेंक दिया था । मतलब कि महाभोज की पृष्ठभूमि तैयार थी ।  
मन्नू भंडारी लिखित महाभोज पहले उपन्यास के रूप में छपा ततपश्चात नाटक के रूप में आया । यह हिंदी साहित्य की शायद एकमात्र कृति है जो उपन्यास और नाटक दोनों ही रूपों में मंच पर सफलतापूर्वक मंचित हुआ । प्रसिद्द नाट्य निर्देशक और कहानी का रंगमंच नामक विधा के प्रणेता के रूप में विख्यात देवेन्द्र राज अंकुर ने इसे अपने नाट्यदल के साथ उपन्यास के रूप में मंचित किया तो अमाल अलाना के निर्देशन में पहली बार इसे नाटक के रूप में खेला गया । तत्पश्चात देश के कई प्रसिद्द नाट्य निर्देशकों ने भी इसे नाटक के रूप में मंचित किया । लगभग तीस प्रमुख पात्रों और ग्यारह दृश्यों में समाहित इस नाटक को हिंदी प्रदेश में शायद ही ऐसा कोई नाट्य केंद्र हो जहां मंचन न हुआ हो । बिहार की राजधानी और हिंदी रंगमंच का एक प्रमुख केन्द्र पटना में इसका एक मंचन सन 1984 में इप्टा के बैनर तले परवेज़ अख्तर के निर्देशन में भारतीय नृत्य कला मंदिर के मुक्ताकाशी मंच पर हुआ था । जिसका इतिहास आज भी बिहार रंगमंच पन्नों और दर्शकों की स्मृतियों में अंकित है । उस प्रस्तुति में दा साहब की भूमिका निभानेवाले चर्चित रंगमंच और फिल्म अभिनेता विनीत कुमार बताते हैं – “वह हिंदी रंगमंच के महानगरीय संस्करण का स्वर्णिम काल था । देश की राजधानी समेत कई अन्य शहरों में रंगमंच अपने जूनून के घोड़े पर सवार हो पूरी रफ़्तार से दौड़ रहा था । पटना के अलग अलग नाट्यदलों के लगभग 80 अभिनेता इस नाटक में कार्यरत थे । भारतीय नृत्य कला मंदिर के मुक्ताकाश मंच पर विशाल सेट लगाया गया था । मैं खुद जोराबर की भूमिका करना चाहता था लेकिन निर्देशक ने दा साहेब की भूमिका के लिए चयन किया । वैसे इस नाटक के हर चरित्र का अपना एक अलग ही महत्व और सुर है । दा साहेब की भूमिका करते हुए मैंने पाया कि यह चरित्र कठोर से कठोरतम बात भी कोमल स्वर में बोलता है, केवल एक स्थान पर इसका स्वर तीब्र या शुद्ध लगता है । इस नाटक के एक साथ कुल पांच या छः मंचन हुए और सबके सब शो हाउसफुल । जैसे पूरा शहर ही नाटक देखने उमड़ पड़ा हो ।”   
महाभोज नामक यह उपन्यास नाटक का रूप धरकर बेहद चर्चित, सुदृढ़ और सार्थक हुआ । सरोहा नामक गांव की पृष्टभूमि और बिसू की हत्या की विसात पर बिछी इस नाटक की कथा में वर्णित दा साहेब, जमना बहन, जोराबर, बिंदा, रूक्मा, महेश, थानेदार, दत्ता बाबू, सुकुल बाबू, नरोत्तम, सक्सेना, हीरा आदि चरित्र हिंदी रंगमंच के अग्रणी चरित्रों में से एक हैं, जिन्हें अभिनीत करते हुए कोई भी अभिनेता गौरवान्वित महसूस करता है । नई रंगचेतना और हिंदी नाटककार नामक पुस्तक में रंगचिन्तक जयदेव तनेजा लिखते हैं -  “समकालीन जीवन और परिवेश को विविध स्तरों पर प्रामाणिक और निर्धारित करनेवाले सत्ता व्यवस्था के ऊपर से भोले एवं मासूम किन्तु भीतर से क्रूर और घिनौने चेहरे को निर्ममता से बेनकाब करनेवाला सुप्रसिद्ध कथाकार मन्नू भंडारी का स्थिति प्रधान राजनैतिक उपन्यास महाभोज नाट्य रूपांतरित एवं अभिमंचित होकर अभूतपूर्व चर्चा का विषय बना ।”
लेखिका मूलतः नाटककार नहीं हैं । निश्चित ही नाट्य निर्देशिका अमाल अलाना और महाभोज को मंच पर पहली बार प्रस्तुत करनेवाली नाट्यदल ने नाट्य लेखन में भी भरपूर सहयोग और सलाह दिए होंगें । इसमें कुछ गलत भी नहीं है क्योंकि नाटक एक सामूहिक कला है । यहाँ हर प्रकार का सृजन समूह में आकर ही अंतिम आकार लेता है । एक सामूहिक कला निश्चित रूप से एक दूसरे के सार्थक सहयोग से ऊर्जा और दिशा ग्रहण करता है । नाट्यालेख नाट्य-प्रस्तुति का मूल-आधार है और कोई भी नाट्य रचना दर्शकों के समक्ष मंच पर प्रदर्शित होकर ही अपनी सम्पूर्णता को प्राप्त होती है । इसलिए नए नाट्यालेख को एक कुशल और मंचीय आकार बनने के लिए निर्देशक, अभिनेता व अन्य लोगों का सार्थक सहयोग एक अनिवार्य शर्त भी बन जाती है । यह सहयोग निश्चित ही मन्नू भंडारी को मिला और परिणामस्वरूप भारतीय नाट्य साहित्य को महाभोज नामक एक अनुपम और निहायत ही ज़रूरी रचना की जन्म हुआ । जिसे देखना, पढ़ना, सुनना केवल रोचक और कलात्मक ही नहीं बल्कि सत्य से साक्षात्कार और एक तकलीफ़देह अनुभूति भी है । इस अनुभूति के बीज भारतीय व्यवस्था के अंदर ही प्रमुखता से मौजूद हैं और आज तो और भी बेशर्मी की हद तक मुखर हो गए हैं । अभिनेता विनीत कुमार कहते हैं – “अब तो दा साहब नामक चरित्र भारतीय राजनीति में खत्म से ही हो गए हैं, अब जिधर देखिए उधर जोराबर राज कर रहे हैं ।”
