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अभिनेता, अभिनेत्री और आज का रंगमंच

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प्रचलित मान्यता यह है कि रंगमंच के केंद्र में अभिनेता- अभिनेत्री हैं। यह बात आज सुनने में भले ही बहुत सुकूनदायक लगे किन्तु इस कथन में जितनी सच्चाई है, उससे कहीं ज़्यादा मात्रा झूठ का है। रंगमंच के मंच के आगे (दर्शकदीर्घा) से यह बात पूर्ण सत्य का आभास देता है क्योंकि दर्शक दीर्घा से रंगमंच के मंच पर अभिनेताओं, अभिनेत्रियों का जीवंत अभिनय सबसे ज़्यादा प्रभावशाली और जादुई प्रतीत होता है। दर्शक इन्हीं के साथ भावों, संवादों और संवेदनाओं के मर्म को पकड़कर रंगमंच के जादुई यथार्थ में गोते लगाते हैं लेकिन मंच के परे, रंगमंच के पुरे चक्रव्यूह में प्रवेश कर यदि झांके तो स्थिति की दयनीयता और क्रूरता बिलबिला कर सामने आ जाती है; और हम देखते हैं कि जिस चीज़ को हम रंगमंच का केंद्र बिंदु मान रहे हैं दरअसल उसकी स्थिति प्रजातंत्र के उस जनता से कुछ ज़्यादा अच्छी नहीं है जो अपनी दयनीय स्थिति और अमानवीय दरिद्रता से मुक्ति हेतू तमाम प्रकार के लुभावने नारों के शोर में दिग्भ्रमित हो इस डर से एवीएम मशीन का बटन दबा आता है कि कहीं उसकी अंतरात्मा चुनाव नामक पवित्र और कर्तव्यनिष्ठ पर्व में सम्मिलित न होने के लिए उसे दुतत्कारने न लगे। यहाँ भी जनता को नायकत्व का टैग लगा है ठीक उसी प्रकार जैसे कि रंगमंच में अभिनेता-अभिनेत्री को केंद्र-बिंदु का। जबकि दोनों की स्थिति किसी कठपुतली जैसी ही है।
यह कब हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ - यह एक इतिहासिक अध्ययन का विषय है लेकिन यह सच है कि रंगमंच में अभिनेता पहले आया बाकि चीज़ें बाद मे। अब बाद मे आए प्राणी ने चुपके से कैसे और क्यों अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, यह भी खोज का विषय है। लेकिन एक बात तो सच है कि सारा खेल सत्ता और धन का है। तभी तो सबकुछ झेल कर संघर्ष कर रहा अभिनेता निर्देशक बनते ही ठीक उसी सत्तावादी की तरह व्यवहार करने लगता है, जिससे कि कभी वह स्वयं त्रस्त रहा है। यह शायद पूंजीवाद का ही गोल पहिया है जो घूमता रहता है - गोल गोल। अर्थात हालत ठीक संसद वाली ही है जहाँ सत्ता पक्ष सत्तावादी और विरोध पक्ष विरोधवादी प्रवृति का शिकार होता है और सत्ता पक्ष का विरोध में या विरोध पक्ष का सत्ता में आ जाने से कोई ख़ास मुलभुत और नीतिगत बदलाव प्रत्यक्षतः देखने को नहीं मिलता।
रंगमंच एक सामूहिक कार्य है यदि यह सच है तो सामूहिकता का सिद्धांत यह कहता है कि समूह में कोई छोटा - बड़ा, कमज़ोर - मजबूत, ज़रूरी - गैरज़रूरी, फ़ालतू - महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि सब बराबर होते हैं। सबकी अपनी - अपनी भूमिका होती है और सामूहिकता का वजूद एक दूसरे के परस्पर सहयोग और विश्वास पर टिका होता है। लेकिन जब रंगमंच करते हुए एक व्यक्ति दूसरे पर मालिकाना हक जताने लगता है और दूसरे के मुकाबले में पहला आर्थिक और प्रसिद्धि के रूप में सम्पन्नता की ओर अग्रसर होने लगता है तो संदेह होना लाजमी है। वैसे ह्रास तो पुरे समाज में हुआ है फिर रंगमंच उससे अछूता कैसे रह सकता है? क्या श्रम के ऊपर पूंजी और सत्य के ऊपर फरेब, ईमादारी के ऊपर बेईमानी की सत्ता समाज में और प्रखरता से स्थापित नहीं हुई है? तो यही हाल रंगमंच का भी है, क्योंकि रंगकर्मी कोई आसमान से तो टपके नहीं हैं बल्कि वो भी इसी समाज के ही अंग हैं।
भारतीय रंगमंच का इतिहास बहुत पुराना होने के पश्चात भी उसका मूल स्वरुप अभी भी शौक़िया ही है और सामाजिक स्तर पर उसकी स्वीकृति लगभग उपेक्षित वाली ही है। कुछ राज्यों में अपवाद स्वरुप स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन वहां भी आदर्श स्थिति तो नहीं ही है। हिंदी क्षेत्र की मध्यवर्गीय और सामंती मानसिकता आज भी इसे अधिकांशतः नाचनियां - बजनियां का ही पेश मानती है। फिर यह भी धारणा प्रखर रूप से विद्दमान है कि नाटक का कार्य उत्सवधर्मिता और मनोरंजन मात्र है। ऐसे माहौल में वर्तमान में ग्रुप थियेटर का लुप्त होना और लगभग एनजीओ के जैसा व्यक्ति-केंद्रित नाट्य दलों का अस्तिव में आ जाना एक कठिन समस्या है। वहीँ ग्रांट कल्चर भी ज़ोरो पर है। तो अब अमूमन नाटक कम प्रोडक्ट ज़्यादा तैयार हो रहे हैं। ग्रुप थियेटर जहाँ अपने तमाम खूबियों-खामियों के बावजूद एक अनुशासन सिखलाता था वही व्यक्ति केंद्रित रंगमंच जोड़-तोड़ के सहारे अपना काम निकलना और जैसे-तैसे एक नाटक को निपटा भर देना सिखला रहा है। ऐसे में जो थोड़ी बहुत प्रशिक्षण की प्रक्रिया चलती भी थी वह भी लगभग बंद हो गई है। नाटकों की संख्या में तो इज़ाफ़ा हुआ है लेकिन गुणवत्ता घोर रूप से प्रभावित हुई है। प्रोफेशनल्स के नाम पर ऐसी व्यूह रचना देखने को मिलती है जो अपने ही नाटकों में कही बातों को खुद नहीं मानता। ऐसे समय में सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी की बात, शराब के उस बोतल की तरह हो गई है जिसके अंदर बस महक बची है। अपने नए रंगकर्मियों का सही मार्गदर्शन करने का वक्त अब शायद ही किसी के पास है। सबको फोकटिया कलाकार चाहिए। हद तो यह है कि जनवादी संस्कृति के वाहक होने का दावा ठोकनेवाले कई दल भी इस बहती गंगा में किस्मत आजमाने में ज़रा सा भी संकोच नहीं कर रहे हैं।
गत कुछ वर्षों से विभिन्न प्रकार के अनुदानों के नाम पर कुछ पैसा रंगमंच के हिस्से भी आया है लेकिन इस पैसे के आगमन से बुरे और अ-कलात्मक परिणाम ही ज़्यादा देखने को मिला है। यहाँ समस्या पैसे के आगमन का नहीं बल्कि उसके उपयोग का है। ज़्यादा से ज़्यादा पैसा बचा लेने की बेचैनी ने जहाँ एक तरह झूठ और फरेब का खेल रचा है वहीँ रंगकर्मियों का आपसी वैमनस्य भी बढ़ा है। निर्देशक अब एक कलाकार कम दुकानदार ज़्यादा प्रतीत होने लगा है। बही खाते के खर्च के कॉलम में जिस मद में जितना रुपया भरा जाता है उतना गिने-चुने लोग ही खर्च करते हैं। जहाँ तक सवाल नाटक में कार्य कर रहे अभिनेताओं के मानदेय का है तो किसी भी एक नाटक में उनके मानदेय की सही राशि जानकार कोई भिखारी भी उनका उपहास उड़ा सकता है। लगभग यही दशा विभिन्न प्रकार के कुकुमुत्ते जैसे उग आए NGO जैसे सरकारी अनुदानधारी रंगमण्डलों के अभिनेता-अभिनेत्रियों की है। महोत्सव अनुदान की हालात तो यह है कि तीसरे दर्ज़ का इंतज़ाम के साथ वह नाटकवालों पर चंद हज़ार भी बड़े सोच-सोचकर खर्च करते हैं वही उस नाटक में यदि फ़िल्म में काम करनेवाला/वाली कोई कलाकार हो तो फिर लाखों रुपए हंस-हंसके उड़ा दे सकते हैं। हो सकता है कि एक नाटक करनेवाले दल के कुल खर्च के बराबर एक फ़िल्म कलाकार वाले नाट्यदल की शराब का बिल हो।
यदि सबकुछ ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब अभिनेताओं के नाम पर केवल रद्दी मालही बचेगा रंगमंच के पास।अभी के समय का तो क्रूरतम सत्य है कि क्या अभिनेता-अभिनेत्री रंगमंच में अभिनय करते हुए अपना व अपने परिवार का जीवकोपार्जन कर सकता है? इस सवाल का जवाब है नहीं, बिलकुल ही नहीं। कम से कम हिन्दी रंगमंच मे तो नहीं ही।

                                                      आलेख “आजकल” मई २०१६ अंक में प्रकाशित  

हर आत्महत्या एक विद्रोह है : अपने और अपनों के विरुद्ध

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पंजाबी साहित्य के जाने माने नाम और सामाजिक कार्यकर्त्ता सतनाम ने आत्महत्या (?) कर ली। सतनाम जो माओवादी आंदोलन को ठीक से जानने समझने के लिए बस्तर के जंगलों में जाते हैं। वहां उनके बीच रहकर जो अनुभव प्राप्त करते हैं उसे वो अपनी प्रसिद्द किताब जंगलनामा में दर्ज़ करते हैं। आज जंगलनामा - बस्तर के जंगलों मेंअपने तरह की अनूठी रचना है। जंगलनामा - बस्तर के जंगलों मेंमूलतः पंजाबी में लिखी गई थी। जिसका अब तक छः भाषाओं में अनुवाद हो चुका है जिसमें अंग्रेज़ी भी शामिल है। अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद पेंगुइन (शायद) ने किया है। इसी सतनाम ने आत्महत्या कर ली कहीं कोई खबर - नहीं वाह !!! 
एक ऐसे समय में जब एक लेखक को अपनी रचनात्मकता के मृत्यु की घोषणापत्र लिखने को विवश होना पड़ रहा है और किसी व्यक्ति की हत्या केवल इस वजह से कर दिया जाता है कि उसका धर्म और खाना (?) हमसे अलग है, ऐसे वक्त में कोई आश्चर्य नहीं कि सतनाम जैसे लोगों की मौत किसी के लिए कोई अर्थ भी नहीं रखता हो ! वैसे शायद ऐसी आत्महत्याओं (?) का कभी भी कोई महत्व नहीं रहा, वक्त चाहे जैसा भी रहा हो ।
बहरहाल, अलग अलग वजहों से माओवादी आंदोलन पर बहुत से लोगों ने कई किताबें लिखी हैं। कुछ चर्चित हुए, कुछ शायद न भी हुए। सतनाम की किताब जंगलनामा - बस्तर के जंगलों मेंका हिंदी अनुवाद पलटने पर न सतनाम का न कोई परिचय आदि मिलता है, ना तस्वीर और ना ही उनकी महानता का परिचय करता हुआ कोई भूमिका ही। यह पुस्तक उन सच्चाइयों से परिचय करने का एक प्रयास भर कराती है, जिनसे हम या तो अब तक महरूम हैं या फिर गलत जानकारी के शिकार। इस पुस्तक के बारे में हरिपाल त्यागी लिखते हैं – “अपनी अनूठी विषय वस्तु और सहज-सरल लेखन शैली की वजह से तो यह पुस्तक खास अहमियत रखती ही है, लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत आम आदमी की संघर्षपूर्ण ज़िंदगी के प्रति लेखक का लोकहितकारी नज़रिया, इन्साफ और हक की लड़ाई में उसकी जनपक्षधरता, घटनाओं की तह तक पहुंचकर वास्तविक सच्चाइयों को खोजने की गहरी और प्रबल जिज्ञासा व इसके लिए लेखकीय इमानदारी को प्रमुखता देते हुए अभिव्यक्ति का खतरा उठाना। यह महज एक जगह से दूसरी जगह का सफ़र तैय करने और उसका रोचक ढंग से वर्णन कर देना ही नहीं है, बल्कि इससे भी ज़्यादा आदमी से आदमी तक की यात्रा है। एक दिल से दूसरे दिल के जुड़ने को बयान करनेवाली यह बड़े मकसद का सफरनामा है। 
पुस्तक में तआरुफ़ के नाम पर सतनाम लिखते देते हैं कि – “जंगलनामा, जंगलों के बारे में कोई खोज पुस्तक नहीं है। न ही किसी कल्पना में से पैदा हुई, आधी हकीकत और आधा अफ़साना बयान करने वाली कोई साहित्यिक कृति है। यह बस्तर के जंगलों में क्रियाशील कम्युनिस्ट गुरिल्लों की रोज़ाना ज़िंदगी की एक तस्वीर और वहां के कबायली लोगों की जीवन-हालातों का विवरण है, जिसको मैंने अपनी जंगल यात्रा के दौरान देखा। पाठक इसे किसी डायरी के पन्ने कह सकते हैं। 
इसके पात्र हाड़-मांस के बने जीते-जागते इंसान हैं जो अपने सपनों को हकीकत में ढालना चाहते हैं। हुकूमत की तरह से बागी और पाबंदीशुदा करार दी गए ये पात्र नए युग, नई ज़िंदगी को साकार होता देखना चाहते हैं। इतिहास उनके लिए क्या समेटे हुए है, ये तो बननेवाला इतिहास ही बताएगा, लेकिन इतिहास को वो किस तरह मोड़ देना चाहते हैं; उसकी व्याख्या उन्हीं की जुबानी में पेश की गई है। अपने अकीदों के लिए जान की बाज़ी लगाने को तैयार ये लोग किस तरह का जीवन जी रहे हैं, इसका अंदाज़ा पाठक इस किताब को पढ़कर आसानी से लगा सकते हैं। 
अक्टूबर 2003, सतनाम। 
सतनाम यानि गुरमीत - जिनका जंगल में प्रवेश करते ही पांव मोच खा जाता है। 
हमारी आँखे मिलीं, मुस्कुराकर एक दूसरे को स्वभाविक सलाम किया और फिर उससे हाथ मिलाने के लिए उठाने लगा, मगर मेरे पैर ने मेरा साथ नहीं दिया और एक टीस ने मुझे वहीं दबोच लिया।” “क्या हुआ?” “पैर मोच खा गया ! हो गई मुसीबत।मेरे मुंह से निकला। - (जंगलनामा - बस्तर के जंगलों में) जंगलनामा - बस्तर के जंगलों मेंका दूसरा भाग उनके दिमाग में था लेकिन जबतक लिखते तबतक लिखने की प्रेरणा ही खत्म हो चुकी थी। माओवादी आन्दोलनों के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है/था उसने ही सबसे बड़ी भूमिका निभाई उनके मोहभंग में। वैसे भी जहाँ सवाल करने पर दरकिनार कर दिया जाय और तार्किकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नाम पर मूढ़ता की हरी-हरी फसल लहलहाने रही हो, वहां और उम्मीद ही क्या किया जा सकता है. सतनाम जैसे लोग मूढ़ बनने को कतई तैयार नहीं थे और ना ही विचारधारा के नाम पर किसी जंगली पशु के हाथों चरे और लीदे जाने को ही तैयार थे। 
आजादी से मोहभंग के साथ ही, हर प्रकार के शोषण के मुक्त, नई दुनियां बनाने और गढ़ने का सपना दिल में पाले नौजवानों का एक पूरा का पूरा हुजूम 70 और 80 के दशक में भारतीय पटल पर सक्रिय हुआ। किसी की परिणति सुधारवादी अराजकता के साथ समाप्त हो जाती है तो कोई नक्सलबाड़ी आंदोलन को आदर्श मानते हुए दीर्घकालीन लोक युद्ध के रास्ते पर निकल पड़ता है जिसकी आंच 80 के दशक के अंत आते-आते ही अराजक और बोझिल होने लगती है। 90 के दशक तक आते-आते तो यह अराजकता और बोझिलता एक खतरनाक रूप धारण कर लेती है। फिर तो बिना दिमाग लगाए जो धंधे, वसूली और वाद का चोला धारण किए थे - उनकी तो बल्ले-बल्ले हो जाती है लेकिन जो अपने सपने के साथ अभी भी ईमानदारी और संवेदनात्मक रूप से जुड़े होते थे/हैं, वो एक अवसादग्रस्त की श्रेणी में खड़े होने को अभिशप्त हो जाते हैं या कर दिए जाते हैं। 
कोई भी जनवादी और क्रांतिकारी आंदोलन जब अराजकता और वैचारिक दिवालिएपन का शिकार होता है तो संवेदनशील कार्यकर्ताओं और वाद के सच्चे और ईमानदार सिपाहियों का सहारा या तो परिवार बनता है या फिर दोस्तों का जिंदादिल समूह। समाज की संवेदना और संवेदनशीलता पर कुछ भी कहना वक्त ज़ाया करना है। बात को सकारात्मक बनाते हुए बस इतना कहा जा सकता है कि परिवार और दोस्तों का समूह भी इसी समाज का अंग होता हैं। 
उम्र के लगभग आखिरी पड़ाव पर पहुंचे ये लोग पार्टी के लिए अनवांटेड हुए तो मजबूरन वहां से परिवार की तरफ़ लौटे या लौट रहे हैं। और जहाँ तक सवाल मित्र मंडलियों का है तो अमूमन सब ही तो अवसाद के दौर से गुज़र रहे हैं, तो कौन किसका और कब तक और कितना ख़याल रखे! समाज को समाज की चिंता में लगे किसी सामाजिक कार्यकर्त्ता, लेखक, कलाकार आदि की कितनी चिंता है यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं। तो अब सवाल यह है कि इनकी चिंता करे तो कौन? ऐसे समय में अब इनके पास दो ही रास्ते बचतें हैं एक कि बाकि बची ज़िंदगी जैसे-तैसे खींच तानकर गुज़ार दें या फिर -------! 
सतनाम ने दूसरा रास्ता चुना। नहीं, चुना नहीं बल्कि चुनने को मजबूर हुए। ऐसा नहीं कि जो उन्होंने किया उसका अंदाजा किसी को नहीं था। बल्कि समयसमय पर वो यह बात कहते भी थे। लेकिन उनके इस कथन को झूठा साबित करने के लिए जो प्रयत्न किए जाने चाहिए थे वह नहीं हुए शायद ! नतीज़ा सामने हैं सतनाम, कानू सान्याल, गोरख पांडे, सीताराम शास्त्री, रोहित और ना जाने कितने और नामों के रूप में। 
तो क्या सतनाम और इन जैसे लोगों ने आत्महत्या की है? नहीं...। यह हत्या है और उसके जिम्मेवार निश्चित रूप से वे लोग और पार्टियां हैं जिनके कंधे से कंधा मिलाकर इन्होनें समाज परिवर्तन का सपना देखा था। बदले में ये लोग वैचारिक और सैधांतिक मतभेदों के नाम लगभग अलगथलग कर दिये गए और ये लोग या तो अवसादग्रस्तता में जाने को मजबूर हुए या फिर निर्थक हो गए। यह सबकुछ वैचारिकी और सिद्धांत का झगड़ा कम और क्रांति के नाम पर दादागिरी का प्रकोप ज़्यादा है। शायद यह बात थोड़ी अतिशयोक्ति लगे लेकिन ऐसी सारी पार्टियां अब अप्रासंगिकता की कगार पर हैं। यहाँ अब विचार के नाम पर धंधा होता है। सतनाम जैसे लोग शायद इस पतन को बर्दाश्त नहीं कर पाए, और --- । 
अब; सतनाम के नाम पर भाषणबाजी, रोनागाना, कसमें खाना, फूल-माला चढ़ाना, लाल सलाम बजाना - सब होगा; होना भी चाहिए। लेकिन उन सबसे ज़रुरी सवाल यह है कि... आखिर वो कौन सी स्थितियांपरिस्थितियां हैं जिसमें एक कोमल हृदय क्रांतिकारी लेखक के अंदर आत्महत्या का विचार पनपता है? सवाल करना ज़रुरी है ताकि कई और सतनामों को बचाया जा सके। आत्महत्या कायरता नहीं, बल्कि हर आत्महत्या एक विद्रोह है: अपने, अपनों और अपने सपनों के विरुद्ध।
वैसे भी जो विचार या पार्टी या लोग अपने साथियों की भी रक्षा न कर सके, वह देश, दुनियां और समाज का कितना भला करेगा, संदेह है। वहां विचार की प्रमाणिकता और वैज्ञानिकता का दावा एक ढकोसला ही प्रतीत होने लगता है जहाँ चीजें व्यवहार से सही न हों। सनद रहे कि जब कोई सवाल नहीं करता तो सड़क से गुज़रता मुर्दा यह सवाल करता है कि आदमी मरता क्यों है? 
सतनाम ने शायद कोई सुसाइड नोट नहीं छोड़ा। अगर छोड़े भी हैं, तो किसके लिए?
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने कह तो दिया है - 

अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता 

सुनना चाहता हूँ 

एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो । 

अन्यथा 

इसके पूर्व कि 

मेरा हर कथन 

हर मंथन 

हर अभिव्यक्ति 

शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए

उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ 

जो मृत्यु है !
वह बिना कहे मर गया’ 

यह अधिक गौरवशाली है 

यह कहे जाने से – 

कि वह मरने से पहले 

कुछ कह रहा था 

जिसे किसी ने सुना नहीं ।

नाट्य - संस्कृति

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दुनियां में रहो ग़मज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ करके चलो जाके बहुत याद रहो। - मीर तकी मीर

एक ऐसे देश में जहाँ कोस-कोस पर पानी और वाणी बदल जाती है, जहां भिन्न - भिन्न प्रकार के धर्म, समुदाय, वर्ग, जाति, प्रजाति सदियों से विद्दमान है, वहां कोई भी सत्य सर्वमान्य हो ही नहीं सकता। कला - संस्कृति के परिवेश में तो यह बात और भी प्रखरता से लागू होती है। जब समाज का सत्य एक नहीं तो कला का सत्य एक कैसे हो सकता है? फिर कला, संस्कृति और समाज एक दूसरे की संगिनी हो न हो किन्तु एक दूसरे के पूरक तो अवश्य ही हैं। एक दूसरे से प्राण वायु ग्रहण करके ही यह न केवल अंकुरित होती हैं बल्कि पलती, फलती, फूलती और बढ़ती भी है। इसलिए कला का सत्य पहले स्थानीय होगा, तत्पश्चात वैश्विक। वैसे भी कोई भी कला स्थानीय हुए बिना वैश्विक हो ही नहीं सकती।
जहाँ तक सवाल नाट्य संस्कृति का हैं तो उसका जड़ तो समाज के अंदर ही होता है। नाट्य संस्कृति समाज से खाद, पानी और ऊर्जा लेकर ही अमूमन कलात्मक रूप धारण करके दर्शक समाज के सामने प्रस्तुत होती है। समाज में घटित घटनाएँ, विचार, संस्कार आदि न केवल इसके विषय वस्तु बनते हैं बल्कि कहीं परोक्ष तो कहीं प्रत्यक्ष रूप से नाट्यकला और उसकी विषय वस्तु को प्रभावित भी करते हैं। अतिशयोक्ति न होगी कि नाटक यथार्थ जगत की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्वरूपों, घटनाक्रमों और संवेदनाओं में यथार्थ और कल्पना की उचित मात्रा का सहारा लेकर चयनित एक कलात्मक अभिव्यक्ति है, जो केवल यथार्थ जगत तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि तमाम सामाजिक बंधनों को तोड़कर कलात्मक सौंदर्य के खुले आकाश में भी विचरण करता है। कला की दुनियां में ना कुछ वर्जित है और ना ही पूजनीय। न कोई राजा है न रंक। ना कोई स्त्री है न पुरुष। यहाँ कल्पना और यथार्थ दोनों ही का स्थान समान है। यह कल्पना से ज़्यादा काल्पनिक और यथार्थ से ज़्यादा यथार्थवादी सामाजिक वर्जनाओं के अतिक्रमण का एक ऐसा स्थान है जो न केवल यह बताता है कि क्या सही और क्या गलत है बल्कि यह भी जतलाने की हिमाकत करता है कि बहुतेरे सत्य सही – गलत के परे और प्राकृतिक व संवेदनात्मक भी है। प्रसिद्द नाट्य चिन्तक बर्तोल्त ब्रेख्त कहते हैं – “हमारे रंगमंच के लिए निहायत ज़रुरी है कि वह समझ से पैदा होनेवाले रोमांच को प्रोत्साहित करे और लोगों को यथार्थ में परिवर्तन करने से प्राप्त होनेवाले आनंद का प्रशिक्षण दे। हमारे प्रेक्षक सिर्फ यह नहीं सुनते रहें कि प्रोमेथियस को कैसे मुक्त किया गया, बल्कि वे स्वयं को भी मुक्त करने के आनंद का प्रशिक्षण दें। हमारे रंगमंच से उन्हें आविष्कारक तथा खोजकर्ता को अनुभव होनेवाले तमाम संतोष और सुख के अनुभव का प्रशिक्षण मिलना चाहिए; मुक्तिदाता द्वारा अनुभव की जानेवाली तमाम विजयों के अनुभव का प्रशिक्षण मिलना चाहिए।”
कला का एक पांव धरातल पर होता है वहीं दूसरा कल्पना के असीम संभावनाओं में। इसीलिए तो कहा जाता है कि कलाकार बनने के लिए अनुभव को पकड़ना, उसे पर अधिकार करना, उसे स्मृति में रूपांतरित करना, और स्मृति को अभिव्यक्ति में, वस्तु को रूप में रूपांतरित करना आवश्यक है। एक कलाकार के लिए भावना और यथार्थ जगत ही सबकुछ नहीं है, उसके लिए निहायत ही ज़रूरी है कि वह अपने काम को जाने और उसमें आनंद ले; उन सारे नियमों को समझे, उन तमाम कौशलों, रूपों और परिपाटियों को समझे, जिसमें प्रकृति रूपी चंडिका को वश में किया जा सके और कला के अनुशासन के अंतर्गत लाया जा सके। वह आवेग जो कलाप्रेमी को ग्रस लेता है, सच्चे कलाकार की सेवा करता है। कलाकार उस आवेग रूपी वन्य पशु के हाथों क्षत - विक्षत नहीं होता, बल्कि उसे वश में करके पालतू बनाता है।
भारतीय सन्दर्भ में यदि नाट्यकला की बात करें तो ऐसे तो नाटकीय तत्वों की शुरुआत तो पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति के के साथ ही शुरू हो गया होगा किन्तु यदि हम नाटक के आज के स्वरूप की बात करें तो जिस पुस्तक की सबसे अधिक प्रतिष्ठा आज भी है उसे हम नाट्यशास्त्र के नाम से जानते हैं। विश्वासों और मान्यताओं को यदि छोड़ दिया जाय तो एतिहासिक रूप से नाट्यशास्त्र की रचना कब हुई इसके बारे में कोई प्रामाणिक और वैज्ञानिक जानकारी नहीं है, बल्कि अलग-अलग विद्वानों का मत अलग-अलग है। माना यह जाता है कि ईसा से 200 वर्ष पूर्व से 200 वर्ष पश्चात् तक इसकी रचना प्रक्रिया चली। मतभेद इस बात पर भी है कि इसे किसी एक व्यक्ति ने लिखा या अलग-अलग काल खण्डों में अन्य लोग इसमें अध्याय जोड़ते गए। हालांकि ऐसा दावा भी है कि भरतमुनि ईसा पूर्व 322 से लेकर 500 के बीच पैदा हुए, उनका जन्म भाद्र पूर्णिमा में काशी में ईसा पूर्व 463 में हुआ, काशी में ही उन्होंने नाट्यशास्त्र की रचना की, लेकिन इन सब मान्यताओं में विश्वास ज़्यादा है प्रमाणिकता कम।
नाट्यशास्त्र का अध्ययन करते व इसके रचना के कालखंड और बृहदता को मद्देनज़र रखते हुए ऐसा सहज ही विश्वास करना उचित प्रतीत नहीं होता कि इसकी रचना किसी एक व्यक्ति ने की होगी। विद्वानों का ऐसा मत भी है कि भरत किसी व्यक्ति नहीं बल्कि पद का नाम है। किन्तु यदि हम यह मानकर चलते हैं कि नाट्यशास्त्र की रचना ब्रह्मा (देवता) ने की है तो फिर तर्क की गुंजाईश ही कहाँ है? क्योंकि धर्म के मामले में तर्क नहीं बल्कि विश्वास का साम्राज्य चलता है।
कला का उत्कृष्ट रूप है काव्य और उत्कृष्टतम रूप है नाटक। नाट्यशास्त्र एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें काव्य, संगीत, नृत्य, शिल्प तथा तमाम ललित कलाओं का कोष है। इस अकेले ग्रंथ में नाट्य विषयक विवरण जितनी समग्रता के साथ प्रस्तुत हुआ है वह किसी भी अन्य भारतीय ग्रंथ में तो दुर्लभ है ही, संसार के किसी अन्य ग्रंथ में भी प्राप्त नहीं। प्राचीन काल में इसे नाट्यवेद नाम से भी जाना जाता था। वैसे नाट्यशास्त्र का अध्ययन करने पर यह बात भी साफ़-साफ़ पता चल जाता है कि यह नाटककला के माध्यम से पूजापाठ का शास्त्र भी है। कब, कहाँ, किस देवी-देवता की पूजा होनी चाहिए इसकी भी बृहद चर्चा इस शास्त्र में है। नाट्यशास्त्र की रचना का कारण भी नाट्यकला के माध्यम से धर्मविमुख हुए लोगों को धार्मिक शिक्षा देना ही था। इसीलिए इसे पंचमवेद भी कहा जाता है। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि यह नाट्यकला का धार्मिक और राजनीतिक इस्तेमाल का भी शास्त्र है। कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि चूंकि नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति चारों वेदों से हुई है इसलिए इसे उपवेद कहा जा सकता है, वेद नहीं। अब चार वेदों के होते हुए उसके अंशों को निकालकर नाट्यशास्त्र नामक पांचवें वेद की रचना की ज़रूरत क्यों आन पड़ी, यह बात आसानी से नाट्योत्पत्ति नामक अध्याय से समझा जा सकता है।
नाट्योत्पत्ति नामक इस अध्याय में भरतमुनि से आत्रेय आदि ऋषियों द्वारा नाट्यवेद के विषय में जिज्ञासापूर्वक प्रश्न किये गए कि नाट्यवेद कि उत्पत्ति कैसे हुई? किसके लिए हुई? इसके कौन – कौन से अंग हैं? इसकी प्राप्ति के उपाय तथा इसका प्रयोग कैसे हो? जवाब में भरतमुनि ने बताया – “नाट्यवेद की उत्पत्ति ब्रह्मा ने किया। सतयुग बीत चुका था, वैवस्वत मनु का त्रेता युग प्रारंभ हो चुका था। प्रजाजन काम, लोभ, इर्ष्या, क्रोध से अभिभूत हो चुकी थी। तब महेन्द्र आदि देवताओं ने ब्रह्मा से निवेदन किया कि हम ऐसा मनोविनोद का साधन चाहतें हैं जो देखने और सुनने के योग्य हो। आप सभी वर्गों  के लिए उपयोगी एक पांचवे वेद की और रचना कीजिये। तब चारों वेद का स्मरण कर ब्रह्मा ने पंचमवेद अर्थात नाट्यशास्त्र की रचना की। जो धर्म, अर्थ, यशप्रदाता, उपदेश, सभी कार्यों का पथ प्रदर्शक, सभी शास्त्रों के अर्थ से परिपूर्ण तथा सभी शिल्पों को प्रदर्शित करने वाला था। इसमें ऋग्वेद से पाठ्यांश, सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से अभिनय एवं अथर्ववेद से रस को लेकर प्रणयन किया।” ब्रह्मा के कथनानुसार नाट्य में दानवों और देवताओं दोनों के अच्छे बुरे कर्मों ही नहीं बल्कि तीनों लोकों के चरित्रों का समवेश होगा और इसमें कहीं धर्म, कहीं क्रीड़ा, कहीं राजनीति, कहीं अर्थनीति, कहीं श्रम, कहीं हास्य, कहीं युद्ध, कहीं काम तो कहीं वध को दिखाया जायेगा। नाट्य में सारी विद्याओं, कलाओं, योग सहित सांसारिक सुख-दुःख का समावेश होगा।
तो क्या यह धार्मिक संस्कृति के फैलाव का भी शास्त्र नहीं है? परम्पराशील नाट्य नामक पुस्तक में जगदीशचंद्र माथुर लिखते हैं “भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र को पंचम वेद के रूप में प्रतिष्ठा करते हुए तीन बातों पर ज़ोर दिया। एक तो यह कि चूंकि शुद्र तथा वन्य जातियों के लोग वेद-पाठ से वंचित थे, इसलिए ऐसे वेद की आवश्यकता पड़ी, जो सभी वर्गों की जनता के लिए उपादेय हो। दूसरी बात यह कि नाट्य में ऋग्वेद से पाठ, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय एवं अथर्ववेद से रस का संग्रह किया। भरत की तीसरी स्थापना यह थी कि नाट्य सभी प्रकार की कलाओं, शिल्प तथा ज्ञान से संपन्न होने के कारण पंचम वेद कहलाने योग्य है।” अब इसे पंचमवेद कहें या उपवेद लेकिन नाट्यशास्त्र को आज तक वह स्थान प्राप्त नहीं है जो अन्य चारों वेदों को है।
नाट्यशास्त्र के अध्ययन से एक बात साफ़ हो जाती है कि इसका प्रयोग स्वंय देवताओं ने नहीं किया बल्कि इसे भरतमुनि और अप्सराओं से करवाया। नाट्यशास्त्र की रचना करने के पश्चात ब्रह्मा में इंद्र से देवताओं द्वारा इसका प्रयोग करने को कहा। इंद्र ने आग्रह किया कि “देवताओं में अभिनय करने का समर्थ नहीं है। इसलिए आप वेदों को जानने वाले और उत्तम चरित्र के ऋषियों से नाट्यशास्त्र का प्रयोग करवाईए।” तब ब्रह्मा ने भरत को बुलाकर यह काम सौंपा। भरत अपने सौ पुत्रों (शिष्यों) के साथ नाट्यशास्त्र के प्रयोग में लग गए। नाट्य में सौंदर्य और श्रृंगार को जोड़ने हेतू ब्रह्मा ने चौबीस अप्सराओं का नाट्य में समवेश कराया। इस प्रकार देवासुर-संग्राम नामक नाट्य तैयार हुआ। इस नाटक में देवताओं की विजयी गाथा व असुरों को खलनायक के रूप में चित्रण किया गया था।