महाभोज का बीज सूत्र 1977 में घटित बिहार के पटना जिले का बेलछी नरसंहार है । इस नरसंहार में दर्जन भर से ज़्यादा लोगों की निर्मम हत्या की गई थी । कुछ लोगों को ज़िंदा तक जला दिया गया था । यह अंग्रेजों से आज़ादी के बाद दूसरा सबसे बड़ा नरसंहार था । यह वही काल था जब इंदिरा गांधी और कांग्रेस ने पराजय झेली थी और बिहार में 1974 के आंदोलन के फलस्वरूप जनता पार्टी की सरकार बनी थी । लेखिका ने बेलछी की इस घटना की रिपोर्ट किसी अख़बार में पढ़ी और महाभोज नामक उपन्यास के बीज उनके मन में अंकुरित होने लगे । वैसे, बेलछी की इस घटना के कई संस्करण हैं । सम्पूर्ण क्रांति के समर्थक इसे जनता पार्टी की सरकार को बदनाम करने की साजिश के तौर पर देखते हैं, तो जानकार बताते हैं कि यह दरअसल राजनीतिक शह प्राप्त दो आपराधिक गुटों की आपसी रंजिश का नतीज़ा था जिसे एक राजनीतिक स्वार्थ के तहत दलित संहार के रूप में भी प्रचारित किया गया । वहीं यह घटना इंदिरा गांधी की अति-नाटकीय बेलछी यात्रा के लिए भी इतिहास में दर्ज़ है, जहाँ श्रीमती गांधी हाथी पर सवार होकर नरसंहार पीडितों के दुःख दर्द बांटने गईं थी । कुल मिलाकर इतना तो कहा जा सकता है कि यह भारत की आजादी के सपनों से मोहभंग, कानून और न्याय व्यवस्था के पतन, सत्ता और व्यवस्था का अपराधीकरण और लोकतंत्र के चौथे खम्भे के शर्मनाक तरीके से चरमराने का काल था । व्यवस्था क्रूरता और अमानवीयता का एक से एक उदाहरण प्रस्तुत कर रही थी और जनता केवल वोटर मात्र के रूप में परिणित हो जाने को अभिशप्त कर दिए गए थे । यही बात मन्नू भंडारी के उपन्यास और नाटक के मूल में है । एक ऐसे समय में महाभोज नामक इस कृति का आना अपने आपमें एक सुखद घटना थी । ब्रेख्त के शब्दों को थोड़ा फेरबदल करके कहा जाय तो यह अंधेरे समय में, अंधरे के बारे में गीत था । मन्नू भंडारी की यह कृति भारतीय रंगमंच में एक एतिहासिक महत्व की परिघटना है, लेकिन दुखद सच यह है कि नाटक में वर्णित स्थितियां-परिस्थितियां सुधरने के बजाय कहने, सुनने, देखने, समझने की तमाम सीमाओं को पार कर शर्मनाक रूप से क्रूर से क्रूरतम रूप धारण कर आज ज़रूरत से ज़्यादा खतरनाक और अराजक हो गई हैं । यह ऐसा समय है जब देशभक्ति की परिभाषाएँ बदल दी गई हैं । एक से एक आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक घोटालों और नैतिक पतनों पर फ़ाइल के फ़ाइल भरे पड़े हैं । मूर्खता और उदंडता ने हमारी मौन स्वीकृति के फलस्वरूप क्रूरतापूर्वक अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है और मानवता और लोकतंत्र बिसू की लाश के रूप में परिणत होने को अभिशप्त बना दी गई हैं । ऐसे समय में महाभोज जैसी कृति का महत्व और ज़्यादा भी ज़्यादा बढ़ जाता है ।

रंगमंच पर भीष्म साहनी की लीला नंदलाल की

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भीष्म साहनी की कहानी 'लीला नंदलाल की'का मंचन जब पटना के कालिदास रंगालय में हुआ तो दूसरे दिन एक प्रमुख अखबार में कमाल की पूर्वाग्रह भरी समीक्षा प्रकाशित हुई। प्रस्तुति के समाचार के बीच में अलग से एक कॉलम का शीर्षक था – ऐसी रही निर्देशक की लीला। आगे जो कुछ भी एफआईआर जैसा दर्ज़ था शब्दशः पेश कर रहा हूँ – “पटना : आज की प्रस्तुति में कुछ खास नज़र नहीं आया। एक दो पात्रों को छोड़कर सबकुछ अति-नाटकीय। कॉस्टयूम पर भी ध्यान नहीं दिया गया। प्रकाश व्यवस्था कामचलाऊ रही। रौशनी से कलाकार के कदम कभी आगे कभी पीछे। (अब रौशनी से कदम आगे पीछे कैसे होता है वह तो लिखनेवाला ही जाने।) ऐसा लगा जैसे नाटक की ग्राउंड रिहर्सल (जी हां, ग्राउंड रिहर्सल ही लिखा है ग्रैंड रिहर्सल नहीं।) भी नहीं कराई गई। लीला नन्दलाल की शीर्षक नाटक में जज को चलते फिरते दिखाया गया है। जबकि सब जानते हैं कि किसी भी अदालत में जज चलते फिरते सुनवाई नहीं करते। खैर कुछ भी हो कुछ न कुछ कमियां हर प्रोडक्शन में होतीं हैं। लोग कहते हैं, यह तो प्रयोग है। लेकिन ऐसे प्रयोग का क्या मतलब जो आसानी से हजम न हो। वह भी नामी-गिरामी नाट्य निर्देशक के चेलों की ओर से।”
अब समीक्षा का यह स्तर पढ़कर ठहाका लगाने के अलावा और किया भी क्या जा सकता है। हास्य, व्यंग्य, फार्स, छायावाद, यथार्थवाद आदि को एक ही तराजू से तोलनेवाले इन महान रंग-समीक्षकों की जय हो। वैसे भी समय का खेल ही कुछ ऐसा है कि पुर्वआग्रहपुर्ण निंदा या प्रसंशा को ही लोग समीक्षा मान बैठे हैं। अब ऐसे मूढ़ नाट्य-समीक्षक को कौन समझाए कि यदि कोई भी कला यथार्थ की नक़ल मात्र ही करे तो फिर उस कला की उपयोगिता ही क्या है। वैसे भी रंगमंचीय यथार्थ और यथार्थ जगत में फर्क होता है। बहरहाल, भीष्म साहनी की इस कहानी से मेरा जुड़ाव कुछ दूसरे किस्म का भी रहा है। इसे भावनात्मक जुडाव भी कहा जा सकता है। सन 1997 की बात है। महाजन जिस रास्ते चलें सही रास्ता वही है की तर्ज़ पर देश भर में, खासकर हिंदी प्रदेशों में कहानी मंचन की धूम मची थी। अभिव्यक्ति नामक जिस नाट्य दल के साथ मैंने पटना के नुक्कडों पर नाटक करना शुरू किया था उससे किसी कारणवश मोह भंग हो चुका था। मैं अब एक नए और ऐसे ठिकाने की तलाश था; जहाँ रहकर रंगमंच की बारीकियां सीख सकूँ। यह ठिकाना बना विजय कुमार द्वारा संचालित मंच आर्ट ग्रुप। विजय कुमार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) से प्रशिक्षित थे। हालांकि उस वक्त मैं रानावि के अस्तित्व से पुरी तरह अपरिचित था। मेरी मुलाकात विजय कुमार से हुई और उन्होंने मुझे दूसरे दिन प्रेमचंद रंगशाला आने को कहा। नाटक का पूर्वाभ्यास उस वक्त खंडहरनुमा प्रेमचंद रंगशाला में हो रहा था। मंच आर्ट ग्रुप के बैनर तले विजय कुमार के निर्देशन में भीष्म साहनी की इस कहानी का पूर्वाभ्यास शुरू हुआ। मैं पुरे नाटक में मंच पर ही रहता था किन्तु केवल एक ही संवाद बोलता था, वो भी जैसे-तैसे। इस प्रस्तुति ने ही मेरे वास्ते पटना रंगमंच के तथाकथित मुख्यधारा में प्रवेश का द्वारा खोला इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।
छः साल बाद पुनः एक मौका मिला कि भीष्म साहनी की कोई रचना को मैं निर्देशित करूँ। इन छः सालों के दरमियां मैंने दस्तक नाम से अपना नाट्य दल गठित कर नाटकों को निर्देशित करना शुरू कर दिया था। इसके साथ ही उक्त दिनों मैं पटना के विभिन्न नाट्यदलों के साथ ही साथ प्रसिद्द नाट्य निर्देशक संजय उपाध्याय द्वारा संचालित निर्माण कला मंच से भी जुड़ा था और भीष्म साहनी कौन हैं इस बात से अब अपरिचित भी नहीं था। सन 2003 का साल था। इसी वर्ष 11 जुलाई को भीष्म साहनी का निधन हुआ था। इसलिए तय हुआ कि इन्हें श्रधांजलि देने के लिए निर्माण कला मंच से जुड़े तीन लोग इनकी तीन कहानियों का एक सेट तैयार करेंगें जिसका मंचन निर्माण कला मंच की पन्द्रवीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित होने वाले वार्षिकोत्सव’03 में किया जाएगा। इसीलिए शारदा सिंह ने चीफ़ की दावत, प्रशांत कुमार ने अमृतसर आ गया और मैंने लीला नंदलाल की नामक कहानी का चयन किया। अब मेरा यह चयन महज एक संयोग तो नहीं ही हो सकता है। वैसे भी जिस कहानी की एक छोटी सी भूमिका से मैंने पटना रंगमंच पर अपनी मंचीय यात्रा शुरू की थी आज उसी कहानी को निर्देशित करना एक रोमांचक अनुभव होने वाला था। वैसे मुझे इनकी यह कहानी आज भी बेहद प्रिय है और यदि मौका मिले तो इसे बार-बार अलग-अलग तरीके से निर्देशित भी करना चाहूँगा। वैसे पटना में ही इनके नाटक कबीरा खड़ा बाज़ार में, हानूश और माधवी का सफल मंचन देखने का अवसर मिल चुका था और इनकी अन्य रचनाएं जैसे मुआबज़े, तमस, मय्यादास की माड़ी आदि पढ़ भी चुका था।
तो आखिर क्या खास है इस कहानी में? यह कहानी स्कूटर चोरी जैसी एक अति साधारण सी प्रतीत होनेवाली घटना के माध्यम से किस-किस की खबर नहीं लेती। परिवार, समाज, कानून-व्यस्था आदि आदि। तो किस्सा यह कि एक व्यक्ति का स्कूटर चोरी हो जाता है। फ़ौरन पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने के पश्चात् जब यह बात वो अपने घरवालों को बताता है तो घरवाले इस घटना के लिए उसे ही ज़िम्मेदार मानते हैं। फिर शुरू होता है बीमा कंपनी और पुलिस का चक्कर। पुलिसवाले इस मामले को पहले तो टालते हैं फिर पैरवी लगाने के पश्चात् थोड़ा भाव देते हैं। स्कूटर की तलाश शुरू होती है। पता चलता है कि एक बाड़े में कई अन्य वाहनों के साथ स्कूटर रखा हुआ है। वो व्यक्ति बाड़े में जाता है तो वहां उसकी मुलाकात दयाराम नामक वाहन चोर से होता है। दयाराम को अपने कृत्य पर शर्म नहीं बल्कि गर्व है। फिर शुरू होता है पुलिस, कोर्ट का ऐसे घुमावदार चक्कर जिसके भंवर में फंसकर सब सफ़ेद वालों के मालिक हो जाते हैं और स्कूटर पेशी दर पेशी पेश होता हुआ एक खटारा में तबदील हो जाता है। पर पेशियों का सिलसिला बदस्तूर कायम है।
इस कथा के माध्यम से भीष्म साहनी ने हल्के-फुल्के हास्य के द्वारा क्या एक गंभीर कथा नहीं कहते हैं? यह कहानी इस बात का घोतक भी नहीं है कि वे एक ऐसे गंभीर लेखक हैं जिनकी पकड़ हास्य-व्यंग नामक विधा पर भी है? वैसे यह एक बहुत ही गलत मान्यता है कि हास्य-व्यंग्य एक गंभीर विषय नहीं है।
कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि को बिना उसके फॉर्म में कोई बदलाव किए मंचित करना अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। क्योंकि इनकी रचना व्यक्तिगत पाठ के लिए होता है सामूहिक प्रदर्शन के लिए नहीं। कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि व्यक्ति से व्यक्तिगत रूप से साक्षात्कार करती है जबकि नाट्य-प्रदर्शन एक सामूहिक कला है। यहाँ लेखक के लिखे शब्दों को निर्देशक और परिकल्पक के निर्देशों और परिकल्पनाओं को आत्मसाथ करते हुए अभिनेता दर्शक समूह के लिए एक सामुहिक कला का सृजन कर रहा होता है। इसलिए कह सकते हैं कि जब कोई नाट्य-दल या निर्देशक कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि को मंचित करने का निर्णय लेता है तो वह चीज़ों को व्यक्तिगत से सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रूप का रूपांतरण कर रहा होता है। वैसे भी मेरी रूचि हमेशा से ही लिखे-लिखाए नाटकों से ज़्यादा कविता, कहानियों, उपन्यासों को मंच पर उतारने में रही है। बहुत अच्छे से लिखा नाटक अपने आप ही एक दायरा बनाता है और मुझे दायरे पसंद नहीं।