महाजन जिधर जाएँ, सही रास्ता वही है नामक वाक्य को माननेवाला समाज में सामाजिक स्तर पर बिलकुल यही स्थिति आज भी विद्दमान है। यहाँ आज भी नाटक करनेवाले कम हैं और उन्हें नचनियां – बजानियाँ नामक शब्दों के मार्फ़त उपहास का पात्र भी बनाया जाता है। ऐसे परिवारों की संख्या अपवाद स्वरुप ही है जो अपने घर के लड़के – लड़कियों को खुशी से नाटक करने की छूट देते हैं। समाज में आज भी भरतपुत्रों की स्थिति किसी अछूत जैसी ही है, जिसे कुछ आरक्षण और दया तो मिलती है लेकिन अमूमन उचित सम्मान और स्थान नहीं। वैसे आधुनिक नाटक न जाने कब का नाट्यशास्त्र की अवधारणाओं और उद्देश्यों से आगे निकल चुका है। अब वह केवल धार्मिक प्रचार प्रसार का माध्यम न होकर आम आवाम के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, मानसिक आदि सवालों से ही दो-चार नहीं हो रही है बल्कि उसका बौधिक परिवेश भी तैयार करने की फिराक में रहता है। इसके नायक - खलनायक अब देवता और दानव नहीं हैं बल्कि हार ओर मानव ने कब्ज़ा कर लिया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे आज का नाटक किसी भी अमानवीय सत्ता और विचार को चुनौती देने का कलात्मक मिशन पर लग गया हो। हालांकि इसकी शुरुआत की झलक नाट्यशास्त्र का पृथ्वी पर अवतरण नामक कथा में ही दिखाई पड़ जाती है जब एक हास्य भरा प्रहसन देखकर एक ऋषि क्रोधित हो जाते हैं और उन्होंने भरतपुत्रों को शाप देते हुए कहते हैं - “भरतपुत्रों। तुम्हारा यह हास्य से भरा हुआ प्रहसन, भद्दा, क्रूर और अमंगलकारी है। तुम लोग नाट्यवेद के ज्ञान के कारण इतने अहंकारी हो गए हो कि अब तुम ऋषियों का भी अपमान कर रहे हो इसलिए भरतपुत्रों कालान्तर में तुम्हारा वेद ज्ञान नष्ट हो जाएगा। ऋषियों और ब्राह्मणों की सभा में तुम्हारा सम्मान नहीं होगा। जो तुम्हारे वंश में जन्म लेगा वह भी अपवित्र - आचरणहीन माना जाएगा। तुम्हारी संतान नर्तक-नाचनेवाली कहलाएगी जो दर्शकों पर आश्रित होकर, अपना जीवन यापन करेगी।” भरतपुत्रों ने शयद इस नाटक में ऋषियों को हास्य और व्यंग्य का पात्र बनाया था। बहरहाल, इस शाप को सुनकर भारतपुत्र ने आत्महत्या करने का विचार किया तो भरत ने अपने पुत्र को प्रयत्नपूर्वक अपने शिष्यों और अप्सराओं को नाट्यवेद की शिक्षा देने और नाट्य के विकास कार्यरत होकर ही इस शाप से मुक्ति की बात समझाई। ऐसा प्रतीत होता है जैसे भरतपुत्र आज भी अपने इस निहायत ही ज़रुरी पर लगे हों और आज के समाज के प्रतिष्ठित ऋषि और ब्राहमण आज भी शाप पर शाप दिए जा रहे हैं।
नाटक को अंग्रेज़ी में प्ले कहते हैं जिसका हिंदी में अर्थ होता है खेल। खेल अर्थात एक ऐसी चीज़ जिसमें ना केवल शारीरिक एकाग्रता की ज़रूरत होती है बल्कि दिल, दिमाग और मन की एकाग्रता भी अति आवश्यक पहलू है। वैसे भी कोई भी खेल केवल शारीरिक ताकत और उर्जा के सहारे कुशलतापूर्वक नहीं खेला जाता है। लेकिन समाज में प्रचलित कथनों से खेल के प्रति समाज के नज़रिए का पता चलता है। यहाँ आज भी बात – बात में नाटक मत करो, बहुत नौटंकी किया जैसे वाक्य बोले जाते हैं वहीं “पढ़ोगे, लिखोगे, बनोगे नवाब! खेलोगे, कूदोगे होगे खराब!!” जैसे वाक्य भी लोकप्रिय हैं। यहाँ पढ़ाई, लिखाई से विद्वता का कोई सम्बन्ध नहीं है बल्कि अमूमन लोग उतनी ही पढ़ाई करने की सलाह देते हैं जितने से कि अच्छी नौकरी प्राप्त की जा सके। अच्छी नौकरी – पेशा का अर्थ नवाबी से जोड़ना सामंती मानसिकता का परिचायक हो न हो लेकिन “ज़्यादा पढ़ने से दिमाग खराब हो जाता है” जैसी मान्यता तो है ही। क्योंकि विद्या ज्ञान का मार्ग दिखता है और ज्ञान सत्य का। एक बार जिसे सत्य का आभास हो गया फिर उसके लिए तो यह जगत मिथ्या ही है। बहरहाल, प्रचलित मान्यताओं के अनुसार पढ़ाई - लिखाई करने का अर्थ सरस्वती के माध्यम से लक्ष्मी पर अधिकार प्राप्त करना है। ऐसा ज्ञान जिससे धन की प्राप्ति न हो पागलपन की श्रेणी में रखा जाता है, ऐसे समय और समाज में कला और कलाकार जैसी पागलपन भरी राह की प्रतिष्ठा कितनी होगी, यह बात अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी जब भौतिकता सुख – सुविधाएँ ही जीवन हो जाए तब मानसिकता भौतिकता का गुलाम बनकर रह जाती है और भौतिकता को ही सफल जीवन का पर्याय मान लिया जाता है। यहाँ आध्यात्मिक (धार्मिक नहीं) और मानसिक विकास फालतू और भोग - विलास की वस्तु मान लिया जाता है।
ऐसे समय में कलाकार बनने और वह भी नाटक का कलाकार बनने का निर्णय, और वह भी ईमानदार और सच्चा कलाकार बनने का निर्णय लेना दहकते अंगारों से खेलने के समान है। लेकिन हर काल में कुछ विरले होते हैं जिन्हें अंगारों से ही खेलने में मज़ा आता है। वैसे भी आधुनिक नाट्य – संस्कृति तमाम दुनियावी मान्यताओं का अतिक्रमण करता है, वह न जाति मानता है, न धर्म और ना ही किसी अन्य प्रकार का भेद भाव। यहाँ सब केवल और केवल कलाकार हैं और कला की उत्पत्ति ही इनका धर्म है। ऐसी संस्कृति का समर्थन करने की हिमाकत कोई भी वर्ग – वर्ण में विभाजित, ईश्वरवादी, सामंती और गुलाम मानसिकता से ग्रसित समाज कर ही नहीं सकता बल्कि उल्टे मौके – बे-मौके उसका नुकसान पहुँचाने और मजाक बनाने से कतई परहेज़ नहीं करेगा। आए दिन कलाकारों पर हमले होना और उन्हें शारीरिक और मानसिक हिंसा का शिकार बनाना, कलाकारों को समाज से अलग मानना, कला और कलाकारों की कोई परवाह या चिंता न करना, समाज के इसी सामंती और यथास्थितिवादी नज़रिए को दर्शाता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम अनुभूतियों, ज्ञान और विवेक को विकृत करनेवाले अति-असंवेदनशील और क्रूर युग में जी रहे हैं अथवा जीने को अभिशप्त हैं। यहाँ किसी नेता की छींक राष्ट्रीय समाचार बन जाती है और किसी कलाकार और किसान की मौत केवल एक दुर्घटना मात्र मान लिया जाता है। कोई सुपरस्टार किसी गुनाह में जेल जाने के मुहाने पर पहुंचाता है तो पूरा देश उसके लिए दुआ मांगने लगता है लेकिन वहीं किसी अच्छे – सच्चे कलाकार का खाली पेट किसी की चिंता का कारण नहीं बनता। ऐसे समय में यदि यह सच है कि कला और संस्कृति समाज का आइना होता है तो उतना ही सच यह भी प्रतीत होता है कि इस आईने पर सदियों पहले ही कालिख पुत गई है। बिना इसकी गहन सफाई के इस आईने में कोई भी अश्क नहीं देखा जा सकता। लेकिन बाज़ार का अंधा खरीदार बना आदमी अश्क – वश्क की नहीं बल्कि माल, जेब और भौतिक सुख – सुविधाओं की चिंता करता है। वैसे भी आज तो पुरी दुनियां हीं बाज़ार बनने को बैचैन है और राजनीति व राजनीतिक पार्टियां इस बाज़ार में ग्राहक पटाने और अपने कारपोरेटिया मालिकों को ज़्यादा से ज़्यादा सुविधा में व्यापार करने देने और सत्ता सुख का आनंद प्राप्त करने की अंधी गली के रूप में परिवर्तित हो गईं हैं। इन्हें न प्रजा की चिंता है, न तंत्र की। कला और संस्कृति तो इनके लिए आज भी एक अबूझ पहेली ही है। धूमिल ने कुछ यूं कहा था  – न प्रजा है, न तंत्र है। आदमी के खिलाफ़, आदमी का षडयंत्र है। इस षड्यंत्र से बाहर निकलने में मदद करने का कार्य करता है कला। क्योंकि, कला और संस्कृति ही मानव जीवन के मूलाधार हैं। कला इसलिए ज़रुरी है कि आदमी दुनियां को समझ सके और इसे और ज़्यादा सुन्दर, कोमल, तार्किक और संवेदनशील बना सके। बिना इन सबके कोई भी दुनियां मानवीय हो ही नहीं सकती होगी।
वर्तमान समय में भारतीय समाज का मूल चरित्र अर्ध – सामंती और अर्ध – ओपनिवेशिक है, जिसमें यदा कदा प्रजा, प्रजातंत्र, जनवाद, समाजवाद, साम्यवाद, प्रगतिशीलता, बौधिकता, मूर्खता आदि - इत्यादि की खिचड़ी पकती रहती है। ऐसे समाज में कला या तो बे-सिर पैर के मनोरंजन के रूप में लोकप्रिय होती या की जाती है अथवा एक संदिग्ध, कुत्सित और तुच्य चीज़ मान ली जाती है। वैसे भी पूंजीवाद मुक्त बाज़ार का पोषक होता है जिसमें उद्देश्यपूर्ण कला का स्थान “गैरज़रूरी और बिना किसी लाभ वाली” चीज़ के रूप होती है। वही सामंती मानसिकता चीज़ों का उपभोग तो करती है लेकिन केवल उनका जो बिना श्रम और दिमाग लगाए हासिल किया जाय।
कला और कलाकार का एतिहासिक अध्ययन करने से एक बात जो साफ़ – साफ़ समाज में आती है वो यह कि इसे सदा ही प्रश्रय की ज़रूरत पड़ती रही है। भारतीय सन्दर्भ में कुछ अपवादों को छोड़कर ऐसी स्थिति कभी नहीं बनी कि कोई कला अपनी बदौलत अपने कलाकारों का भरण – पोषण करता हो। कला कभी उत्पाद बन ही नहीं सका और जो बना उसमें कला का अंश कम से कम और बिना सिर – पैर का “खतरनाक” मनोरंजन ज़्यादा हावी रहा। कभी यह प्रश्रय जनता ने दिया, कभी राजाओं ने, कभी धार्मिक संस्थानों ने तो कभी सरकारों ने। लेकिन इन प्रश्रयों ने कला और कलाकार के लिए कोई आदर्श माहौल बनाया हो, ऐसा नहीं है। प्रजतंत्र के आगमन के साथ तो स्थिति यह है कि प्रजातंत्र के सबसे बड़े प्रहरी के रूप माने जानेवाले विभिन्न दल और उसके नेतागणों की प्राथमिकता में ना कभी कला रही और ना ही संस्कृति। इसका कारक भी समाज ही है। यह पार्टियां और उसके नेता भी इसी समाज के अंग हैं और जब समाज ही अपने कला – संस्कृति के प्रति गंभीर नहीं है तो कोई पार्टी और नेता क्यों हों? कालांतर में कला और संस्कृति के नाम पर जो कुछ हुआ उसका सगूफा ना जाने कब का फूट चुका है और वर्तमान में कला और कलाकार को प्रश्रय देने के नाम पर जो सरकारी योजनाएं और अनुदान चलाए या दिए जा रहे हैं वह प्रक्रिया ही इतना अनैतिक और पंगु बनाने के विष से परिपूर्ण हैं कि उससे किसी कला और कलाकार को आज़ादीपूर्वक साँस लेने जीने की मिलेगी, इसमें संदेह है। बल्कि यहाँ तो ऐसा बंदरबांट मचा है कि जिसकी जितनी पहुँच, उसका पलड़ा उतना भरी। चारों तरफ़ खानापूर्ति का मौहौल है। हो सबकुछ रहा है लेकिन निरुद्देश्य और लगभग बकवास।
इन सब बातों के बावजूद कला और संस्कृति के क्षेत्र में जूनून और जुनूनी लोगों की भी कोई कमी नहीं, जो तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए कार्यरत और संघर्षरत हैं। क्योंकि दुनियां चाहे जैसी भी हो वह केवल बाज़ार और खरीदारों की तो कभी नहीं रही। कुछ लोग हमेशा रहे ही जो इस सारे आडम्बर पर ठहाका लगाते रहे। कला ज़रुरी है, इसलिए कि आदमी दुनियां को समझ सके और उसे बदल सके। कला के अंदर दुनियां बदलने की ताकत हो - न हो, लेकिन इसके बिना किसी भी मानव समाज का काम न आजतक चला है न चलेगा। ज्याँ कॉक्टो के शब्दों को उधार लेकर कहा जा सकता है कि नाटक के बिना किसी भी मानवीय समाज काम नहीं चल सकता, लेकिन मैं यह नहीं बता सकता कि उसका काम क्या है।
मनुष्य प्राकृतिक और प्रवृतिगत रूप से उस व्यक्ति से बढ़कर कुछ और भी है, जो वह बना दिया गया है। कला व्यक्ति के मैं को समष्टिगत अस्तित्व से जोड़ता है और उसकी वैक्तिकता को सामाजिकता से। एक ऐसे समय में जब तमाम ताकतें व्यक्ति को अकेला, स्वर्थी और आत्मकेंद्रित बनाने की साजिश में लगीं हैं वैसे समय में किसी भी सार्थक सामूहिक कला की ज़रूरत और ज़्यादा बढ़ जाती है। किन्तु यह क्रिया तबतक अपने आगाज से अंजाम तक नहीं पहुँच सकता जबतक सामाजिक स्तर पर इसकी ज़रूरत न महसूस किया जाय। हाथ पर हाथ धरे ऐसे समय का इन्तजार करने से बेहतर है उसकी दिशा में अपने कदम बढ़ाए जाएँ। एक सुदृढ़ और निश्चय भरा – सार्थक कदम। वैसे भी बिना कला, संस्कृति और ज्ञान के मनुष्य और मनुष्यता एक कदम आगे और दस कदम पीछे चलता है। एक ऐसे समय में जब किसी लेखक को अपनी मृत्यु की घोषणा करना पड़ता है और वो अपने पाठकों और प्रकाशकों से अपनी किताबें जला देने को कहने पर मजबूर किया जाता है, किसी व्यक्ति की निर्मम हत्या केवल इसलिए कर दी जाती है कि उसका धर्म और खान-पान अलग है, सत्ता का सर्वोच्य संस्थान अहम् की भेंट चढ़ जा रहा है और बाकि सलाम बजा लाने को अभिशप्त है, रचना और रचनाकार, कला और कलाकार या तो हासिए पर धकेले जा रहे हैं या फिर मानसिक गुलाम की श्रेणी में पंक्तिबद्ध हो जाने को अभिशप्त हैं, हवा और सुनामी चलाकर सरकारें बनाई और गिराई जाने लगी हैं; ऐसे समय में सार्थक और सृजनात्मक कला और कलाकार का महत्व और भी बढ़ जाता है। अरस्तु ने ठीक ही कहा था - नाटक का काम भावनाओं को परिशुद्ध करना है, आतंक और दया पर विजय प्राप्त करना है, ताकि ओरेस्टिज अथवा ईडिपस से तादात्म्य करनेवाला प्रेक्षक उस तादात्म्य से मुक्त हो सके और भाग्य की अंधी कारगुज़ारियों से ऊपर उठ सके।