लीला नंदलाल की कहानी को मंच पर रूपांतरित करते हुए सबसे पहली इस बात का ध्यान रखना था कि यह मेरे द्वारा पूर्व में अभिनीत प्रस्तुति की कार्बन कॉपी ना हो और दूसरी बात यह कि हमें केवल कहानी का पाठ नहीं करना बल्कि ऐसे नाटकीय दृश्यबंध भी तैयार करने हैं जो प्रस्तुति को नाटकीयता और भव्यता दोनों ही प्रदान करे। फिर बहुत दिनों से मन में पॉपुलर एलिमेंट्स को नाटक में प्रयोग करने की भी दिली इच्छा थी। जिसे विद्वानों द्वारा क्लिशे कहा जाता है। मन में बार-बार यह प्रश्न उमड़ता-घुमड़ता रहता कि क्या क्लिशे के सावधानी पूर्वक प्रयोग से कोई सार्थक नाट्य प्रस्तुति नहीं गढ़ी जा सकती है। आखिरकार हमने अभिनेताओं के दल के साथ इसका प्रयोग शुरू किया। चंद ही रोज़ में परिणाम भी आने लगा। नायक अपनी पत्नी को स्कूटर पर बैठता है। पत्नी बड़े प्यार से नायक को देखती है और बैकग्राउंड में किशोर दा का गाना बजने लगता है – कोर कागज़ था ये मन मेरा। कहानी स्कूटर की थी तो मंच पर स्कूटर के साथ ही साथ कई अन्य दोपहिया वाहनों का प्रयोग किया गया। कुछ फ़िल्मी और प्राइवेट एलबम के गाने भी जोड़े गए और उन गानों पर कहानी के अनुरूप ही व्यंगात्मक दृश्यबंध तैयार किया गया। विलेन की इंट्री पर पूरा फ़िल्मी माहौल भी बनाया गया – सफ़ेद सूट, छिला हुआ सिर, मंच पर धुँआ और बैकग्राउंड में विलेनियाँ संगीत। कुल मिलाकर यह स्वयं मेरे और मेरे अभिनेताओं लिए एक अनूठा अनुभव था और शायद दर्शकों के लिए भी। यही हमारी भीष्म साहनी को श्रधांजलि भी। आज इस प्रस्तुति को याद करते हुए इसके मुख्य अभिनेता प्रवीण की याद बार-बार आ जाती है जिसकी निर्मम हत्या उसके ही मोहल्ले के कुछ सडक छाप गुंडों ने बेवजह ही कर दिया था।

भीष्म साहनी अर्थात एक ऐसा नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार जिन्हें किसी भी एक बने बनाए सांचे में नहीं डाला जा सकता। इनसे जुड़ी एक और इच्छा जो कई सालों से मेरे अभिनेता मन में पल रही है है वो यह कि इनके नाटक नाटक कबीरा खड़ा बाज़ार में मैं कबीर की भूमिका का करूँ। यह इच्छा मुझ जैसे न जाने कितने अभिनेताओं के दिलों पर आज भी राज कर रहा होगा। हां, यह अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि आज के समय में भीष्म साहनी जैसे रचनाकार की उपयोगिता पहले से कहीं ज़्यादा है। इनकी रचनाओं को बार-बार पढ़ा-पढ़ाया, समझा-समझाया जाय, इनके नाटकों, कहानियों, उपन्यासों का बार-बार मंचन किया जाय, यही इस रचनाकार के प्रति हमारी सच्ची श्रधांजलि होगी।

एच कन्हाईलाल को पद्मभूषण

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एच कन्हाईलाल का पूरा नाम हैसनाम कन्हाईलाल है। इनका जन्म 17 जनवरी 1941 में कैसंथोंग थान्ग्जाम लाइरक इम्फाल में हुआ। सन 1969 में उन्होंने मणिपुर में कलाक्षेत्र की स्थापना की। उन्हें अब तक निर्देशन के लिए संगीत नाटक अकादमी सम्मान 1985, संगीत नाटक अकादमी रत्न पुरस्कार 2011 सहित पता नहीं कितने सम्मान मिल चुके हैं। इससे शायद ही किसी को इनकार हो कि आज एच कन्हाईलाल का नाम भारतीय रंगमंच का पर्याय बन चुका है।
2007 - 08 की बात है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से बतौर छात्र मैं और मेरे कुछ बैचमेट पढाई पूरी करने के पश्चात् राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में प्रशिच्क्षु (Apprentice) कलाकार के रूप में कार्यरत थे। रंगमंडल में प्रशिक्षुओं की स्थिति किसी मुहाजिर की तरह ही होती है, जो किसी देश में रहते हुए भी उस देश का शरणार्थी होता है। हमारी भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। हम शरणार्थियों के लिए रंगमंडल में तत्काल कोई योजना नहीं थी तो एच कन्हाईलाल को बुला लिया गया कि वो आएं और हमारे साथ “कुछ” काम करें। तीन साल के प्रशिक्षण के पश्चात् भी यह “कुछ” काम वाला तर्क हमारे गले से उतरना आसान नहीं था। लेकिन यह रंगमंडल हैं स्कूल नहीं। यहाँ विरोध का कोई स्थान नहीं है। हमें ऐसा लगा जैसे हमारी पढ़ाई तीन साल में खत्म नहीं हुई बल्कि चौथे साल में भी शुरू हो गई थी।