आलेख मुन्ना कुमार पाण्डेय द्वारा सम्पादित पुस्तक "संस्कृति : विविध परिवेश"में संलग्न

फुलसुंघी - पाण्डेय कपिल का भोजपुरिया उपन्यास

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“बाबुसाहेब! फुलसुंघी के जनीले नू? उ पिंजड़ा में ना पोसा सके । ऊ एगो फूल के रस खींचके चल देले दोसरा फूल का ओर । हम त तवायफ के जात हईं । हमरी काम फुलसुंघी के लेखा एगो जेब से पैसा खींचके दोसर जेब के ओर चल दिहल ह । (बाबुसाहेब, फुलसुंघी को जानते हैं न? वो पिंजड़ा में नहीं पाली जा सकती । वो एक फूल से रस चूसकर दूसरी फूल की ओर चल देती है । हम तवायफ हैं । हमारा काम भी फुलसुंघी जैसा ही एक जेब से पैसा खींचकर दूसरी जेब की ओर चल देना है ।)  – फुलसुंघी”

“फुलसुंघी” भोजपुरी संस्थान, 2 ईस्ट गार्डिनर रोड़, पटना 800001 से सन 1977 में प्रकाशित एक भोजपुरी उपन्यास है । इसके पात्र एतिहासिक तो हैं लेकिन लेखक पाण्डेय कपिल एतिहासिकता और घटनाओं की विश्वसनीयता का दावा पेश नहीं करते । पात्र और स्थान यथार्थ जगत के तो हैं लेकिन उपन्यास में रचनात्मक कल्पनाएँ भी हैं । व्याकरण की भाषा में इसे मिश्रित यानि प्रसिद्ध तथा काल्पनिक कथा वस्तु को मिलाकर लिखा गया उपन्यास कहा जा सकता है । वैसे भी इतिहास की पढ़ाई इतिहास की किताबों से ही करनी चाहिए, उपन्यास, फिल्मों, कविता और कहानियों से नहीं; क्योंकि यहाँ रचनात्मक कल्पनाओं का स्थान हमेशा ही विद्दमान रहता है । वैसे इतिहास की किताबें भी पक्षधरता की मिलावट से परे है ऐसा दावा बहुत विश्वास के साथ तो नहीं ही किया जा सकता है ।
उपन्यास के पहले ही पन्ने पर लेखक लिखते हैं - “फुलसुंघी” के बारे में कुछ विशेष कहे के नइखे । कहे के एतने भर बा कि एह उपन्यास के कथावस्तु कवनो इतिहास ना ह, एकर कवनो पात्र यथाचित्रित वास्तविक पात्र ना ह । एक में संदेह ना कि ढेला (बाई), महेंदर मिसिर, हलिवंत सहाय आ रिवेल साहेब सांचो के हो चुकल बाड़े । बाकिर एह चरित्रन के कवनो प्रामाणिक ब्योरा सामने नइखे रहल, आ एह लोगन के किस्सा किवदंतीयन से भरल बा । अइसन कुछ किवदंतियन से सह पाके, एक उपन्यास के कथावस्तु कल्पना से खड़ा कइल गइल बा । बाकिर, एक उपन्यास में, एगो काल-विशेष के, क्षेत्र-विशेष के आ समाज विशेष के जवन तस्वीर उरेहल गइल बा, उ जरुर सही बा । – पाण्डेय कपिल 26 जनवरी 1977” (“फुलसुंघी” के बारे में कुछ विशेष नहीं कहना है । कहना केवल इतना है कि इस उपन्यास का कथावस्तु इतिहास नहीं है, इसका कोई भी पात्र पुरी तरह से वास्तविक नहीं है । इसमें कोई सन्देश नहीं कि ढेला (बाई), महेंदर मिसिर, हलिवंत सहाय और रिवेल साहब वास्तविकता में भी हो चुके हैं । लेकिन इन चरित्रों का कोई प्रामाणिक ब्योरा सामने नहीं था, वैसे भी इन लोगों के किस्से किवदंतियों से भरा हुआ है । इन्हों किवदातियों के सहारे इस उपन्यास की कथा वस्तु टिकी है । बाकि एक उपन्यास में, एक काल विशेष के, क्षेत्र विशेष के और समाज विशेष के जो तस्वीरें अंकित हैं, वो ज़रूर सच हैं । – पाण्डेय कपिल 26 जनवरी 1977)
हमारे यहाँ इतिहास अंकित करने जैसे महत्वपूर्ण काम में शायद आलस्य का प्रकोप ज़्यादा है, इसीलिए बड़े से बड़े चरित्रों के बारे में अनुमान और किवदंतियां ज़्यादा हैं – सत्य कम । इसके पीछे मौखिक परम्परा का भी भरपूर योगदान है । हम बोल-बोलके महाकाव्य रच देते हैं लेकिन बात यदि अंकित-टंकित करने की आ जाए तो हाथों को लकवा मार जाता हैं । अब सुनने-सुनाने की परम्परा में समस्या यह है कि सुनानेवाला कथा में अपने हिसाब से जोड़-तोड़ करता है और सुननेवाला अपनी बुद्धि और विवेक से उसे ग्रहण करता है; कुछ याद रहता है, कुछ याद नहीं भी रहता । फिर जब सुननेवाला सुनी हुई कथा को अपने सुनाता है तो बीच-बीच में टूटे तारों को अपनी क्षमता, मान्यता और स्वार्थ से जोड़ता, तोड़ता, मरोड़ता है । इस प्रकार सत्य में कल्पना का समावेश होता है और इतिहास में गप्प का मिश्रण और फिर पैदा होतीं हैं सत्य की चाशनी से सनी किवदंतियां । वैसे भी किसी बड़े चरित्र के साथ चमत्कार न जुड़े तो हमें मज़ा ही नहीं आता । तभी तो विद्यापति के साथ उगाना (शिव) की कथा जुड़ता है । कुछ कुछ ऐसा ही इस उपन्यास के साथ भी है । हम खोजने निकलें तो इस उपन्यास के पात्रों की सच्ची कहानियां का अता-पता शायद ही कहीं मिले; और जो मिले उसमें कितना सत्य और कितना गप्प है, बता पाना शायद बहुत ही मुश्किल है । वो चाहें ढेलाबाई हों, महेंदर मिसिर हों, रेवल साहेब हो या कोई अन्य चरित्र ।
महेंदर मिसिर का जाली नोट छापने और गिरफ्तार होने की भी (दांत) कथा है लेकिन यहाँ देशभक्ति वाला एंगल नहीं है । यहाँ महेंदर मिसिर एक कलाकार मात्र हैं, महानता के बोझ से लदे पूर्वी गायकी और “मिसिर” सरमौर महेंदर मिसिर नहीं। यहां वो परिस्थियों से लड़ते कम, भागते हुए ज़्यादा पाए जाते हैं - कुछ-कुछ आवारा मसीहा की तरह । अब पाण्डेय कपिल की लेखनी में कितना हक़ीक़त और कितना फ़साना है यह तो कोई पारखी ही बता सकता हैं।
यह सत्य है कि ये लोग थे, लेकिन कैसे, क्यों कहाँ, कब, किस प्रकार आदि पर मामला आके फंस जाता है । बहरहाल, पात्रों को छोड़ भी दिया जाय तो भी इस उपन्यास के लेखक पाण्डेय कपिल के बारे भी साहित्य जगत लगभग अनभिग्य ही है, जबकि यह अभी हाल ही की बात है । तो सवाल यह बनता है कि क्या साहित्य में भी चर्चित होने के लिए किसी खेमे का खूंटा पकड़ना ज़रुरी है? अब इस सवाल का जवाब साहित्य के विद्वान ही दें तो बेहतर होगा ।
कुल 112 पन्ने का यह उपन्यास अपने अंदर एक लंबा कालखंड और कई पात्रों की जीवनयात्रा समेटे हुए बड़ी ही तीब्र गति से आगे बढ़ता है, कभी-कभी पीछे की ओर (फ्लैश बैक) भी आता है ताकि कई सारी स्थितिओं-परिस्थियों और घटनाक्रमों का अर्थ स्पष्ट हो जाएँ । यह पीछे आना एक रणनीति है, बिलकुल “दो कदम आगे और एक कदम पीछे” की तरह । अब यह स्पष्टता या रणनीति इतिहास जनित है या लेखकीय टिपण्णी; यह एक शोध का विषय है ।
“फुलसुंघी” गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी सामंती व्यवस्था का आडम्बर, उससे मोहभंग के साथ कोठा से लेकर लोकसंगीत पूर्वी आदि में लिपटी एक व्यावहारिक गाथा की तरह है; जहाँ एक जेब से दूसरी जेब तक की आज़ादी और स्वछंदता भरी यात्रा करनेवाली ढेलाबाई अन्तः कैद हो जाती या कर दी जातीं हैं । रवेल साहेब और हलिवंत सहाय का तमाम भौतिक सुख सुविधाओं से मोहभंग हो जाता है, महेंदर मिसिर आवारगी को अभिशप्त होते हैं और अन्य चरित्र कई अन्य नियति को प्राप्त होते हैं । इस बिलकुल पतले से उपन्यास की टहनियाँ और जड़ें किसी बरगद की तरह फैली हैं, जहाँ इसके हर चरित्र का क्रमिक विकास है; केसरबाई, मीनाबाई, राम नारायण मिसिर, बुलकान, मुंशी शिवधारीलाल, मनोरमा आदि जैसे उन चरित्रों का भी जो इस कथा के मुख्य चरित्र नहीं हैं । वहीं कुछ ऐसे एतिहासिक घटनाक्रमों का भी एक दूसरा ही नज़रिया सामने आता है जिसे लेकर आजतक तरह-तरह की कथा सुनी-सुनाई जातीं हैं । उन घटनाओं में महेंदर मिसिर का नोट छापने का धंधा करना, गुलजारीबाई बाई का ढेला बाई के रूप में परिवर्तित हो जाना, रिवेल साहब और हलिवंत सहाय भौतिकता से मोह भंग हो सन्यासी हो जाना आदि हैं । अब सारी घटनाओं/प्रसंगों का ज़िक्र कर पाना यहाँ संभव नहीं लेकिन एक प्रसंग का ज़िक्र करने का मोह त्याग पाना मुश्किल हैं । उपन्यास के शुरूआत के पन्ने पर पाण्डेय कपिल लिखते हैं – “सुनल जाला जे प्रयागराज के गणिका जानकीबाई के गवनई पर रीझके आपन सबकुछ निछावर क देवेवाला प्रेमी जब ओकर करिया-कलूट चेचक के दाग वाला चेहरा के देखलस त उ पगला गईल आ जानकीबाई के मार छुरी के गोद दिहलस । छुरी के छप्पन घाव खाइयो के जानकीबाई जीयत बांच गईली, आ नाम बदल गईल, हो गईल छप्पनछुरी । (सुनने में आता है कि प्रयागराज की गणिका जानकीबाई के गाने पर रीझकर अपना सबकुछ न्योछावर कर देनेवाला प्रेमी जब उनकी काली और चेचक से भरा चेहरा देखा तो पागल सा हो गया और उसने जानकीबाई को छोरी से गोद दिया । लेकिन जानकी बाई बच गईं और उनका नाम बदलकर छप्पनछुरी हो गया ।)”
ठीक इसी प्रकार गुलजारीबाई के ढेलाबाई के रूप में बदल जाने की कथा भी है – “उनका एगो महफिल में पगलाइल प्रेमियन के बीच चल गईल ढेला । अ इनकरी नाम बदल गइल । हो गइल ढेला यानी ढेलाबाई । (उनकी एक महफिल में पगलाए प्रेमियों के बीच ढेला चल गया और इनका नाम बदलकर हो गया ढेला अर्थात ढेलाबाई ।)”
बिहार के विख्यात/लोकप्रिय गायक और कवि महेंदर मिसिर और ढेलाबाई पर लिखित सामग्री बहुत ही कम है और जो कुछ भी लिखा गया है उसमें हकीकत और फ़साने को अलग-अलग कर पाना बहुत ही दुरूह कार्य है । यह काम साहित्य और साहित्यकारों का कम इतिहास, इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों का ज़्यादा है । जहाँ तक एक उपन्यास का सवाल है तो फुलसुंघी निश्चित ही भोजपुरी ज़मीन, भाषा, बोली, वाणी, संस्कारों, संस्कृति, उपमाओं, मान्यताओं, गीत आदि से लबरेज़ एक पढ़ने-पढ़ाने वाली रचना है ।
पटना के रंगकर्मी मित्र धर्मेश मेहता के सौजन्य से मैं पहली बार कोई भोजपुरी उपन्यास पढ़ रहा था । मुझे नहीं पता कि पाण्डेय कपिल कौन हैं और आज किस स्थिति में हैं, उनकी यह रचना “फुलसुंघी” आज बाज़ार में उपलब्ध भी है या नहीं; लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि भोजपुरी और भोजपुरी साहित्य से स्नेह रखनेवालों को यह उपन्यास ज़रूर ही पढ़ना-पढ़ाना चाहिए । यह अपने आपमें एक शानदार रचना हो, न हो लेकिन एक शानदार रचना का सुख और एहसास देनेवाला उपन्यास तो ज़रूर ही है ।

एक मध्यवर्गीय लड़के का जन्मदिन

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अपनेआप को लड़का क्यों कह रहा हूँ? तर्क तगड़ा है कि यदि पचास साल के कवि, कथाकार, रंगकर्मी आदि युवा कहलाते हैं तो उस हिसाब से तो मैं अभी लड़का ही हुआ न! तो जन्मदिन था। रंगकर्मी का जन्मदिन नाटकीय न हो तो लानत है। तो हुआ यह कि छः तारीख को रांची से पटना जाने का प्रोग्राम था लेकिन 3G, 4G और 5G वाले इस महान तंत्र में मेरे नेट की स्पीड इतनी अद्भुत थी कि कई दिनों से टिकट महोदय कट ही नहीं पा रहे थे। चार अलग-अलग कंपनियों से सिम कार्ड ट्राई किए परन्तु नेट आँख मिचौली कर रहा था और डमरू समय के रथ के पहिए के साथ घूमे ही जा रहा था। बीएसएनएल का तो मामला आज भी “भाई साहेब नहीं लगेगा” वाला ही है। अंततः तंग आकर रात अपने एक स्टूडेंट सुजीत को फोन किया कि मेरा टिकट कटा दो। सुजीत हैदराबाद में था, उसने भी कोशिश की, लेकिन वह भी सफलता हासिल नहीं कर पाया। थक-हारकर रात एक बजे सोने चला गया। तबतक विभिन्न सोशल साइट्स पर जन्मदिन की बधाई के सन्देश आने शुरू हो गए थे। साढ़े चार बजे सुबह के लगभग आँख खुली तो फिर स्मार्टफोन लेकर टिकट कटाने बैठ गया। इस बार सफलता मिली लेकिन तभी सुजीत का भी मैसेज आया कि उसने मेरा टिकट करा दिया है। अब मैं समझ नहीं पा रहा था कि दोनों में से कौन सा टिकट कैंसल कराया जाय। कमाल यह कि दोनों ही टिकट एक ही बोगी में थे, बस एक नंबर के फर्क के साथ। अन्तः मैंने सुजीत को वाट्सअप किया कि उसने जो टिकट कराया है उसे कैंसिल कर दे। पुनः सोने जाने से पहले सोशल साईट खोला तो बधाई सन्देश के मैसेजों से इनबॉक्स गुलज़ार हुआ पाया।
सुबह – सुबह तीन साल की प्यारी सी बेटी को स्कूल ले जाने की ज़िम्मेदारी मेरी होती है। बेटी और उसकी माँ का उधम चालू हो चुका था लेकिन मेरी आँख खुलने का नाम ही नहीं ले रही थी। बहरहाल, बेटी और उसकी माँ के दुलार-पुचकार से आँख खुली। उठकर अखबार उठाया तो पहले ही पन्ने पर पूरे पन्ने के लेटेस्ट मोबाईल फोन के विज्ञापन ने तमाचा जड़ा और मेरा आधुनिक फोन मुझे किसी कचड़े के डब्बे में परिवर्तित होता प्रतीत होने लगा। स्मार्टफोन को लेकर मेरा पैशन भी कमाल है। मुझे यह दुनिया का सबसे चमत्कारी आविष्कार लगता है। एक छोटे से उपकरण ने अपने अंदर क्या कुछ नहीं समाहित कर लिया है। सो, यदि मेरा वश चले तो मैं रोज़ ही नया से नया मोबाईल फोन इस्तेमाल करूँ, ठीक उस पागल शहंशाह की तरह जो एक बार पहने कपड़े, जूते आदि इत्यादि को दुबारा इस्तेमाल नहीं करता। वैसे आज यह भी खबर कहीं पढ़ी कि हमारे देश के “साहेब जी"भी कपड़ों को लेकर कुछ ऐसे ही शौक रखते हैं।
तो भाग-भाग कर तैयार हुआ। स्कूटर पर हम और बेटी जी महराज निकले। दोनों ने बरसाती धारण कर रखा था। बेटी को पूरे रास्ते गाना, कविता और पापा, ये क्या है वो क्या है करने में बहुत ही मज़ा आता है। सो वो मगन थी। रास्ते भर अजीब सी बारिश हो रही थी – टिप, टिप टिप टिप टाइप और रांची की बारिश का मज़ा यह कि भींगे नहीं कि सर्दी-बुखार के प्यार में गिरफ्तार हुए। तो मैं सड़ा सा मुंह बनाए कछुए की गति से गाड़ी चला रहा था और मन ही मन मेघदूतम के रचयिता कालिदास को बुरा-भला भी कह रहा था। पक्का मिस्टर कालिदास कभी रांची के बारिश में नहीं भींगे होंगे। यदि भींगते और सर्दी-बुखार के प्यार में पड़ते तो मेघदूतम लिखने का रूमानी ख्याल शायद दूर-दूर तक नहीं आता। वैसे भी सर्दी बुखार में अच्छे से अच्छा रूमानी ख्याल अघोरपंथ में तबदील हो जाता है।
बेटी को स्कूल छोड़ने के बाद मुझे प्रसिद्द डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर मेघनाथ दा के अखरा में जाना था। दादा इन दिनों राम दयाल मुंडा जी के ऊपर डाक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे हैं। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे प्रसिद्द फिल्म निर्देशक सत्यजित राय ने रविन्द्र नाथ ठाकुर के ऊपर बनाई थी। बहुत कम ही लोग यह जानते हैं कि राम दयाल मुंडा ने कुछ छोटे – छोटे नाटक भी लिखे थे – एकदम अनोखे तरीके से। हमें राम दयाल मुंडा लिखित नाटकों के फिल्मांकन के लिए जगह देखने संत जेवियर कॉलेज जाना था। मेघनाथ दा मेरी स्कूटी पर सवार हुए और हम फिल्म, रंगमंच और साहित्य पर बात करते हुए संत जेवियर कॉलेज के लिए निकल पड़े। रास्ते में उन्होंने बताया कि आज उनकी बेटी का जन्मदिन है और उसके लिए उन्होंने बेटी के दोस्तों के आग्रह पर वाट्सअप पर सरप्राइज़ एलिमेंट के रूप में अपनी आवाज़ में बधाई सन्देश भेजा है। उन्हें इस बात का ज़रा भी अंदाजा नहीं था कि आज मेरा भी जन्मदिन है। यदि पता होता तो वो मुझे पता नहीं क्या खिलाने – पिलाने लगते। और जहाँ तक सवाल मेरे बताने का है तो हमारे परिवार में कभी जन्मदिन को स्पेशल दिन की तरह मनाने का कभी रिवाज़ ही नहीं रहा इसलिए यह आज भी मेरे लिए किसी अन्य सामान्य दिन की तरह होता है। वैसे भी मध्यवर्गीय मानसिकता के अंतर्गत खोखली खुशी का प्रदर्शन, उसका दिखावा, बेवजह शोरगुल, रीति-रिवाज और खर्च – इन चीज़ों से कभी भी मेरा कोई खास जुड़ाव हुआ भी नहीं। खोखले आडम्बरों से एकांत मुझे ज़्यादा प्रिय है।
तो हम स्पेस देखकर वापस आए। दादा को अखरा में छोड़ा और अब बारी थी बेटी जी महराज को स्कूल से लेकर घर जाने की। इस बीच फेसबुक, वाट्सअप और एसएमएस के ज़रिए देश के कई भागों से जुड़े दोस्तों के बधाई सन्देश भी आ रहे थे और मैं मन ही मन गदगद होता हुआ सबको जवाब देने की कोशिश भी कर रहा था।
बाकि दिन भर के किस्से नहीं सुनाऊंगा। सुनाऊंगा तो क्या पता बहुत से लोग मेरा नाम भारतीय “मर्द” की श्रेणी से काट दें और बोलें हद है यह भी, घर में झाड़ू लगाना, पोंछा लगाना, बर्तन साफ़ करना, खाना पकाना और अपने बच्चे की पॉटी साफ़ करने जैसा “औरताना” का काम करता है। वैसे हद तो यह भी है जी हम इतने “महान” हैं कि काम का भी लिंग और जाति निर्धारण कर रखा है। खैर, जन्मदिन के मौके पर सुबह – सुबह पड़ोस से जो एक मात्र गिफ्ट मिला वो था मूली के पत्ते समेत चार पांच कुपोषित मूली। बाकि देश भर से खूब सोशल मिडिया पर खूब सारे सन्देश और फोन कॉल्स। सन्देश इतने ज़्यादा और प्यारे थे कि यदि बुद्धि -विवेक का चार चांटा न पड़े तो मध्यवर्गीय दिमाग आसमान में ही उड़ने लग सकता था। भाई, आसमान में उडो लेकिन पैर ज़मीन पर ही टिका रहे नहीं तो शुभचिंतक आसमान में उड़ाना जानते हैं तो उन्हें ज़मीन पर पटकना भी और मत भूलो कि संघर्ष ही जीवन है। सफलताएं दिमाग खराब करती है इसलिए सफलताओं को भूल जाओ और असफलताएं याद रखो। तो, कल तथाकथित जन्मदिन जैसा कुछ था नहीं हां बहुत सारे काम ज़रूर थे और शायद काम ही जीवन है। वाह, मज़ा आया न उपदेश नुमा भरत वाक्य पढ़कर? अब समाप्त।
पुनश्च – ऊपर लिखी सारी बातें झूठ हैं क्योंकि प्रगतिशील दिखना एक फैशन है। सच तो यह है कि कल सुबह से ही भव्य पार्टी शुरू हो गई थी। यो यो के गाने पर चियर्स गर्ल के साथ ही साथ यज्ञ और हवन का भी आयोजन था। जिसमें पुरी दुनियां भर के रथी-महारथी शामिल हुए। गरीबों को टेलीविजन के कैमरे के सामने दान दक्षिणा भी दिया जाया। बराक ओवामा और किशोर कुमार जन्मदिन के इस समारोह में इसलिए शामिल नहीं हो पाए क्योंकि कल उनका भी जन्मदिन था।  