बहरहाल, कन्हाईलाल आए तो उनके साथ सावित्री जी और उनका पुत्र तोम्बा भी आए। तीनों ने हमारे साथ अभ्यास आरम्भ किया। तीनों व्यवहार में इतने सहज कि लगता ही नहीं था कि हम भारतीय रंगमंच के एक लिजेंड्री जोड़ी और परिवार के साथ काम कर रहे थे। कन्हाईलाल जी और सावित्री जी की जोड़ी को रंगमंचीय कलाकार की आदर्श जोड़ी है। दोनों एक दूसरे के पूरक जैसे ही हैं। कन्हाईलाल जी थ्योरी हैं तो सावित्री जी उस थ्योरी की व्यावहारिक आत्मा।
उन्होंने हमारे साथ कई सारे अभ्यास किए। अपनी रंगमंचीय तकनीक से अवगत करवाया और रंगमंचीय अभिनय को लेकर कई सारे जाले भी साफ़ किए। खोखली बौधिकता और जादुई शब्दावलियों से परे स्वतः और स्वभाविक मानवीय इंस्टिंक्ट को फिजिक्लाइज करना सिखाया। शुरू में हमें दिक्कत हुई क्योंकि आधुनिकता, विकास और बौद्धिकता के नाम पर हमने हमने इन्हीं चीज़ों का ही तो त्याग किया है। शारीरिक अभ्यास किए और शब्दों से ज़्यादा ध्वनियों पर काम किया। शुरूआती असफलताओं के बाद एक बार सूत्र पकड़ में आ गया और हमने "इसे ही रंगमंच कहते हैं"की बनी बनाई मान्यता को त्यागकर अपने को कन्हाईलाल जी के हवाले कर दिया तो फिर तो मज़ा ही मज़ा था। अभिनेता का शरीर ही उसका मूल अस्त्र है तो हमने सर्वप्रथम शरीर को साधना सीखा ताकि उससे संवेदना का सतत संचार हो सके। यह सब अभ्यास हमारे लिए बिलकुल भी नए थे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीन वर्ष के पाठ्यक्रम में अभिनय के कई सारे रूप और प्रकार से परिचय तो प्राप्त हो ही जाता है।
कन्हाईलाल जी ने हमारे साथ कुछ डेमोस्ट्रेशन भी तैयार किया। वो चाहते थे कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों और शिक्षकों के सामने इस डेमोस्ट्रेशन को प्रदर्शित करेगें ताकि कन्हाईलाल जी कैसे काम करते हैं यह समझ में आए और यह भी समझें कि उनके काम को तथाकथित शहरी रंगकर्मी भी आराम से आत्मसाथ कर सकते हैं जो यह कहके उनके काम को खारिज़ कर देते हैं कि उसके लिए एक खास प्रकार की ट्रेनिग की ज़रूरत है और उसे हर कोई नहीं अपना सकता। लेकिन डेमोस्ट्रेशन के दिन कोई भी नहीं आया - न कोई छात्र, न शिक्षक और ना ही कोई अन्य। किसी के भी पास इनके काम को देखने के लिए एक घंटा नहीं था। कन्हाईलाल और सावित्री जी इस बात से विचलित नहीं हुए बल्कि वो तो शायद यह जानते थे कि यही होनेवाला है। बहरहाल, उन्होंने हमें चाय समोसा की एक छोटी पार्टी और हमें खूब सारा प्यार दिया।
इस कार्यशाला के दौरान हमें उनके जीवन संघर्षों की गाथा सुनने का अवसर भी मिला। हम कभी दुखी, कभी आश्चर्यचकित भाव से उनकी कहानी सुनते रहे। मणिपुर जैसे राज्य में रहकर आज के खाऊ - पकाऊ और आत्ममुग्धता भरे दौर में कोई तो है जो जीवन के तमाम दुःख-सुख को आत्मसाथ करते हुए पूरी जीवटता, सहजता और लगन के साथ रंगमंच को न केवल खेलता है बल्कि जीता भी है।
यह तो सर्वविदित है कि कन्हाईलाल जी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र थे लेकिन उन्होंने अपनी पढ़ाई पुरी नहीं की। उसका सबसे बड़ा कारण भाषा तो था ही साथ ही साथ जो कुछ भी वहां पढ़ाया जा रहा था वह शायद उनके काम का ज़्यादा कुछ था नहीं। कुछ लोग इस घटनाक्रम को पारिवारिक जिम्मेदारियों से भी जोड़ कर देखते हैं। असली करण चाहे जो भी ही किन्तु यह सच है कि स्थिति आज भी कुछ ज़्यादा बेहतर नहीं है। जो छात्र हिंदी भाषी नहीं होते वह कैसे धीरे – धीरे तनाव का शिकार होते हैं यह हम सबने खुद अपने बैच में महसूस किया है। अच्छे से अच्छा अभिनेता ठीक से हिंदी न बोल – समझ पाने से की वजह से कुंठाग्रस्त होने को अभिशप्त होते हैं क्योंकि राष्ट्रीय के नाम पर यहाँ आज भी अमूमन हिंदी का ही बोलबाला है।
कन्हाईलाल जी ने अपनी जीवन संगनी सावित्री जी के साथ मिलकर न केवल रंगमंच की अपनी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा खोजी बल्कि उसे किसी भी भाषा से ऊपर उठाकर समसामयिक और सार्थक भी बनाया। यह कहा जाय तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनका रंगमंच किसी प्रकार के तड़क – भड़क से परे मूलतः अभिनेता – अभिनेत्री केंद्रित एक ग्लोबल रंगमंच है जहाँ भाषा से ज़्यादा भाव, भंगिमाओं, गतियों और ध्वनियों आदि जैसे वैश्विक चीज़ों का इस्तेमाल ज़्यादा है। इससे कथा का प्रवाह वाधित नहीं होता बल्कि वो और ज़्यादा व्यापक और वैश्विक होकर मुखर हो जाता है। यह वजह है कि कुछ लोग यह मानते हैं कि कन्हाईलाल जी जैसे लोगों का रंगमंच राष्ट्रीय रंगमंच है। एच कन्हाईलाल को वर्ष 2016 का पद्मभूषण सम्मान देने की घोषणा हुई है। वर्तमान सरकार और उसकी नीतियों से सहमति – असहमति के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एच कन्हाईलाल जैसे लोगों का सम्मान राष्ट्रीय रंगमंच का उचित सम्मान है। 

हिंदी रंगमंच : अब खैनी, गुटखा और पान के लिए भी मिलेगा सांस्कृतिक अनुदान !!!