वाचिक परंपरा के साहित्यकार बॉब डिलन

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किसे साहित्य कहा जाय किसे नहीं, यह बहस एकबार फिर शिखर पर है। कारण है गायक, गीतकार और संगीतकार व दुनियां भर में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके बॉब डिलन को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलना। अमूमन उपन्यास, कविता, कहानी को ही साहित्य माना जाता है; इन सब में भी बहुत सारे भेद-विभेद हैं। वैसे वाचिक परंपरा साहित्य की सबसे पुरानी परंपरा है। इंसान निश्चित ही लिखने से पहले बोलना सिखाता है। हालांकि इससे पूर्व डिलन को ऑस्कर, ग्रेमी, गोल्डन ग्लोब अवार्ड, प्रेजिडेंट मेडल ऑफ फ्रीडमऔर पुलित्ज़र समेत अनगिनत सम्मान मिल चुका है और इन सबसे बड़ा सम्मान यह है कि 60 के दशक से आज तक वो दुनियां भर के संगीत प्रमियों में एक अत्यंत ही प्रतिष्ठित नाम हैं।
बॉब डेलेन "सार्थक"संगीत के क्षेत्र में मेरे पसंदीदा नामों में से एक हैं। मैंने उन्हें तब सुनना शुरू किया था जब अंग्रेजी मेरे लिए अमिताभ बच्चन वाली "फन्नी लैंग्वेज"हुआ करती थी। वैसे मेरी अंग्रेजी की हालत आज भी कोई गर्व करने लायक तो नहीं ही है। और जहाँ तक सवाल संगीत का है तो उसका भी कोई प्रकांड विद्वान तो नहीं ही है। हालांकि लोगों को यह भ्रम ज़रूर है कि मुझे संगीत की बेहतरीन समझ है। खैर, मेरे संगीत की समझ से जुड़ा एक किस्सा याद आ रहा है। सन् 1981 में एक फ़िल्म आई थी क्रांति। उसमें एक गाना था - "ज़िन्दगी की ना टूटे लड़ी, प्यार कर लो घड़ी दो घडी।"उन दिनों यह गाना खूब पॉपुलर हुआ था, आज भी है। अब मेरी समझ में यह नहीं आता था कि यह "घड़ी दो घड़ी"मतलब कि लोग घड़ी क्यों मांग रहे हैं और फिर कौन सी घड़ी मांग रहे हैं - हाथ वाली, टेबल वाली या फिर दिवार वाली?
संगीत के बारे में लगातार पढ़, सुन और यथासंभव रियाज़ करके कुछ हद तक साधने की कोशिश की। यदि मेरा मूड़ ठीक हो तो दिन भर हर तरह का संगीत गाते रहना या संगीत सुनते रहना - मेरी आदतों में शुमार है। इसी कोशिश में दुनियां भर का संगीत सुनने की कोशिश करता हूँ - अच्छा बुरा सब। किसी गुरु के जाकर संगीत नहीं सीखा लेकिन शायद लगातार विभिन्न प्रकार के संगीत सुनना और उसे गाने की कोशिश करना ही मेरी संगीत साधना है।
अब बात डिलन की - डिलन 22 वर्ष की उम्र से गा रहे हैं। उनका जन्म 1941 में रॉबर्ट ऐलेन जिमरमैन में हुआ था। डेलेन ने अपने म्यूजिकल करिअर की शुरुआत मिनिसोता के एक कॉफी हाउस से 1959 में की थी। 1960 में उनके गानों ने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई। मार्च ऑन वाशिंगटन फॉर जॉब्स एन्ड फ्रीडम में नस्लभेद के ख़िलाफ़ दिया गया मार्टिन लूथर किंग का ऐतिहासिक भाषण "आई हैव अ ड्रीम"ने डिलन की ज़िंदगी बदल दी फिर वो लग गए उस दौर के युवा असंतोष को आवाज़ देने में। उनका एल्बम ब्लोइंग विथ द विंड ने प्रतिरोध का स्वर मुखर कर दिया था और बॉब सफलता के चर्मोउत्कर्ष पर पहुँच गए। डेलेन के गाने 'ब्लोविन इन द विंड, ऐंड द टाइम्स दे आर ए चेजिंग'मानवाधिकार संगठनों और युद्ध विरोधी संगठनों के लिए एंथम साबित हुए। डेलेने ने पारंपरिक संगीत के अलावा संगीत की अन्य विधाओं में हाथ आजमाया जिसने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई। किसी गीतकार को संभवत: पहली बार उनके गीतों के लिए नोबेल दिया गया है। गीतों के लिए कवियों को नोबेल पुरस्कार दिए जा चुके हैं।
बॉब डिलन के गीत पूरी दुनिया में बेहद लोकप्रिय रहे हैं। उनके सबसे लोकप्रिय गीतों में मिस्टर टैंबूरिन मैन से लेकर लाइक ए रोलिंग स्टोन, ब्लोइंग इन द विंड और द टाइम्स दे आर चेजिंग शामिल हैं। बहरहाल, आज ज़रूरत है साहित्य के दायरे को विस्तार देने की और उसके प्रचलित परिपाटी, संस्कार और परिभाषाओं की सीमा को विस्तार देने की।
बहुत खूब मेरे पसंदीदा गायक डिलन। आपने विश्व संगीत, साहित्य और मानवीय जीवन को एक नया, लोकप्रिय और सार्थक आयाम दिया है।
बॉब डिलन के एक मशहूर गीत 'मिस्टर टम्बरिन मैन'का 'दैनिक हिन्दुस्तान'में छपा है. पढ़ा जाय। -

मिस्टर टम्बरिन मैन

हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
न ठौर है न ठिकाना, न ही नींद है
हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
खनकती भोर जागे, तेरे संग हुए

मालूम है मुझे कल के महल आज बिखरे राखों में पड़े
धुंए के फाए से
अंधे कुएं में पड़ा मैं, गायब नींद है
पस्त मेरे हौसले, मेरी खामोश चीख से
न मिलना बाकी किसी से
जमीनें इतनी सूखी, न सपने उगे

हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
न ठौर है न ठिकाना, न ही नींद है
हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
खनकती भोर जागे, तेरे संग हुए

आ चल हम उडे़ं तेरी जादुई नाव में
होश गुम मेरे और दम खतम बाहों में
पांव भी सोए हैं
अपने आप आते, आवारा से पड़ते
हर मंजिल तक चलेंगे, बुझ गई वो लौ बनेंगे
अपनी नुमाइश में जलेंगे, कोई मंतर लगा, जाम दे
वादा है हम पियेंगे...

हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
न ठौर है न ठिकाना, न ही नींद है
हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
खनकती भोर जागे, तेरे संग हुए

गूंजेंगी हंसी की, कुछ थिरकने की आवाजें, सूरज से भी आगे
ये कोई चुहल नहीं है, ये शोर है बच भागने का
और बढ़ने की हद केवल आसमां है
कोरस जुलूसों में एक नारा बेढंगा सा उठे
तेरी होशियार तालों में, वो बेहूदा बाजू में
उसे छोड़ो, बढ़ो आगे
वो पागल बस ढूंढ़ता है परछाइयां

हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
न ठौर है न ठिकाना, न ही नींद है
हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
खनकती भोर जागे, तेरे संग हुए।

और घोल दे मुझे मेरे मन के इस भंवर में,
सालों घनी तहों में, आगे झडे़ पत्तों से,
रोते पडे़ पेड़ों से, हवादार किनारों में
दूर और दूर उदासी की हदों से,
जहां तारों तले झूमें हम, लहराती फसल से
समंदर की गोदी में चमकीली रेतों से नहाते
सारी यादें सारी किस्मतें कर लहरों के हवाले
कल भर तक बस, आज को भूल जाने दे

हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
न ठौर है न ठिकाना, न ही नींद है
हे! साधो रे! एक गीत मेरे लिये
खनकती भोर जागे, तेरे संग हुए
(अंग्रेजी से अनुवाद: स्वप्निलकांत दीक्षित)
उनके द्वारा गाया और लिखा मेरा सबसे पसंदीदा गीत इस लिंक पर सुनिए।
 https://g.co/kgs/9QdVoI

गाँव में धूमिल की लंबी कविता पटकथा

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जैसे ही पटकथा की प्रस्तुति गांव गोंदर बिगहा, हिसुआ, नवादा (बिहार) में करने की बात हुई एक सवाल यह उठ खड़ा हुआ कि क्या धूमिल की कविता की यह विम्बत्मक प्रस्तुति गांव के दर्शकों की जिज्ञासा को शांत कर पाएगी? क्या वो इस प्रस्तुति को सहजतापूर्वक ग्राह्य कर समझ पाएगें? इस सोच के पीछे कई सारे पूर्वाग्रह थे। गांव को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक आदि स्तर पर पिछड़ा मानने का प्रचलन इस कदर व्याप्त है कि इसी देश में देहाती और गंवार जैसे शब्दों को गाली के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन यह भी सच है कि शिक्षा का अर्थ केवल किताबी और डिग्री नहीं होता।
कविता ज़्यादातर लोगों के समझ में नहीं आती। समझ में आएगी कैसे जबतक कि कविता पढ़ने या समझने की कोशिश न किया जाय, उसे आदत में शम्मिलित नहीं किया जाए। वैसे भी कोई भी चीज़ समझने से समझ में आती है, उसके लिए थोड़ा प्रयास खुद भी करना पड़ता है न कि यह मान लेने से कि वो चीज़ समझ में ही नहीं आती है।
बहरहाल, समझ में आने, न आने का भय तो हमें पटना जैसे शहर में पहली प्रस्तुति करने के दौरान भी था लेकिन प्रस्तुति प्रारंभ होने के कुछ मिनटों के पश्चात् ही यह भय जाता रहा था। कालिदास रंगालय में दर्शक जिस जीवंतता के साथ धूमिल की इस प्रतिष्ठित कविता पर एकल अभिनय कर रहे आशुतोष अभिज्ञ का साथ दे रहे थे; वह अद्भुत था। अब तो आशुतोष ने इस कविता और उसके रंगमंचीय विम्बों को इस तरह आत्मसात कर लिया कि उसे पटकथा में अभिनय करते देखना एक सुखद अनुभूति की तरह हो गया है। तकनीकी भाषा में इसे इज़ कहते हैं।
बहरहाल, हम पटना के चर्चित रंगमंच, टेलीविजन और फिल्म अभिनेता बुल्लू कुमार के गांव गोंदर बिगहा, हिसुआ, नवादा (बिहार) पहुंचे। राजगीर पर्वतमाला, नदी, खेत-खलिहान से शुशोभित यह एक अद्भुत गाँव है। कुछ ऐसा कि कोई भी कलाकार ह्रदय व्यक्ति यहाँ पहुंचकर आह्लादित हो उठे। अपने जूनून से इसी पहाड़ी का एक सिरा दशरथ मांझी ने काटकर रास्ता बना दिया था। कौन जाने हम में से किस-किसकी नियति कुछ ऐसी ही हो।
यहाँ छठ के अवसर पर हर वर्ष कम से कम संसाधनों में तीन दिन नाटक खेलने का प्रचलन है। चौकी जोड़कर टेम्प्रोरी मंच बनाया जाता है। माइक लगाए जाते हैं। दरी आदि बिछाए जाते हैं। ग्रामीण नाटकों की अपनी शैली और चुनौतियाँ हैं जिनपर बात फिर कभी। रात करीब 8 बजे के आसपास पटकथा की प्रस्तुति प्रारंभ हुई। शाम से ही लोग बोरा बिछाकर अपनी-अपनी सीट लूटने में व्यस्त थे। दर्शक दीर्घा में गांव के बच्चों से लेकर बूढ़े तक विराजमान थे। स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां, लड़के-लड़कियां सब; और जिस शांत भाव से इन्होंने पटकथा और अन्य नाटक की प्रस्तुति देखी वह सच में कमाल है। उनकी जीवंतता किसी भी दर्शकों से कतई भी कम नहीं थी। बल्कि शालीनता में चार कदम आगे ही थे। धैर्य तो ऐसा कि कोई भी कलाकार फ़िदा हो जाए। लगता है जैसे गांव और गांववालों ने कला के नाम पर केवल स्वीकारना ही सीखा है, नकारना और पूर्वाग्रह शहरवालों के लिए छोड़ दिया है।
तमाम चुनौतियों के बावजूद, गांव में आज भी चैन है, सुकून है, तकनीक से ज़्यादा बात का भाव है। कुछ बड़े महोत्सव में no entry का दंश झेलता हमारी पटकथा शहर-कस्बों के सभागारों, स्कुल-कॉलेजों से होता हुआ उनतक पहुंचकर जैसे थोड़ा और ज़्यादा सार्थक सा कुछ हो गया हो। पटकथा में वर्णित स्थितियों-परिस्थियों को सबसे ज़्यादा जनता को ही समझने की ज़रूरत है और गांव से बेहतरीन जनता और कहाँ मिलेगी। वैसे भी धूमिल दाद और वाह-वाह वाले कवि तो हैं नहीं।
अंत में, भिखारी ठाकुर की रचनाओं और जीवनवृत पर आधारित अपने ही लिखे नाटक "नटमेठिया"की एक लाइन याद आ रही है - "नाच न बंद होगा। नाच खातिर तो सबकुछ किया, अब कैसे छोड़ दें यह नाच।"
यह ज़िद्द है तो ज़िद्द ही सही। वैसे भी बिना ज़िद्द के कुछ हासिल भी तो नहीं होता। इसलिए जूनून कायम रहे और हौसला बुलंद। 

देशभक्ति, बदलाव और विकास उर्फ़ नोट छोड़ो paytm करो

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देशभक्ति, बदलाव और विकास यह तीनों आजकल जादू की छड़ी का काम कर रहे हैं। आप कुछ भी कीजिए बस उसके ऊपर यह छड़ी घूमा दीजिए, आपके सारे कृत पाक-साफ। वर्तमान में नोटबंदी को भी इसी जादू से जोड़ दिया गया है। नोटबंदी से भ्रष्टाचार, गरीबी, कालाधन आदि ब्रह्मराक्षसों के शिकार करने की बात प्रचारित की जा रही है जबकि ज़रा सा भी सही से इतिहास और अर्थशास्त्र को जानने समझनेवाला व्यक्ति इसे भी ज़रूरत से ज़्यादा उछाला हुआ मामला ही मानेगा। दुनियां में इससे पहले भी नोटबंदी हुए हैं लेकिन आजतक किसी भी मामले में कोई स्थायी समाधान निकाला हो, ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं मिलता है। काला धन और भ्रष्टाचार ख़त्म करने के लिए केवल नोटबंदी काफी नहीं। वैसे भी नगदी और गैर-नगदी (cash and cashless) व्यवस्था भ्रष्टाचार का एक पक्ष मात्र है, जड़ नहीं। सोना, रियल एस्टेट, हवाला, कर प्रणाली, प्रशासन, चुनाव में कालाधन आदि की भी बात होनी चाहिए।
वैसे, कल बड़ा ही बढ़िया वक्तव्य था - I am not for sale. वैसे भी sale होने के लिए कोई भी इंसान कभी पैदा नहीं होता। तो अब यह सवाल है कि जब आप बिकने के लिए नहीं हैं तो आपकी तस्वीर paytm के विज्ञापन में क्या कर रही थी?
सनद रहे कि नोटबंदी के बाद paytm की दैनिक खरीदारी 120 करोड़ रूपए को पार कर गई है वहीँ डॉलर के मुकाबले रूपए की हालत पिछले नौ महीने में सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है अर्थात् 68.16 ₹ प्रति डॉलर।
हो सकता है यह भी देशहित में एक बदलाव ही हो कि प्रधानमंत्री का चेहरा केवल सरकारी विज्ञापनों में ही क्यों बल्कि गैर-सरकारी विज्ञापन में भी शान से छापे। आखिर "माल"तो बेचारा गैरसरकारी पूंजीपति ही प्रदान करता है - लगभग सारे राजनीतिक दल को, चंदे के रूप में।
यह paytm भी आजकल देश बदलने का नारा बुलंद कर रहा है। इसलिए उनका धंधा भी देशभक्ति और राष्ट्रहित से ही जुड़ा होगा बिल्कुल बाबा रामदेव की तरह जो देशभक्ति और स्वदेशी के नाम पर एक से एक रद्दी प्रोडक्ट बाज़ार में बेचे जा रहे हैं और बेचारे मासूम देशभक्त देशभक्ति और स्वदेशी के नाम पर अपनी मसुमियतयुक्त मूर्खता का एक से एक नमूना पेश कर रहे हैं!! यह देशभक्ति का बाजारवाद नहीं तो क्या है?
बहरहाल, नोटबंदी के दिन से ही paytm आक्रामक विज्ञापन कर रहा है और वर्तमान सरकार के डिजिटल इंडिया के नारे के साथ सुर में सुर मिलते हुए नोट छोड़ने और paytm अपनाने का राग "हुआँ, हुआँ, हुआँ"की तर्ज़ पर अलाप रहा है। नारा भी वैसा ही है अर्थात् देश बदलना है। नारे पर गौर कीजिए -
तुम बदलोगे, एक बदलेगा
सब बदलेंगें, देश बदलेगा
बस "हुआँ, हुआँ, हुआँ"लिखना भूल गए!!!
अब इस सवाल का क्या कोई औचित्य है कि सारे धंधेबाज आजकल देशभक्ति और देश बदलने का नारा क्यों बुलंद कर रहे हैं और जिनके ख़ून में देशभक्ति का एक कतरा तक नहीं वही देशभक्ति के प्रमाणपत्र के विक्रेता हो गए हैं और जो कोई भी इनके "हुआँ, हुआँ"में सुर नहीं मिलता उसे "देशद्रोही"का तमगा दे रहे हैं। नेताओं और राजनीतिक पार्टियों को यह भ्रम हो जाना कि वही देश के पर्याय हैं कोई नहीं बात नहीं है इस देश के लिए। "madam is India and India is madam"का नारा भी खूब उछाला गया था किसी वक्त, आजकल हर हर और घर घर का दौर है। लेकिन पता नहीं क्यों लोग यह भूल जाते हैं कि इतिहास किसी को माफ़ नहीं करता। इतिहास सबका मूल्यांकन करता है, चाहे वो राजा हो या रंक।
सनद रहे, सत्ता जो राग अलाप कर सत्तासीन होता है आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुनाफाखोर और धंधेबाज़ भी फ़ौरन उसी सुर में सुर मिलाने लगते हैं।
फिर paytm कोई फ्री में अपनी सेवा नहीं देता है बल्कि हर लेन देन के बदले कमीशन लेता है। IRCTC का ऐप देखते ही देखते paytm की गोद में चला गया। पहले हम अपने बैंक खाते से डेविट या क्रेडिट कार्ड के द्वारा आसानी से टिकट कटा लेते थे लेकिन जबसे इसकी देख रेख का ज़िम्मा paytm को दिया गया है तबसे वहां बिना paytm के टिकट कटाना एक चुनौती हो गई है। क्या देश ने कहा कि IRCTC की देख रेख रेलवे के करने से देशभक्ति को खतरा है इसे फ़ौरन से पेश्तर peytm के हवाले किया जाय। हर लेन देन में paytm कमीशन खाता है उसका इस्तेमाल कोई पूंजीपति अपनी जेब भरने के लिए नहीं बल्कि हमारी राष्ट्रवादी सरकार देश सेवा में कर रही होगी - इस बात पर जिसे भी शक है वह दरअसल देशद्रोही है। वैसे सरकारी सेवाओं का निजीकरण भी उदारवाद का एक सड़ा और बकवास सा फार्मूला है। सरकारी तंत्रों को दुरुस्त करने के बजाय उसे किसी पूंजीपति या धंधेबाज के हाथों में सौंप दिया जाना देशभक्ति की किस किताब के कौन से अध्याय में उचित है और यह किताब कब और कहाँ छपी - यह एक खोज का विषय है। ज़रा हमारी भी जानकारी दुरुस्त किया जाय ताकि हम भी देशभक्ति का पाठ ज़रा पढ़ ले। इस नोटबंदी से आम आदमी की मुसीबत तो जो है सो है यदि बैंक कर्मचारी अपनी नौकरी का मोह त्यागकर अपनी मुसीबतें लिख दें तो भूचाल आ जाएगा। सरकार जिस तरह रोज़ नए नए फरमान सुना रही है इससे तो यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि दूरदर्शिता का पाठ पढनेवाले यह सरकार की तैयारी बहुत ही बचकानी थी।
paytm के लिए स्मार्टफोन चाहिए, फिर ठीक ठाक नेट कनेक्शन और नेट पैक चाहिए। अब इस देश के कितने प्रतिशत आबादी इस आफत को गले लगाने को तैयार है? खैर, आबादी की चिंता करे कौन? वैसे भी चुनाव में पैसा आबादी कम पूंजीवादी ज़्यादा लगाते हैं। तो जिसका खाया उसको चुकाना हमारा धर्म है। हम चाहे कुछ भी हों लेकिन नमक-हराम तो कतई नहीं है!!!
वोट विकास के नाम पर मिला था देश बदलने के नाम पर नहीं और कोई भी बदलाव ज़मीनी रूप से आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर से शुरू होता है जबरन थोपा नहीं जाता। असल बात मानसिकता है न कि भौतिकता।
इतिहास देख लीजिए, जिस किसी ने मानसिकता में बदलाव किए बिना जन पर किसी भी प्रकार का कोई दवाब बनाया है - उसका आज इतिहास में कोई नामलेवा तक नहीं बचा है, बड़ी-बड़ी सल्तनतें तबाह हो गईं; और जो कोई भी मानवीय चेतना से लैस होकर अपना लश्कर कठिन से कठिन वक्त में भी गतिमान रखा उसने भले ही कोई "बंदरी सेना"न बनाई हो लेकिन उनका नाम आज भी स्नेह से याद किया जाता है। यह लोकतंत्र है। इसमें नायक अन्तः जनता होती ही है। हालांकि नायकत्व का भ्रम बीच-बीच में अफसरों-नेताओं आदि को होता रहता है। किसी लोक गायक का एक गीत याद आ रहा है -
जनता की चले पल्टनियां
हिल्ले ले झकझोर दुनियां

दैनिक समाचार पत्र hindustan times का एक आर्टिकल संलग्न कर रहा हूँ और साथ में लिंक भी

Cash in circulation in an economy has little correlation with corruption, a comparative analysis of World Bank and Transparency International data suggests, deepening suspicion that those with black money prefer to keep their ill-gotten wealth in other forms of assets.