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अंतराष्ट्रीय हिंदी रंगमंच दिवस, होलीपुर। अंतराष्ट्रीय हिंदी रंगमंच दिवस के अवसर पर जम्बो देश के होलीपुर नामक कुख्यात स्थान पर महिला वस्त्र धारी बाबा कामदेव की अध्यक्षता में विश्वभर के हिंदी रंगकर्मी, नाट्यलोचक, दर्शक आदि-इत्यादि बिना दारु, भांग, खैनी, गुटखा, गांजा आदि के इक्कठा हुए। हालांकि इन पावन वस्तुओं के आभाव में उन्हें एकाग्रचित होने में तनिक कठिनाई का सामना करना पड़ा, रात के आठ बजते ही कुछ रंगकर्मी और नाट्यलोचक लोग तो इन पावन और पवित्र वस्तुओं के आभाव में बेहोशी और मिर्गी का शिकार होते भी पाए गए। एक प्रख्यात नाट्यलोचक ने तो इन वस्तुओं के आभाव में पुरे आयोजन को ही कूड़ा बता दिया। उन्होंने रंगकर्मियों पर नाट्यलोचकों का हक़ छीन लेने का आरोप लगते हुए निम्न बातें कहीं - "हिंदी रंगमंच दरअसल नाट्य - आलोचना और नाट्यलोचक विरोधी रंगमंच है। एक तो पहले से ही यहां नाट्यलोचक और आलोचना की हालत खराब है ऊपर से कभी-कभी मुफ़्त में मिल जानेवाली पावन पेय "मदिरा"व अन्य पुजनीय वस्तुओं का भी निषेध करने की साजिश की गई है। जो लोग भी इस घिनौने कृत्य में शामिल हैं उन्हें दरअसल भारतीय नाट्य परम्परा का ज्ञान ही नहीं है। वो दरअसल भारतीय संस्कृति का अपमान कर रहे हैं। देशद्रोही हैं - सब के सब। ऐसे लोगों यथाशीघ्र ही रंगमंच क्या उस देश की परिधि से बाहर फेंक देना चाहिए।"अपनी बात समाप्त करते हुए इन्होंने साढ़े सात बार "भारत माता की जय"का जयकारा भी लगाया और धरने पर बैठ गए। स्थिति को सामान्य करने के लिए अन्तः बाबा कामदेव के आदेश पर इन नाट्यलोचकों के लिए चार-चार बून्द अल्कोहल का प्रबंध किया गया। नाट्यलोचक ने होमियोपैथिक दावा की तरह इस चार बून्द अल्कोहल का दो पैग बनाकर नमक और सत्तू की गोली के साथ गले के नीचे उतारा और स्वदेशी बीड़ी के सुट्टे मारे तब जाकर उनकी जान में जान आई और फिर उन्होंने सारे हिंदी रंगकर्मियों को "देशप्रेमी कलाकार"का सर्टिफिकेट दिया। ड्राई डे के दिन मदिरा का प्रबंध करनेवाले एक चालीस वर्षीय युवा रंगकर्मियों का नाम तो उन्होंने शहनाई खां युवा पुरस्कार के लिए उसी वक्त प्रस्तावित कर दिया है और यदि कोई अन्य इनकी भक्ति में इससे ज़्यादा लीन न हुआ तो यह पुरस्कार इन युवा रंगकर्मी को ही मिलेगा।
समारोह का उद्घाटन करते हुए एक केंद्रीय सह-राज्य मंत्री ने बिना फेंकते हुए कहा कि "उनकी सरकार की योजना कला (काला नहीं) संस्कृति नामक परजीवी पौधा को पुरज़ोर खाद - पानी देने की है। इसके लिए हर शहर, गाँव, कस्बा में मुफ्तखोरी का इंतज़ाम किया जाएगा। इस योजना के तहत कमीशन खाकर विभिन्न प्रकार का अनुदान तो मिलेगा ही, साथ ही साथ हर जगह बहुत सारा प्रेक्षागृह भी खोला जाएगा, जिसमें शादी - ब्याह से लेकर मुंडन - छेदन तक की बुकिंग की जाएगी। लोग चाहें तो नैतिक-अनैतिक सुहागरात की बुकिंग भी कर सकते हैं। इन आयोजनों के बाद भी यदि प्रेक्षागृह खाली पड़े रहे तो वह नाटक - नौटंकी करनेवाले भांड - मिरासियों को भी सम्मानित तरीके से लगभग मुफ़्त में उपलब्ध करा दिया जाएगा। इस कार्य को कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिए इस देश के सबसे बड़े नाट्य विद्यालय के सबसे बेईमान चपरासी को समीति का चेयरमैन बनाया गया है क्योंकि उसकी मूँछ मिलीमीटर से नापने पर फ़िल्म शराबी के नत्थूलाल जी की मूँछो से ज़्यादा बड़ी पाई गई है।
मंत्रीजी की युक्त घोषणा को सुनने के पश्चात् कुछ चम्पक और अतिक्रान्तिकारी और महामूर्ख टाइप के रंगकर्मियों को छोड़कर बाकी सबलोग ग्रांट की फ़ाइल भरने और उसे स्पीड पोस्ट करने और हॉल की बुकिंग में व्यस्त देखे गए हैं। कुछ ने तो चट मंगनी पट ब्याह के तर्ज़ पर नाटक के मंचन की योजना भी बना डाली है। वहीँ कुछ वरिष्ठ रंगकर्मियों ने मांग की है कि कला और कलाकारों के लिए इतने ही अनुदान मात्र से काम नहीं चलेगा बल्कि सरकार कलाकारों को मदिरा, चखना और धूम्रपान के लिए भी ग्रांट दे, जिससे कि कलाकारों को इसके जुगाड़ के लिए किसी का मुंह नहीं ताकना पड़े। कुछ रंगकर्मियों ने हर नाट्यगृह में ग्रीनरूम, टॉयलेट के साथ ही साथ एक ऐसा कमरा भी बनाने का प्रस्ताव दिया है जहाँ बैठकर आराम से मांस, मदिरा और धूम्रपान आदि किया जा सके। वहीँ बिहार के कुछ रंगकर्मियों ने विशेष राज्य का दर्जा माँगते हुए मदिरा के साथ ही साथ खैनी, गुटखा और पान पर भी अनुदान देने की मांग रखी है। बिहार के रंगकर्मियों ने यह भी चेतावनी दी है कि यदि उनकी मांगों को अनसुना किया गया तो वो सरकार को ही बिहार और बिहारी विरोधी घोषित करके दर्शकों के सामने विरोध स्वरुप "अच्छे नाटक"करने लगेगें। बिहार के रंगकर्मियों की अगुआई कोई एक व्यक्ति नहीं कर रहा था क्योंकि बिहार महापुरुषों की भूमि है और यहाँ हर कोई जन्मजात महापुरुष होता है और महापुरुषों की ख़ासियत यह होती है कि वो किसी को भी अपना नेता नहीं मानते बल्कि अपना नेता वो स्वयं होते हैं। इसलिए बिहार में जनता का कॉंसेप्ट सम्राट अशोक के समय ही खत्म हो गया है। अब यहाँ सब नेता हैं, जनता कोई नहीं।
वहीँ सभागार में उपस्थित कुछ नाट्यप्रेमी दर्शकों ने हिंदी नाटक देखने के लिए भी अनुदान देने की बात कही है। उनका तर्क यह है कि हिंदी के अमूमन नाटक इतने उच्च कोटि के घटिया, उबाऊ और रटंत विद्या के होते हैं कि उसे बिना अनुदान के झेल पाना संभव ही नहीं। वहीँ नाट्यप्रेमी गुलाबी लाल चौहान ने प्रेक्षागृह के सीटों को आरामदायक बनाने और नाटक के पश्चात् नाटक करनेवाले दल की और से दारु के साथ भोज-भात का इंतज़ाम करने की भी मांग की है ताकि नाट्यप्रेमी आराम से पूरा नाटक देखें और चैन से खा-पीकर झूमते हुए अपने - अपने घर को जाएं।
देश के सबसे बड़े नाट्य विद्यालय के दरबान से सभा को संबोधित करते हुए कहा कि नाट्य विद्यालय ने प्रतिभा के आधार पर विद्यार्थियों का चयन करना अब बंद कर दिया है। क्योंकि जो प्रतिभावान हैं उन्हें कोई सिखाए, न सिखाए - वो तो अपनी मेहनत और लगन से सीख ही जाएगें किन्तु जो प्रतिभा के धनी नहीं हैं अब विद्यालय उनका साथ देगी क्योंकि कमज़ोर का साथ देना ही सच्ची देशभक्ति है।
उन्होंने तमाम कमज़ोरों से निवेदन किया कि चुकी प्रतियोगिता काफी कड़ी है और कमज़ोरों की संख्या ज़्यादा व सीटें कम इसलिए कमज़ोर विद्यार्थी विद्यालय में प्रवेश पाने हेतू हर प्रकार के तिकड़म अपनाएं। यह तिकड़म किस - किस प्रकार के हो सकते हैं उसे सिखाने के लिए इन्होंने "नाट्य विद्यालय प्रवेश तिकड़म संघ"की स्थापना करने बात कही जिसमें वरिष्ट तिकड़मबाज़ रंगकर्मी लोग नियमित क्लास लेकर कनिष्ठों को तिकड़म के पैंतरे कानूनी रूप से सिखाएगें। कुछ कनिष्ठ रंगकर्मी तो मक्खन भरे ड्रम के साथ अपने वरिष्ठों की आराधना में लीन भी देखे गए।
नाट्य विद्यालय के इस घोषणा के साथ ही पुरे देश में ख़ुशी की लहर दौड़ गई है। इस फैसले का स्वागत करते हुए युवा रंगकर्मी और रंगचिंतक चम्पक कुमार ने कहा कि "यह एक अति-लोकतान्त्रिक और क्रांतिकारी फैसला है। आजतक लोग तिकड़मबाजी और मक्खनबाजी को गन्दी नज़र से देखते थे लेकिन अब यही कानून होगा। वैसे भी कला के क्षेत्र में ईमानदारी एक महामारी है। एक कलाकार को तभी तक ईमानदारी की बीन बजानी चाहिए जब तक उसे बेईमानी का मौका न मिले। कलाकारिता झूठ और सच से परे का पेशा है इसलिए कलाकार ईमानदारी और नैतिक ज़िम्मेदारी नामक रोग से जितनी जल्दी मुक्त हो जाए कला के लिए उतना ही अच्छा है।"
महिलावादी निर्देशक व नाट्याधेता मुद्रा कुमारी ने सरकार के सामने यह भी मांग रखी कि महिला कलाकारों के लिए अलग से कॉस्मेटिक ग्रांट की व्यवस्था की जाय ताकि अभिनेत्रियों मंच पर सुन्दर और हॉट दिख सकें, न कि कुपोषित और उपेक्षित। उन्होंने महिला रंगकर्मियों को रिहर्सल यात्रा भत्ता, आई लाइनर भत्ता और लिपस्टिक व रूज़ भत्ता भी देने की मांग की।
वहीँ देश के कुछ प्रतिष्ठित नाट्य परिकल्पकों और निर्देशकों से सरकार मांग की है कि उन्हें फ्री लेपटॉप और वाईफाई की सुविधा प्रदान की जाय ताकि वो अपने नाटकों की विभिन्न प्रकार की परिकल्पना (मसलन - लाइट, साउंड, कास्ट्यूम, पोस्टर आदि) इंटरनेट की दुनियां से प्रभावित, चोरी या नक़ल करके आसानी से करें। वैसे भी चोरी कोई ग़लत बात नहीं है बल्कि बड़े - बड़े महापुरुष (महा केवल पुरुष होते हैं स्त्रियां नहीं!) कह गए हैं - नक़ल के लिए भी अक़ल चाहिए। वैसे भी हमारे देश में चोरी की पुरानी परम्परा है और जो चीज़ परम्परा में हो उसे संस्कृति कहते हैं। तात्पर्य यह कि नक़ल या चोरी हमारी संस्कृति है और कलाकार वैसे भी संस्कृति का अगुआ होता है। वर्तमान समय में हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं इसलिए आज ज़रूरत है कि चोर पुराण को पुनर्जीवित और प्रतिष्ठित किया जाय।
इस महासभा का समापन विश्व-कुख्यात नाट्य-चिंतक चखना दादा ने किया। इस अवसर पर समापन भाषण देते हुए उन्होंने उपरोक्त सारी मांगों का समर्थन करते हुए यह भी कहा कि यह एक भ्रम है कि रंगमंच एक गंभीर और समाज को दिशा प्रदान करने वाला पेशा है। बल्कि सच यह है कि रंगमंच झूठ को सच और सच को झूठ साबित करनेवाला एक ऐसा पेशा है जहाँ जो जितना बड़ा बेईमान है वह दरअसल उतना ही बड़ा महान है। लोकतान्त्रिक कार्य प्रणाली को रंगमंच विरोधी करार देते हुए उन्होंने सामंतवाद को ही रंगमंच का सच्चा साथी बताया क्योंकि यदि नाट्य समूह लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से संचालित होने लगे और सबको बराबर का हक़ और "माल"में बराबर का हिस्सा मिलने लगा तो तमाम मठ और मठाधीश दिवालिया हो जाएगें। यह न केवल रंगमंच के लिए घातक है बल्कि समाज के लिए भी। समाज और कला दोनों को सुचारू रूप से कार्यरत रहने के लिए वर्णाश्रम का सही - सही पालन होना एक अनिवार्य शर्त है। यही भारतीयता है और भारतीय संस्कृति भी। जो कला या समाज अपनी संस्कृति से कट जाए उसकी हालात धोबी के उस कुत्ते के जैसी होती है, जो न घर का होता है न घाट का।