While figures show that India holds 11.8% of its economy in cash and is ranked a poor 76th in the global corruption ranking. Germany, at 9th in the graft ranking, has an 8.7% cash economy.

Sweden, one of the world’s top three least corrupt countries, and Nigeria, one of the worst, has near similar proportion of cash in their economies.

Hindustan Times analysed the cash in circulation and GDP of 26 countries – 12 top economies barring the US and China, 12 very corrupt countries with stable governments, and three mid-sized economies with varying corruption ranks.

The findings suggested India’s cash in circulation as a portion of GDP was near about international standards.

France, for example, holds 9.4% in cash and is ranked 23 by the anti-graft body, Transparency International. Experts said India’s marginally more cash proportion could be because a majority of Indians depend on cash for daily transactions in absence of inadequate banking facilities.

Japan, the world’s third largest economy and ranked 18th on the corruption index, has 20.7% cash economy.

The analysis of data showed up another interesting fact: Russia, the world’s 13 largest economy and Spain, the 14th largest, shared the same proportion of cash economy.

Yet, Russia is ranked 119 on the corruption index while Spain is a lot cleaner at 36. Corruption, the data suggested, had little impact on their cash in circulation.

http://m.hindustantimes.com/business-news/little-connection-between-cash-in-economy-and-corruption/story-EthX7dL7j2m1szcQkPUi7N.html

वर्ष 2017 : पूरा विश्व ही हमारा घर है।

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नया वर्ष में केवल कलेंडर ही बदलता है बाकि सब जस का तस रहता है - प्यार, स्नेह, दुश्मनी, दोस्ती, साजिश, दो-मुंहापन, धोखा सब। एक कलाकार ह्रदय संवेदनशील व्यक्ति के लिए प्यार, स्नेह, सम्मान, दोस्ती का साथ हर क़ीमत पर निभाना उसकी फ़ितरत है और दुश्मनी, साजिश, दो-मुंहापन, धोखा, धंधेबाजी, गुटबाज़ी आदि से मुक्त हो निःस्वार्थ भाव से अपना काम करते रहना उसका जूनून। 
उन सबका आभार प्रकट क्या करूँ जो मेरी ताक़त हैं? एक साल ही ख़त्म हुआ है केवल, ज़िन्दगी अभी बहुत लंबी है और जितना कुछ किया गया है उससे बहुत ज़्यादा करने को बचा है - आपका साथ व भरोसा बना रहे और मुझमें सदा इतना होश और जोश रहे कि मैं अपने कर्म और व्यवहार से सदा आपके दिल में जगह पाता रहूं - यही आशा है। मैं व्यक्तिगत रूप से इस बात में यकीन नहीं रखता कि साल का पहला दिन जैसा बीतता है पूरा साल भी वैसा ही बीतेगा। दुःख, सुख जीवन के अंग है और पूरी दुनियां में यह सब एक साथ चलता रहता है। एक कलाकार की दुनियां केवल अपने तक ही सीमित नहीं होती बल्कि पूरा विश्व उसमें समाहित होता है। नॉबेल पुरस्कार से सम्मानित नाटककार दारियो फ़ो कहते हैं - "पूरा विश्व ही हमारा घर है और आज़ादी हमारा क़ानून। क्रांति हमारे दिल में बसे, हमारा बस यही एक विचार है।" 
भगवत गीता की यह पंक्ति भी आज के दिन याद करने योग्य है - 
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।)
भारत, भरतीयता, हिंदुस्तान, भारतीय संस्कृति आदि के नाम पर भी मूढ़ता पसारने का खेल ख़तरनाक तरीके से खेला जा रहा है। विविधता इस देश की संस्कृति है और उसका सम्मान संस्कृतिक पहचान। भारत एक फुलवारी है जिसमें हर प्रकार के फूल खिलते और फलते फूलते हैं। इस पहचान की रक्षा करना प्रथम नागरिक कर्तव्य है। भारतीयता के अनिवार्य तत्व हैं - भारतीय भूमि, जन, संप्रभुता, भाषा एवं संस्कृति। इसके अतिरिक्त अंतःकरण की शुचिता (आंतरिक व बाह्य शुचिता) तथा सतत सात्विकता पूर्ण आनन्दमयता भी भारतीयता के अनिवार्य तत्व हैं। भारतीय जीवन मूल्यों से निष्ठापूर्वक जीना तथा उनकी सतत रक्षा ही सच्ची भारतीयता की कसौटी है। संयम, अनाक्रमण, सहिष्णुता, त्याग, औदार्य (उदारता), रचनात्मकता, सह-अस्तित्व, बंधुत्व आदि प्रमुख भारतीय जीवन मूल्य हैं। 
मूलतः नास्तिक आदमी हूँ किन्तु किसी भी किताब में कही गई किसी अच्छी बात से मुझे कोई परहेज नहीं। अच्छी बातों का उल्लेख करना भी कोई बुरी बात नहीं और ज्ञान कहीं से भी मिले उसे धारण करने में कोई बुराई नहीं। वैसे भी भारत, भारतीयता, राष्ट्रवाद, धर्म के नाम पर उन्माद फैलानेवालों की आज कोई कमी नहीं। वो हमें इसलिए भी मुर्ख बनाने में कामयाब होते हैं क्योंकि हम शायद खुद इन शब्दों का उचित अर्थ नहीं पहचानते। भारतीयता की प्रकृति से तात्पर्य उन मान बिंदुओं से है जिनकी उपस्थिति में भारतीयता का आभास होता है। भारतीयता निम्नांकित बिंदुओं/अवधारणाओं से प्रकट होती है-
वसुधैव कटुम्बकम् की अवधारणा : संपूर्ण विश्व को परिवार मानने की विशाल भावना भारतीयता में समाविष्ट हैं। 
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम।।
(यह मेरा है, यह पराया है, ऐसे विचार तुच्छ या निम्न कोटि के व्यक्ति करते हैं। उच्च चरित्र वाले व्यक्ति समस्त संसार को ही कुटुम्ब मानते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम का मन विश्वबंधुत्व की शिक्षा देता है।)

विश्व कल्याण की अवधारणा :
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाग्भवेत।।

भारतीय वांग्मय में सदा सबके कल्याण की कामना की गई है। उसे ही सार्वभौम मानवधर्म माना गया है।मार्कण्डेय पुराण में सभी प्राणियों के कल्याण की बात की गई है। सभी प्राणी प्रसन्न रहें। किसी भी प्राणी को कोई व्याधि या मानसिक व्यथा न हो। सभी कर्मों से सिद्ध हों। सभी प्राणियों को अपना तथा अपने पुत्रों के हित के समान वर्ताव करें।
विश्व को श्रेष्ठ बनाने का संकल्प : ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ (सारी दुनिया को श्रेष्ठ, सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाएंगे।) यह संकल्प भारतीयता के श्रेष्ठ उद्देश्य को व्यक्त करता है।
सहिष्णुता : सहिष्णुता से तात्पर्य सहनशक्ति व क्षमाशीलता से है। धैर्य, विनम्रता, मौन भाव, शालीनता आदि इसके अनिवार्य तत्व हैं। भारतीयता का यह तत्व भारतीय संस्कृति को अन्य संस्कृतियों से अलग करता है। यही कारण है कि भारत की कभी भी अपने राज्य विस्तार की इच्छा नहीं रही तथा सभी धर्मां को अपने यहां फलते-फूलने की जगह दी।
अहिंसात्मक प्रवृत्ति : अहिंसा से तात्पर्य हिंसा न करने से है। कहा गया है कि ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान मानो। महावीर, बुद्ध तथा महात्मा गांधी ने विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। महाभारत में भी कहा गया है कि मनसा, वाचा तथा कर्मणा किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। हमारे ऋषियों ने अहिंसा को धर्म का द्वार बताया है। जैन धर्म में अहिंसा को परम धर्म बताया गया है।
आध्यत्मिकता : आध्यात्मिकता भारतीयता को अन्य संस्कृतियों के गुणों से अलग करती है। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव ही आध्यात्मिकता है। भक्ति, ज्ञान व कर्म मार्ग से आध्यात्मिकता प्राप्त की जा सकती है। यह आत्मा के संपूर्ण विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।पुरूषार्थ चतुष्टय आध्यात्म में संचालित, प्रेरित व अनुशासित होता है। आध्यात्म के क्षेत्र में भारत को गुरू मानता है।
एकेश्वरवाद की अवधारणा :
एकं सद् विप्राः बहुनाम वदन्ति। 
(ईश्वर एक है। विद्वान उसे अनेकों नाम से पुकारते हैं)

इस्लाम ने भी ईश्वर के एक होने की बात की है परंतु उसी सांस में यह भी कह दिया कि उसका पैगम्बर मौहम्मद है तथा उसके ग्रंथ कुरान में भी आस्था रखने की बात कही। यही बात ईसाइयत में है। भारत में ईश्वर को किसी पैगम्बर व ग्रंथ से नहीं बांधा है।
सर्वधर्म समभाव : भारत में सभी धर्म राज्य की दृष्टि में समान हैं। पूजा की सभी पद्धतियों का आदर करो तथा सभी धर्मां के प्रति सहिष्णुता बरतो।धर्म, मजहब, पंथ एक नहीं हैं। इस्लाम व ईसाइयत को पंथ/मजहब कह सकते हैं जबकि हिंदु धर्म 'जीवन पद्धति'है। कहा भी गया है कि-
‘‘धारयते इति धर्मः’’
अर्थात् जो धारण करता है, वहीं धर्म है। इसका अर्थ है पवित्र आचरण व मानव कर्तव्यों की एक आचार सहिंता। मनु ने धर्म के 10 लक्षण (तत्व) बताए हैं-

१. धृति - धैर्य / संतोष 
२. क्षमा - क्षमा कर देना 
३. दम - मानसिक अनुशासन 
४. अस्तेय - चोरी नहीं करना 
५. शौच - विचार व कर्म की पवित्रता 
६. इंद्रिय निग्रह - इंद्रियों को वश में करना 
७. धी - बुद्धि एवं विवेका का विकास 
८. विद्या - ज्ञान की प्राप्ति 
९. सत्य - सच्चाई 
१०. अक्रोध - क्रोध न करना

धर्म की इस परिभाषा में कुछ भी सांप्रदायिक नहीं है। भारतीय दृष्टि से लोग अलग पंथ/मजहब/पूजा पद्धति में विश्वास करते हुए इस धर्म का अनुसरण कर सकते हैं। जीवन के प्रति संश्लिष्ट दृष्टि - चार पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मानव जीवन के प्रेरक तत्व।
धर्म राज्य / राम राज्य की अवधारणा : राजा या शासन लोकहित को व्यक्तिगत रूचि या अरूचि के उपर समझे। महाभारत में निर्देश हैं कि जो राजा प्रजा के संरक्षण का आश्वासन देकर विफल रहता है तो उसके साथ पागल कुत्ते का सा व्यवहार करना चाहिए।
अनेकता में एकता : भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि यहां अनेक जातियां, खान-पान, वेश-भूषा, भाषा, प्रांत होने के बावजूद भी राष्ट्र के नाम पर एकता है।
राष्ट्रीयता : भारतीयता राष्ट्रीयता की सशक्त भावना पैदा करने का ही दूसरा नाम है। राष्ट्रीयता में केवल राजनीतिक निष्ठा ही शामिल नहीं होती बल्कि देश की विरासत और उसकी संस्कृति के प्रति अनुशक्ति की भावना, आत्मगर्व की अनुभूति आदि भी शामिल है। भारतीयता सभी भारतीयों में राष्ट्रीयता की सशक्त भावना पैदा करने के सिवाय कुछ भी नहीं है।
राष्ट्रवाद और धर्म का मुखौटा पहनकर नफ़रत की राजनीति करनेवाले लोग और समूह मासूम आमजन और देश को बांटने का कार्य करती हैं, इसका भारतीयता और भारतीय संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है। ये केवल सत्ता की राजनीति करना जानते हैं, इनका किसी भी प्रकार के विकास से कोई ख़ास मतलब भी नहीं होता। और जहाँ तक सवाल सेवा भाव का है तो यह भी इनका एक ढोंग ही होता है। पडोसी के घर में आग लगाकर कोई भी अमन पसंद व्यक्ति या समूह कभी भी चैन से नहीं रह सकता। आज़ादी और ख़ुशी अकेले में अकेले की नहीं बल्कि सामूहिक होती है।
बाबा नागार्जुन की एक कविता याद आ रही है - "किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है"

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है ?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है ?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है, 
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है,
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है, 
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है,
जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला,
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है,
उसी की जनवरी छब्बीस,
उसी का पंद्रह अगस्त है !

बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है,
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है,
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है,
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा,
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है,
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है,
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है !

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है,
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है,
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है,
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है,
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है,
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है !
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है !
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है !
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है !
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो,
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है !

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है,
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है,
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है,
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है,
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है,
गरीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है,
धतू तेरी, धतू तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं,
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है,
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं,
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है,
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं,
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है,
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है !

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है !
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है !
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है,
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है,
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है ।

दस्तक पटना का नाट्योत्सव : रंग दस्तक 2017

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नाट्य दल दस्तक की स्थापना 15 साल पहले हुई थी. तब से लेकर अब तक इस नाट्यदल ने कई नाटकों का मंचन कुशलतापूर्वक किया है. अब दस्तक के अध्याय में एक नया आयाम अब जुड़ने जा रहा है. इस तीन दिवसीय नाट्योत्सव का नाम “रंग-दस्तक -2017” है. इस उत्सव में दस्तक के तीन नाटकों – पटकथा (धूमिल की लंबी कविता) का मंचन प्रेमचंद रंगशाला, पटना में 24 जनवरी 2017 को संध्या 6:30 बजे, भूख और किराएदार नामक नाटक का मंचन क्रमशः 25 व 26 जनवरी 2017 को कालिदास रंगालय, पटना में संध्या 6:30 बजे से किया जाएगा.

नाट्य दल दस्तक के बारे में

रंगकर्मियों को सृजनात्मक, सकारात्मक माहौल एवं रंगप्रेमियों को सार्थक, सृजनात्मक, नवीन और उद्देश्यपूर्ण कलात्मक अनुभव प्रदान करने के उद्देश्य से “दस्तक” की स्थापना सन 2 दिसम्बर 2002 को पटना में हुई. दस्तक ने अब तक मेरे सपने वापस करो (संजय कुंदन की कहानी), गुजरात (गुजरात दंगे पर आधारित विभिन्न कवियों की कविताओं पर आधारित नाटक), करप्शन जिंदाबाद, हाय सपना रे (मेगुअल द सर्वानते के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास Don Quixote पर आधारित नाटक), राम सजीवन की प्रेम कथा (उदय प्रकाश की कहानी), एक लड़की पांच दीवाने (हरिशंकर परसाई की कहानी), एक और दुर्घटना (दरियो फ़ो लिखित नाटक) आदि नाटकों का कुशलतापूर्वक मंचन किया है.

दस्तक का उद्देश्य केवल नाटकों का मंचन करना ही नहीं बल्कि कलाकारों के शारीरिक, बौधिक व कलात्मक स्तर को परिष्कृत करना और नाट्यप्रेमियों के समक्ष समसामयिक, प्रायोगिक और सार्थक रचनाओं की नाट्य प्रस्तुति प्रस्तुत करना भी है.

नाटक पटकथा के बारे में                                                                  

दस्तक, पटना की प्रस्तुति

सुदामा पांडेय “धूमिल” लिखित लंबी कविता

पटकथा

आशुतोष अभिज्ञ का एकल अभिनय

प्रस्तुति नियंत्रक – अशोक कुमार सिन्हा एवं अजय कुमार

ध्वनि संचालन – आकाश कुमार

प्रस्तुति प्रबंधन –  सुजीत कुमार, मंज़र हुसैन

प्रस्तुति संचालक – रेखा सिंह

सहयोग – अरुण कुमार, राहुल कुमार

परिकल्पना व निर्देशन – पुंज प्रकाश

स्थान – प्रेमचंद रंगशाला, पटना

दिनांक – 24 जनवरी 2017

समय – संध्या 6:30 बजे

पटकथा हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित लंबी कविताओं में से एक है जो भारतीय आम अवाम के सपने, देश की आज़ादी और आज़ादी के सपनों और उसके बिखराव की पड़ताल करती है. देश की आज़ादी से आम आवाम ने भी कुछ सपने पाल रखे थे किन्तु सच्चाई यह है उनके सपने पुरे से ज़्यादा अधूरे रह गए. अब हालत यह है कि अपनी ही चुनी सरकार कभी क्षेत्रीय हित, साम्प्रदायिकता, तो कभी धर्म, भाषा, सुरक्षा, तो कभी लुभावने जुमलों के नाम पर लोगों और उनके सपनों का दोहन कर रही है. इस कविता के माध्यम से धूमिल व्यवस्था के इसी शोषण चक्र को क्रूरतापूर्वक उजागर किया है और लोगो को नया सोचने, समझने तथा विचारयुक्त होकर सामाजिक विसंगतियो को दूर करने की प्रेरणा भी देते हैं. कहा जा सकता है कि पटकथा प्रजातंत्र के नाम पर खुली भिन्न – भिन्न प्रकार के बेवफाई की बेरहम दुकानों से मोहभंग और कुछ नया रचने के आह्वान की कविता है. यह कविता बेरहमी, बेदर्दी और बेबाकी से कई धाराओं और विचारधाराओं और उसके नाम के माला जाप करने वालों के चेहरे से नकाब हटाने का काम करती है; वहीं आम आदमी की अज्ञानता-युक्त शराफत और लाचारी भरी कायरता पर भी क्रूरता पूर्वक सवाल करती है.