धन्यवाद ज्ञापन करते हुए स्वर्गीय रंगकर्मी चम्मच प्रसाद ने विश्व भर के संस्कृतिकर्मियों का आह्वान करते हुए कहा कि नैतिक ज़िम्मेवारी के नाम का माला जपके संस्कृतिकर्मियों ने अपना कबाड़ बना लिया है। जब पूरा विश्व पूंजीवादी संस्कृति का उपासक बन खाने पीने और खिलाने में मस्त है, ऐसे समय में नैतिकता और आदर्शवाद एक मज़ाक से ज़्यादा और कुछ नहीं है। भूख से बिलबिलाते समय में अपनी रोटी, मटन और दारु की चिंता करना ही असल जनवाद है। क्योंकि दूसरे की चिंता करने के लिए अपना पेट भरा होना आज की एक अनिवार्य ज़रूरत है। इसके लिए अनुदान क्या, ज़रूरत पड़े तो उधार, चोरी, डैकैती - सब चलेगा।
जनवादी संस्कृति का नाश हो और जुगाड़ू संस्कृति ज़िंदाबाद के नारे के साथ अन्तः सबने जमकर स्वदेसी पीया और मुर्गा पुलाव का सेवन के पश्चात् विश्व बंधुत्व का नारा बुलंद किया। कार्यक्रम की समाप्ति "नाथुनिए पे गोली मारे, सैयां हमार हो"नामक भक्ति संगीत से हुआ।
आयोजन में नाटककार नामक अवांछित तत्व का प्रवेश वर्जित था।
- फेसबुकिया क्रांति के लिए यह रिपोर्ट भकचोन्हर प्रकाश ने बनाई है। *Happy Holi - बुरा न मानो होली है?

राग दरबारिया प्रेमपत्र

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श्रीलाल शुक्ल लिखित उपन्यास - राग दरबारी । एक ऐसी “कल्ट” किताब कि जिसे मैं कभी भी, कहीं भी, कहीं से भी पन्ने पलटकर पढ़ सकता हूँ । इस पुस्तक के एक एक शब्द और शैली से मुझे जानलेवा मुहब्बत है । नकली आदर्शवाद और वाहियात क्रांतिकारिता के पेचीस से पूरी तरह मुक्त “राग दरबारी” भारतीय ग्रामीण जीवन का किसी भी बाइबल से कम नहीं है; और इसी पुस्तक में दर्ज़ निम्नलिखित प्रेम पत्र विश्व साहित्य के किसी भी महान प्रेम पत्र नुमा रचना से पाठ और उप-पाठ और शैली (Text, Sub-Text, Style) आदि इत्यादि के स्तर पर बीस ही ठहरता है, उन्नीस तो हरगिज़ नहीं । शायद यही वजह है कि हिन्दी की प्रख्यात विद्वान फ्रेंचेस्का ओरसिनी ने अपनी किताब ‘Love in South Asia’ में इसका खास जिक्र किया है । बहरहाल, उपन्यास के पात्र बेला द्वारा रूप्पण बाबू को लिखा प्रेम पत्र का रसावादन कीजिए । जिसे इसी उपन्यास का किताबी (लगभग) क्रांतिकारी रंगनाथ “सिनेमा का संस्कृति के अध:पतन मे योगदान” का जुमला साबित करने की मंशा रखता है । 
सुना है किसी जमाने मे लोग गुनाहों का देवता तकिये के नीचे रखके सोते थे; आज वक्त है राग दरबारी को दिल दिमाग मे बैठने का, क्योंकि वैदजी अब गावों की नहीं देश की राजनीति करते हैं ।
ओ सजना, बेदर्दी बालमा,
तुमको मेरा मन याद करता है । पर ... चाँद को क्या मालूम, चाहता है उसे कोई चकोर । वह बेचारा दूर से ही देखे करे न कोई शोर । तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो । याद मे तेरी जाग-जाग के हम रात – भर करवटें बदलते हैं । 
अब तो मेरी यह हालत हो गई है कि सहा भी न जाए, रहा भी न जाए । देखो न मेरा दिल मचल गया, तुम्हें देखा और बदल गया । और तुम हो कि कभी उड जाए, कभी मुड़ जाए, भेद जिया का खोले ना । मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको छिपाने की बुरी आदत है । कहीं दीप जले कहीं दिल, ज़रा देख तो आके परवाने ।
तुमसे मिलकर बहुत सी बातें करनी हैं । ये सुलगते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ । मुहब्बत लूटाने को जी चाहता हैं । पर मेरा नादान बलमा न जाने दिल की बात । इसलिए मैं उस दिन तुमसे मिलने आई थी । पिया मिलन को जाना । अंधेरी रात । मेरी चाँदनी बिछुड़ गई, मेरे घर पे पड़ा अँधियारा था । मैं तुमसे यही कहना चाहती थी, मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए । बस, एहसान तेरा होगा मुझ पर मुझे पलकों की छाँव में रहने दो । पर जमाने का दस्तूर है यह पुराना, किसी को गिराना किसी को मिटाना । मैं तुम्हारी छत पर पहुंचती पर वहाँ तुमरे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ था । मैं लाज के मारे मर गई । आंधियों, मुझ पर हंसों, मेरी मुहब्बत पर हंसों । 
मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो । तुम कबतक तड़पाओगे ? तड़पाओगे ? तड़पा लो, हम तड़प-तड़पके भी तुम्हारे गीत गाएँगे । तुमसे जल्दी मिलना है । क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मंदिर सूना है । अकेले हैं, चले आओ जहां हो तुम । लग जा गले से फिर ये हंसी रात हो न हो । यही तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए, हाय । हम आस लगाए बैठे हैं । देखो जी, मेरा दिल न तोड़ना ।
तुम्हारी याद मे,
कोई एक पागल ।
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