नाटक- ‘किराएदार’ के बारे में

यह फ़्योदोर दोस्तोव्येसकी की लंबी कहानी “रजत रातें” से प्रभावित नाटक है जो एक लड़का, एक लड़की और एक आदमी के माध्यम से प्रेम की संवेदनाओं सम्बन्धों की पड़ताल दुनियावी मान्यताओं से परे जाकर करता है. यहाँ प्रेम पाने, खोने, यथार्थवादी, आध्यात्मवादी मान्यताओं के परे जाकर एहसासों की बात करता है. यहाँ प्रेम एक मनःस्थिति है न कि खोना, पाना या हासिल करना.

मंच पर – रेखा सिंह, पुंज प्रकाश और आकाश कुमार

प्रकाश परिकल्पना – सुमन सौरव

सहयोग – अरुण कुमार, राहुल कुमार

ध्वनि – सुजीत कुमार

सहायक निर्देशक – अमन कुमार

पूर्वाभ्यास प्रभारी – बादल कुमार

प्रस्तुति नियंत्रक – अशोक कुमार सिन्हा एवं अजय कुमार

प्रस्तुति प्रभारी – सुधांशु शेखर

प्रस्तुति संचालक – मंज़र हुसैन एवं नीतीश कुमार

सानिध्य – ऋचा शर्मा एवं मुन्ना कुमार पांडेय

नाट्यालेख, परिकल्पना और निर्देशन – पुंज प्रकाश

स्थान – कालिदास रंगालय, पटना

दिनांक – 25 जनवरी 2017

समय – संध्या 6:30 बजे

नाटक भूख के बारे में

हाल ही की एक सच्ची घटना है जब एक महानगर में तीन बहनों ने अपने आपको घर के अंदर क़ैद कर लिया था और अपने आपको मजबूरन भूखों मरने के लिए छोड़ दिया था. इस क्रम में छोटी बहन की मौत हो गई और किसी प्रकार दो बहनों को ज़िंदा बचा लिया गया. इस पूरी घटना की पड़ताल करने पर कई पहलू निकलकर सामने आते हैं और हमें देश, समाज, सामाजिक – राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था समेत मानवता के क्रूरतम पक्ष से साक्षात्कार कराते हैं. एक ऐसे देश में जिसकी पहचान ही कृषि प्रधान देश के रूप में हो, वहां इंसानों का भूख से दम तोड़ देना एक भयानक घटना और क्रूरतम सच्चाई नहीं तो और क्या है? सच्ची घटना पर आधारित इस नाटक का लेखन पुंज प्रकाश ने किया है. इस वृतचित्रात्मक नाटक में रेखा सिंह, अरुण कुमार, राहुल कुमार, सुजीत कुमार, मंज़र हुसैन, अमन कुमार, बादल कुमार आदि अभिनेता/अभिनेत्री काम कर रहे हैं.

मंच परे :-

ध्वनि संचालन – आकाश कुमार

सहयोग – सुधांशु शेखर

प्रकाश परिकल्पना – पुंज प्रकाश

सहायक निर्देशक – अमन कुमार

मंच सामग्री – दस्तक परिवार

पूर्वाभ्यास प्रभारी – बादल कुमार

सानिध्य – ऋचा शर्मा व मुन्ना के. पांडेय

प्रस्तुति नियंत्रक – अशोक कुमार सिन्हा एवं अजय कुमार

नाटककार, परिकल्पना एवं निर्देशन – पुंज प्रकाश

स्थान – कालिदास रंगालय, पटना

दिनांक – 26 जनवरी 2017

समय – संध्या 6:30 बजे

इस उत्सव का कोई स्पॉन्सर/ग्रांट नहीं है. रंगप्रेमियों से उचित सहयोग की कामना के साथ टिकट के द्वारा शो करने का एक प्रयास है. टिकट दर 50रू प्रतिदिन है.

अनिल ओझा : गुरु वह जो शालीनता से चुपचाप गढ़ता हो।

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हम सबकी ज़िन्दगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो लगते साधारण हैं लेकिन वो बड़ी ही शालीनता और निःस्वार्थ भाव से आपकी ज़िंदगी को एक सार्थक दिशा देते हैं। किसी ने सही ही कहा है कि हर व्यक्ति गुरु होता है, हम हर किसी से सीख सकते हैं। कोई हमें यह सिखाता है कि क्या करना चाहिए तो कोई हमें यह सीखा जाता है कि क्या नहीं करना चाहिए।
सच्चा गुरु वह है जो आपकी आज़ादी (अराजकता नहीं) और प्रतिभा को विस्तार दे, सत्य का मार्ग दिखाए और सही राह पकडाकर अपने पैरों से चलने को स्वतंत्र कर दे, वह नहीं जो किसी भैंस-गाय की तरह आपके गले में पगहा डाल दे और कहे कि कोल्हू के बैल की तरह ज़िन्दगी भर मेरे आगे पीछे गोल-गोल घूमते रहो।
बाबा कबीर कहते हैं गुरु बिना ज्ञान संभव नहीं। नाट्यकला के क्षेत्र में रंग-चिंतक और प्रशिक्षक स्तानिस्लावस्की का यह कथन न केवल मार्गदर्शन करता हैं बल्कि हार्ड कोर संविधान जैसा ही है। वो कहते हैं - "अध्यापक या प्रशिक्षक को, चाहे वह कितना भी पढ़ा - लिखा क्यों न हो और रंग - प्रदर्शन के विविध स्वरूपों का चाहे उसने कितना ही अभ्यास क्यों न कर रखा हो, चाहे वह रंगकर्मी वयोवृद्ध क्यों न हो गया हो, यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि वह कोई बहुत बड़ा अथवा महामहीम व्यक्ति है। उसे छात्र अभिनेताओं को अपना मित्र, अपना बंधु, अपना आत्मीय समझना चाहिए। उसके विचार और आचार में सहज सामंजस्य होना चाहिए। यह ज़रूरी है कि वह अपने कार्य के प्रति पूर्णतः समर्पित हो। उसके छात्र अभिनेताओं को यह कभी नहीं लगना चाहिए कि कोई वरिष्ठ व्यक्ति आदेशात्मक रूप में उनसे कुछ कराना चाहता है। उसके कथन और कार्य में कुछ ऐसा समन्वय होना चाहिए कि जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, वह दूर से चलकर आए और छात्रों के मन में सहज रूप से संप्रेषित हो जाए।" (स्तानिस्लावस्की peoples and method of creative art.)
सही उम्र, सही स्थान और सही समय पर कोई सच्चा मार्गदर्शक मिल जाए तो ज़िन्दगी सार्थक हो जाती है और कहीं गुरु-घंटालों के चंगुल में फंस गए तो गई भैंस पानी में।
अनिल ओझा मुझे उस उम्र में मिले जब मैं अराजकता की ओर क़दम बढ़ा रहा था। उन्होंने मुझे मानव जीवन और मानवीय व वैज्ञानिक विचार का सही अर्थ केवल प्रवचन मात्र से नहीं बल्कि साथ जी कर बताया। जब लगा कि मैं समझने लगा हूँ तो सही राह दिखाई और बिना कुछ बोले ही कह दिया कि चलते जाओ साथी। इस संघर्ष की शायद कोई मंज़िल नहीं बल्कि रस्ते ही रास्ते हैं। वैसे जब कभी परेशान होता हूँ तब पापा कहते हैं - "संघर्ष ही जीवन है। संघर्ष करो और आगे बढ़ो।"
अनिल की ज़िंदगी बड़ी छोटी थी और एक सड़क दुर्घटना ने उन्हें हम सबसे शारीरिक रूप से जुदा कर दिया लेकिन विचार कभी नहीं मरता, यह भी सच है।अनिल के विचार हम जैसे अनगिनत लोगों के अंदर आज भी ज़िंदा हैं और हर मुश्किल में राह दिखाता है और मुश्किल से मुश्किल समय में भी शालीनता से संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। आज भी जब कभी स्वार्थी बनकर सोचता हूँ तो अनिल फटकार लगा देता है जैसे बोल रहा हो फिर तुम वो नहीं रह जाओगे जो तुम हो। गांधीजी का अंतिम जन ही मार्क्स का सर्वहार है, उसकी फ़िक्र किए बिना दुनियां की कोई भी कला व्यर्थ जैसा ही कुछ है। दारियो फ़ो कहते है - जो कला अपने समय से साक्षात्कार नहीं करता, वह निरर्थक है।
अनिल की ज़िंदगी लम्बी के हिसाब से बड़ी ही छोटी थी लेकिन ज़िन्दगी कितनी लंबी है यह ज़रूरी बात नहीं है बल्कि ज़रूरी यह है कि वह कितनी सार्थक है।
अनिल, निःस्वार्थ और बिंदास जिए और अपने निहायत ही छोटे से जीवन में मुझ जैसे ना जाने कितनों को सही राह दिखा गए। सलाम साथी। तुम हमारे दिलों पर राज करते हो। तुम हमारे अंदर सांस लेते हो।

विकास और Bert Haanstra निर्देशित विश्वप्रसिद्ध शॉट फिल्म है Glass

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नीदरलैंड के निर्देशक Bert Haanstra निर्देशित एक विश्वप्रसिद्ध शॉट फिल्म है Glass. इस फिल्म का निर्माण सन 1958 में हुआ था, फिल्म कि अवधी मात्र 10 मिनट है। फिल्म दो भागों में है। पहले भाग में बड़ी ही सुंदरतापूर्वक कारीगर की कारीगरी से एक से एक रंगीन ग्लास को अलग-अलग शेप लेते हुए दिखाया गया है, वहीं दूसरे भाग में मशीन के द्वारा बड़े ही तकनीकी ढंग से ग्लास शेप ले रहा होता है। हालांकि इससे इंकार नहीं कि दूसरे भाग में काम बड़ी ही तेज़ी से हो रहा होता है लेकिन कोई गडबड़ी होने पर नुकसान भी ज़्यादा दूसरे भाग में होता है। फिल्म का पार्श्व संगीत (Background Music) भी कमाल का है और दृश्य के साथ ना केवल प्रभाव उत्पन्न कर रहा होता है बल्कि अपने आपमें एक भाषा का निर्माण भी बखूबी कर रहा होता है। पहला भाग मानव और मानवीय कला का प्रतीक है तो दूसरा भाग मशीन और उद्योगिक क्रांति की ताकत का। विश्व भर में बहुचर्चित इस फिल्म ने 1959 में Academy Award for Documentary Short Subject का पुरस्कार भी जीता था।
इस बात से इनकार नहीं कि औधोगिक क्रान्ति ने मशीनीकरण को बढ़ावा दिया है और बहुत सारी चीज़ों के उत्पादन में तेज़ी, सहजता और गुणवत्ता के साथ ही साथ समय की बचत का नायब नमूना पेश किया है, लेकिन साथ ही साथ यह भी सच है कि बहुत सारी मानवीय हस्त कलाओं का बड़ी ही बेदर्दी से गला भी घोंटा है। इंसान इनके लिए कलाकारी और उसका रसास्वादन करनेवाला कलाकार और कलाप्रेमी नहीं बल्कि एक उपभोक्ता मात्र है, जो पैसे खर्च करके उत्पाद का उपभोग मात्र करता है।
एतिहासिक सच है कि मानव के विकास में श्रम की भूमिका अतुलनीय रही है। लेकिन यदि बाज़ारवाद के क्रूर चंगुल में फंसकर मानव केवल एक उपभोक्ता मात्र के रूप में परिवर्तित हो जाए तो उसकी विकास प्रक्रिया में अप्राकृतिक अवरोध पैदा होता है, और इससे केवल शारीरिक ही नहीं वरण मानसिक, मानवीय और बौधिक विकास भी प्रभावित होता है।
आज कई ऐसी कलाएं हैं जो मशीनीकरण और बाज़ारवाद का शिकार होकर का या तो खत्म हो गईं  या खत्म होने के कगार पर हैं। इन कलाओं की चिंता ना सरकारों को है, ना उद्योगपतियों को और ना ही समाज के ज्यादतर तबकों (जाति, धर्म, समुदाय) को ही। समाज तो पता नहीं किस बात की तेज़ी में जी रहा है कि उसके पास सही-गलत सोचने तक का वक्त अब नहीं रह गया है। कलाओं की बात की जाय तो वहां सामाजिक स्तर पर बड़ी ही खतरनाक उदासीनता है।
Bert Haanstra निर्देशित एक और शॉट फिल्म Zoo भी एक कमाल की फिल्म है लेकिन इस फिल्म पर बात फिर कभी। अभी आप ग्लास नामक यह फिल्म इस लिंक को क्लिक करके देख सकते हैं – अगर नहीं देखें हैं तो। लिंक यह रहा - https://youtu.be/aLS7--ZLCoI

नाची से बाँची : ज़िन्दगी नश्वर है, कला अमर।

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5 मई को रांची के आर्यभट्ट सभागार में पद्मश्री डॉ राम दयाल मुंडा के कार्यों एवं जीवन पर आधारित फिल्म "नाची से बाँची"नामक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म का प्रीमियर देखने का अवसर प्राप्त हुआ। जिस प्रकार पूरा सभागार खचाखच भरा हुआ था वह अद्भुत था। भीड़ इतनी ज्यादा हो गई कि सभागार के बाहर एक अलग स्क्रीन की व्यवस्था की गई। मेघनाथ दा और उनकी टीम के दो साल के मेहनत का प्रमाण था यह फ़िल्म। अब दर्शकों का यह उत्साह रामदयाल मुंडा के प्रति था, मेघनाथ दा और बीजू टोप्पो के प्रति इस बात से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता बल्कि मूल बात यह है कि एक डाक्युमेंट्री फ़िल्म को देखने के लिए हज़ार के ऊपर लोग पहुंचे थे।
रामदयाल मुंडा झारखंड के शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में आदर से याद किए जाने वाले व्यक्तिव हैं जो आदिवासी जीवन शैली और आदिवासियों के हक़ की पुरज़ोर वकालत करते हैं। मुंडाजी ऊपर से थोपी जा रही विकास के उस अवधारणा के कट्टर विरोधी थे जो स्थानीय निवासियों को उनके जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल कर उजाड़ दे और उन्हें दर-दर भटकने को मजबूर करे। विकास एक अंदरूनी प्रक्रिया है जो कि सामाजिक ज़रूरत से पैदा होती है। बाहर से थोपा गया विकास लुभावना होने के साथ ही साथ सामंती, औपनिवेशिक और पूंजीवाद का पोषक है जिसके चंगुल में फंसकर स्थानीय लोग दर दर की ठोकरें खाने और विरोध करने पर आतंकवादी या नक्सल करार देकर राजकीय हिंसा का शिकार होने को अभिशप्त हुए हैं। वैसे भी आदिवासी समाज स्वयं में खुश और संतुष्ट रहने का प्रेमी है, उसको जल, जंगल और ज़मीन के अलावा और कुछ नहीं चाहिए। उनपर विकास का मध्यवर्गीय और पूंजीवादी मॉडल थोपना कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं कि आदिवासी लोग बड़ी बेहतरीन ज़िन्दगी जी रहे हैं और उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए बल्कि यह है कि उनके लिए विकास का मॉडल ऐसा होना चाहिए जो ना केवल उनकी संस्कृति को प्राकृतिक प्रवाह प्रदान करे बल्कि उनके जीवन शैली (जो कि प्रकृति के ज़्यादा करीब है) को और ज़्यादा कुशल और प्राकृतिक बनाए। धोती-साड़ी हटाकर विदेशी जीन्स थोप देने को विकास मानना मूर्खता है।
प्रसिद्द फ़िल्मकार सत्यजीत राय ने रवींद्रनाथ के ऊपर एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी कुछ ऐसा ही प्रयास और स्नेह मेघनाथ दा का रामदयाल मुंडा के प्रति रहा है। मुंडा जी के ऊपर डाक्युमेंट्री फ़िल्म बनाना मेघनाथ दा के एक गुरु के प्रति एक सच्चे दोस्त शिष्य का समर्पण जैसा ही कुछ है। मुंडाजी एक विशाल व्यक्तित्व के स्वामी थे, उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को 70 मिनट की डाक्यूमेंट्री में समेटना एक दुरूह कार्य है। वैसे भी जीवनी परक कार्य एक ऐसा जाला है जिसका एक छोर पकड़ो तो कई छोर पकड़ना बाकी रह जाता है। मेघनाथ दा और बीजू कितना सफल और कितना असफल हुए हैं यह तो कोई वैसा  जानकार व्यक्ति ही बता सकता है जो रामदयाल मुंडा के जीवन और कार्यों से भली-भांति परिचित हो।
लेकिन तत्काल इतना तो कहा ही जा सकता कि यह दुनियां तथाकथित मुख्यधारा के शोर में इतना संलग्न है कि उसके इंद्रियों तक रामदयाल मुंडा जैसे व्यक्तित्वों की गूंज पहुंची ही नहीं है, यदि इस डाक्युमेंट्री को देखने के बाद मुंडाजी के बारे में जानने-समझने की ललक ही पैदा हो जाय तो इस फ़िल्म को सार्थक माना जाना चाहिए।
रामदयाल मुंडा "अखरा"प्रेमी एक ऐसे व्यक्ति थे जो काम या पढ़ाई के वक्त भी मांदल और ढोल लेकर जाने को प्रेरित करते थे ताकि जब काम करते हुए या पढ़ाई करते हुए मन ऊबने लगे तो इन पर थाप मारकर और इनकी धुनों पर पैर थिरकाकर तरोताज़ा हो फिर से काम में लग जाएं। मुंडाजी चिंतक होने के साथ ही साथ खुद भी एक अच्छे गायक, वादक और नर्तक थे। उन्होंने आदिवासी संस्कृति का न केवल पुरज़ोर अध्ययन किया बल्कि उसपर कई किताबें भी लिखी। मुंडाजी का कथन था "जे नाची उहे बाँची (जो नाचेगा वही बचेगा)"से प्रभावित होकर इस फ़िल्म का शीर्षक रखा गया है। नाचने गाने का सीधा संबंध उत्साह, उमंग और अपनी संस्कृति से है और उत्साह, उमंग और संस्कृति बचेगी तभी समाज बचेगा, अपनी एक विशिष्ट पहचान के साथ क्योंकि संस्कृतियां मानव समाज की आत्मा हैं। तमाम किन्तु-परंतु के बावजूद विविधता इस देश की संस्कृति है और जो सबको एक ही रंग में रंग देने और एक ही संस्कृति को सब पर जबरन थोप देने को तत्पर हैं, दरअसल असली उग्रवादी व देशद्रोही वो ही लोग, विचार और पार्टी है, ना कि वे लोग जो अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए प्रयासरत हैं।
रामदयाल मुंडा मानवीय हितों के प्रबल समर्थक के रूप में विख्यात थे। इसके लिए उन्हें अपनी संस्कृति से लेकर उन सारे देसी-विदेशी नामों की शरण में जाने से कोई परहेज नहीं था जिनके पास मानव के हित में कोई भी ज्ञान हो।
सरल स्वभाव और व्यक्तित्व के मेघनाथ दा और बीजू दोनों पिछले लगभग ढाई-तीन दशक से डाक्युमेंट्री फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इस दौरान इन्होंने गाड़ी लोहरदग्गा मेल, एक रोपा धान, गाँव छोडब नाहीं, development flows from the barrel of the Gun आदि नामक चर्चित और पुरस्कृत फिल्में बनाई हैं। कल जिस प्रकार रांची के निवासी इनकी नई फिल्म "नाची से बाची"देखने लोग उमड़ पड़े, यह इनकी सार्थकता का प्रमाण है।
डाक्युमेंट्री फ़िल्म इस देश में सहिए पर पड़ी एक विधा है जिसकी परवाह करनेवाले लोग बहुत कम हैं। लेकिन इस फ़िल्म के प्रति लोगों का उत्साह और समर्पण आशान्वित करती है और साथ ही यह भी कहती है कि थोड़ा प्रयास कलाकारों को करना है और थोड़ा समाज व सरकारों को। कलाकार लोगों तक पहुंचें, लोग कलाकार की कला तक टिकट खरीदकर पहुंचे और सरकारें व सरकारी संस्थानें कला को संरक्षण और प्रशिक्षण देने के लिए उचित रूप से फलने-फूलने का स्वस्थ्य वातावरण के निर्माण की ओर अग्रसर हो; इन बातों में ही सबकी सार्थकता है।
#नाची से #बाची
निर्देशक - Biju Toppo एवं Meghnath
निर्माता - फ़िल्म डिवीजन
अवधि - 70 मिनट
प्रस्तुति - अखरा
दिनांक - 5 मई 2017
स्थान -आर्यभट्ट हॉल, मोरबादी, रांची

सफलता का रहस्य और सुकरात

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एक विचित्र बात देखने को मिल रही है आजकल। नौजवान तबका जो कि कठोर श्रम और अपने बिंदासपने के लिए जगत प्रसिद्ध है बहुत जल्द ही निराश हो जा रहा है और कभी यह तो कभी वह के चक्कर में पड़कर अपना कीमती और बहुमूल्य समय बर्बाद कर दे रहा है। सफलता और असफलता को लेकर या तो जल्दबाज़ी का शिकार है या फिर सफलता का गूढ़ सूत्र से पूरी तरह अनभिज्ञ। यदि इंसान किसी चीज़ में असफल होते हैं इसका मतलब यह होता है कि उसने उस चीज़ में सफल होने के लिए उतना शिद्दत, ज़िद्द और सही दिशा में मेहनत नहीं दिखलाया जितने की ज़रूरत थी। सफलता-असफलता कई बार स्थितियों-परिस्थितियों पर निर्भर तो करती है लेकिन इसके ज़्यादातर ज़िम्मेदार हम खुद होते हैं, ना कि कोई दूसरा। सफलता-असफलता के सूत्र हमारे अंदर हैं, कहीं बाहर नहीं। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जिन्होंने अपने जुनून से पहाड़ों का सीना चाक कर दिया है। आखिर गया के गहलौत गांव के दशरथ मांझी के पास वो क्या बात थी जिन्होंने अकेले पहाड़ काटके रास्ता बना दिया। कबीर कहते हैं -
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
रसरी आवत जात के सील पर पड़त निशान
अर्थात् अभ्यास करते करते मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान हो सकता है जैसे कुएं में बार-बार रस्सी के आने-जाने से पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है। इस संदर्भ में सुकरात से जुड़ी एक कथा याद आ रही है।
एक बार एक नौजवान लड़के ने सुकरात से पूछा कि सफलता का रहस्य क्या है? सुकरात ने उस लड़के से कहा कि तुम कल नदी के किनारे मिलो। वो लड़का अगले दिन नदी के किनारे सुकरात से मिला। फिर सुकरात ने नौजवान से उनके साथ नदी की तरफ बढ़ने को कहा। वे दोनों नदी में आगे बढ़ने लगे और जब आगे बढ़ते बढ़ते पानी गले तक पहुंच गया, तभी अचानक सुकरात ने उस लड़के का सिर पकड़ के पानी में डुबो दिया। लड़का पानी से बाहर निकलने के लिए संघर्ष करने लगा, लेकिन सुकरात ताकतवर थे और उसे पानी में तबतक डुबोए रखा जबतक कि वो लड़का नीला नहीं पड़ गया। फिर सुकरात ने उसका सिर पानी से निकाल दिया और बाहर निकलते ही जो काम जो काम उस लड़के ने सबसे पहले किया, वो था हांफते-हांफते तेज़ी से सांस लेना।
थोड़ा सामान्य होकर लड़के ने क्रोधित होकर सुकरात से पूछा - आप क्या मुझे मार डालना चाहते थे?
सुकरात ने शांत स्वर में पूछा - जब तुम पानी के भीतर थे तब तुम सबसे ज़्यादा क्या चाहते थे?
लड़के ने उत्तर दिया - सांस लेना।
सुकरात ने कहा - यही सफलता का रहस्य है। जब तुम सफलता को उतनी ही बुरी तरह से चाहोगे जितना कि तुम सांस लेना चाहते थे, तो वो तुम्हें मिल जाएगी। इसके अलावा इसे पाने का कोई रहस्य नहीं है।
पाब्लो कुइलो ने भी अपने विश्व प्रसिद्द उपन्यास अल्केमिस्ट में यह पंक्ति बार बार दुहराते हैं - किसी चीज़ को तुम दिल से चाहो तो पूरी कायनात तुम्हें उससे मिलाने की जिद्द ठान लेती है। इस लाइन को शाहरुख खान की एक हिंदी फिल्म ने भी खूब इस्तेमाल किया बिना पाब्लो को आभार बोले हुए।
सो निराश होने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि हर असफलता के भीतर सफलता के सूत्र छिपे होते हैं बस ज़रूरत है उसे पहचानने और सही व सार्थक दिशा में सतत प्रयत्न करते रहने की।
#सुकरात के किस्से के लिए साभार #प्रभात #ख़बर

बाज़ार और स्वदेशी

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Gadgets के बारे में पढ़ना और जानकारी इकट्ठा करना मुझे बेहद पसंद है। इसके पीछे शायद कारण यह है कि मुझे Gadgets सबसे क्रांतिकारी वैज्ञानिक अविष्कारों में से एक लगता है - ख़ासकर मोबाइल फोन। इस छोटी सी चीज़ ने अपने अंदर कितनी चिज़ों को समेट लिया है - इंटरनेट, फोन, घड़ी, म्यूज़िक प्लेयर, टाइप राइटर, कम्प्यूटर, कैलेंडर, चिट्ठी और पता नहीं कितनी चीज़ें इस छोटे से Gadget में समाहित हो गया है और आनेवाले दिनों में और पता नहीं क्या क्या इसमें जुड़ेगा। इस उपकरण के बिना आज शायद ही किसी का काम चलता हो - खासकर शहरों में। 

आज भारतीय बाजारों में एक से एक Gadgets उपलब्ध हैं लेकिन अफसोस की बात यह है कि ज़्यादातर बाजार पर विदेशी कंपनियों का कब्ज़ा है। सिर्फ Gadgets Market ही नहीं वरण आज पूरे बाज़ार पर ही विदेशी कंपनियों ने कब्ज़ा जमा रखा है और स्वदेशी के नाम पर जो कंपनियां बाज़ार में हैं उनके Product ज़्यादातर निहायत ही घटिया हैं और जो कुछ बढ़िया और ठीक-ठाक हैं - उनकी क़ीमत ज़्यादा है। शायद इसीलिए उन्हें अपने Product बेचने के लिए धर्म, भारत, भारतीयता और देशप्रेम का सहारा लेना पड़ता है और हम भारतीय इस मामले में इतने मूढ़ हैं कि जाति, धर्म और देश की बात होते ही हमारे दिल, दिमाग और आंखें बंद हो जाती हैं और हम किसी भी अंधी गली में घुस पड़ने को तत्पर हो जाते हैं। 
भारत अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से इसलिए आज़ाद नहीं हुआ था कि विदेशी कंपनियां उसके बाज़ार पर कब्ज़ा कर लें या स्वदेशी के नाम पर रद्दी Product देशप्रेम की चाशनी में घोलकर परोसा जाए। हद तो यह है कि स्वदेशी का जाप करनेवाली हमारी सरकारें कोई मजबूत स्वदेशी infrastructure बनाने के बजाय विदेशियों और विदेशी कंपनियों को भारत आकर व्यापार करने का आमंत्रण देने में खुद को ज़्यादा सहज महसूस करती हैं। यह सबकुछ आज शुरू हुआ हो ऐसा नहीं है बल्कि इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि हम colonial मानसिकता से शायद कभी मुक्त ही नहीं हुए और फिर सामंती मानसिकता तो हमें विरासत में मिली ही है। 
East India Company के व्यापारी खुद व्यापार करने आए थे और हम अब आज Open Market के निहायत ही बकवास और बाज़ारू आइडिया का ग़ुलाम हो अपना बाज़ार खोलकर खुद बुलावा दे रहे हैं कि आओ और हमें आर्थिक रूप से फिर से ग़ुलाम बना लो। (शायद बहुत हद तक हम बन भी चुके हैं।) वैसे काफी हद तक बना भी चुके हैं। सनद रहे कि कोई भी व्यापारी अपना फायदा पहले देखता है और उसके लिए उसे कोई भी लेबल लगाने से कोई गुरेज नहीं होता। वैसे हम पता नहीं किस अंधी दौड़ में शामिल हैं कि हमें इन सब बातों से कोई खास फर्क पड़ता भी नहीं है।

हूल विद्रोह : भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम !

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अमूमन इतिहासकार 1857 के सिपाही विद्रोह को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई मानते हैं लेकिन तथ्यों की पड़ताल करने पर कई अन्य विद्रोह भी सामने आते हैं जो सिपाही विद्रोह से पहले के हैं और इन विद्रोहों की भूमिका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ज़मीन तैयार करने में कमतर नहीं रही है। इन्हीं विद्रोहों में से एक विद्रोह है झारखण्ड का हूल विद्रोह जिसका नेतृत्व सीधो, कान्हू, चांद और भैरव ने किया था।
आदिवासी समाज स्वतंत्रता का पोषक रहा है। जल, जंगल और ज़मीन के साथ वो अपने तरीके से स्वतंत्र जीने में विश्वास करता है। हूल विद्रोह की पृष्टभूमि पर सरसरी निगाह डालें तो तथ्य कुछ यूं निकलकर सामने आते हैं – आदिवासियों ने यह महसूस किया कि उनकी आज़ादी के ऊपर लगाम लगाया जा रहा है। उन्हें मालगुज़ारी, बंधुआ मज़दूरी और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा था। ब्रिटिश राज में मालगुज़ारी नहीं देने पर आदिवासियों की ज़मीन नीलाम कर दी जाती थी। 30जून 1855को भोगनडीह नामक जगह में लगभग 28000आदिवासियों की सभा हुई जिनमें संताल, पहाडिया व अन्य जनजातीय समुदाय के लोग शामिल हुए। इस सभा में सिदो को राजा, कान्हो को मंत्री, चांद को प्रशासक और भैरव को सेनापति नियुक्त करते हुए यह घोषणा की गई कि “अंग्रेज़ी राज गया और अपना राज कायम हुआ”। लोगों ने अंगेज़ी राज को मालगुज़ारी देना बंद किया और अंग्रेज़ी राज के खिलाफ़ अपने पारंपरिक हथियारों के साथ विद्रोह शुरू कर दिया। 11-13जुलाई 1855को अंग्रेज़ों ने इस विद्रोह को कुचल दिया। सिद्धो, कान्हू और भैरव महेशपुर के युद्ध में शहीद हो गए। इस क्रांति में लगभग30,000लोग शहीद हुए, इसमें कई लड़ाका महिलाएं भी थीं।
भारतीय इतिहास की किताबों में भले ही इस विद्रोह को सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं है किन्तु झारखण्ड के आदिवासी आज भी अपने इस विद्रोह और उनके नायकों को अपने गीतों और संस्कृति में याद रखते हैं। सिद्धो, कान्हू, भैरव और चांद को लेकर आज भी ये अपने गीतों में बड़े ही आदर से याद करते हैं। स्थानीय निवासी आज भी अबुआ राज के इस संघर्ष को भूले नहीं हैं बल्कि उसे अपनी संस्कृति का अंग बना चुके हैं। आज इतिहासकार इन्हीं गीतों के माध्यम से इन वीरों की गाथा सुनते, लिखते और गुनते हैं। वैसे भी असली नायक वह है जो जन के दिलों में ज़िंदा रहे, वह नहीं जिन्हें व्यवस्था बार-बार जीवित करे और उनकी उपलब्धियों का रट्टा मरवाए।

किसी ने सच ही कहा है कि राजा-महाराजा, नेता-अभिनेता का इतिहास तो है लेकिन जनता और जननायकों का इतिहास अभी लिखा जाना बाकी है।

चार्ली चैप्लिन : हास्य एक गंभीर विषय है।

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टीवी से अमूमन दूर ही रहता हूँ लेकिन कभी-कभी तफ़रीह मार लेता हूँ। आज तफ़रीह के चक्कर में #Romedy_Now नामक चैनल पर गया तो देखा चार्ली चैप्लिन की फ़िल्म#The_Circus आ रही है। अब चार्ली की कोई फ़िल्म आ रही हो और उस पर से मेरी नज़र हट जाए, ऐसा तो आजतक हुआ नहीं। मुझे वो विश्व के इकलौते कलाकार लगते हैं जिन्होंने अभिनय, निर्देशन, पटकथा, निर्माण और संगीत में एक आदर्श स्थापित किया और दुनियां के तमाम अभिनेताओं को यह बताया कि देखो एक अभिनेता अपनी कला से क्या आदर्श रच सकता है। जब पूरी दुनियां विश्वयुद्ध के पागलपन में अंधी हुई पड़ी थी, हर ओर नफ़रत और साज़िश की बू थी, ठीक उसी वक्त एक कलाकार अपनी कला से दुनियां को प्रेम, स्नेह, त्याग के साथ हास्य-व्यंग्य का अमृत पिला रहा था। जब पूरी दुनियां हिटलर के आतंक से आतंकित थी और बड़े से बड़ा कलाकार या तो हिटलर की चापलूसी करने में व्यस्त थे या फिर बेदर्दी से मौत के घाट उतारे जा रहे थे ठीक उसी वक्त #The_Great_Dictator नामक फ़िल्म बनाकर पूरी दुनियां समेत ख़ुद हिटलर को यह एहसास करवाना कि देखो यह जो तुम दुनियां का मसीहा बनने की कोशिश कर रहे हो दरअसल तुम कितने फेक, फेंकू और हास्यास्पद हो, कोई माज़क नही है।
चार्ली की कला का मूल स्वर हास्य-व्यंग्य है। बहुतेरे लोग जिसमें कुछ पढ़े-लिखे महाज्ञानी भी हैं, हास्य-व्यंग्य को बड़ा ही कमतर आंकते हैं। कुछ तो भाव ही नहीं देते। शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि हास्य-व्यंग्य एक गंभीर विषय होता है और व्यक्ति कभी भी हास्यास्पद होना पसंद नहीं करता। मौलियार अपने नाटकों में जब तथाकथित सभ्य लोगों को हास्यास्पद बनाते हैं, तो वो दरअसर शराफत के उस नकली परत को भेद रहे होते हैं जिसे ओढ़कर दोहरी मानसिकता में जीनेवाला समाज खुद को सुरक्षित, सुखी और संपन्न महसूस करता है। 
हमारे यहां बुद्धिजीवी तबका मुस्कुराने तक से परहेज़ करता है और दुनियां की ऐसी तैसी करते हुए किसी अंदरूनी बीमारी के मरीजों की तरह सड़ा हुआ चेहरा बनाए रखने में ही अपनी विद्वता समझता है। वहीं सामान्य जन की स्थिति यह है कि अवतारवाद के अफीम ने उन्हें ऐसे ग्रस्त लिया है कि वो कभी कोई लोड ही नहीं लेता। उसे तो हर बात में "मनोरंजन"चाहिए, घटिया या सतही ही सही। 
और हास्य-व्यंग्य की स्थिति यह कि हरिशंकर परसाई से ज़्यादा सम्मान और प्रतिष्ठा टीवी पर किसी छिछोरे शो के एंकर का है। अकबर-बीरबल, गोनू झा, तेनालीराम, देवेन मिसिर आदि के किस्सों का मर्म समझना आज भी रहस्य बना हुआ है। 
बहरहाल, #The_Circus एक प्रेम कहानी है। जहाँ प्रेम का अर्थ किसी व्यक्तिगत संपात्ति की तरह हीरो या हीरोइन को हासिल कर लेना भर नहीं है बल्कि यहां उसकी ख़ुशी ज़्यादा मायने रखती है जिसे आप प्यार करते हैं। हालांकि, अमूमन भारतीय सिनेमा, सीरियल और ग्रंथ जैसे-तैसे हीरो-हीरोइन को मिलवा या हासिल कर लेने का आदर्श ही स्थापित करते हैं, उसके लिए चाहे उसे कितनी भी हत्या करनी पड़े। पति या प्रेमी अमूमन अपनी पत्नियों या प्रेमिकाओं को व्यक्तिगत संपात्ति से ज़्यादा महत्व नहीं देते। शैलेन्द्र जब हिरामन और हीराबाई की स्नेह कथा तीसरी क़सम बनाते हैं और अंत में हीराबाई शारीरिक रूप में हिरामन से दूर चली जाती है तो वितरक उनसे अंत बदलने को कहते हैं ताकि फ़िल्म का तथाकथित सुखद अंत हो और वितरक इस सुखद अंत को अफीम की तरह दर्शकों में बांट या बेच सकें। जब शैलेंद्र ऐसा नहीं करते तो फ़िल्म ढंग से रिलीज़ तक नहीं होती। वैसे भी एक ऐसे समाज में जो प्रेम की पूजा तो करता है लेकिन व्यवहार में उसकी मानसिकता सामंती और प्रेम विरोधी हो, वहां नकली सुख की ही प्रधानता ज़्यादा होती है। वहां नकली सुख बेचे और खरीदे जाते हैं। 
ऐसी दुनियां में अभी से कई दशक पहले चार्ली चैप्लिन नामक यह कलाकार दुनियां के चेहरे पर मुस्कान लाते हुए सच्चे प्रेम का पाठ पढ़ता है। इस पाठ को आज भी पढ़ना और समझना ज़रूरी है। ख़ासकर जब लोग नफ़रत की खेती और गलतबयानी करके बड़ी आसानी से अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। 
यह दुनियां नफ़रत और साजिशों की बदौलत नहीं बल्कि प्रेम, स्नेह और प्रकृति की वजह से ख़ूबसूरत है। इसे खूबसूरत बनाना ही मानव और मानवीय कला का एकमात्र उद्देश्य हो सकता है। 

चार्ली चैप्लिन : अमृत और विष !!!

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90 का दशक था। एंटीना और स्वेत-श्याम टेलीविजन वाला युग। चैनल के नाम पर एकलौता दूरदर्शन था। केबल और डीटीएच टीवी का आतंक अभी कोसों दूर था। दुरदर्शन पर रविवार की सुबह चार्ली चैप्लिन की फिल्में दिखाई जा रहीं थीं। चार्ली की फिल्मों का असली मर्म समझने की हमारी उम्र और समझ थी नहीं लेकिन फिर भी पता नहीं क्या आकर्षण था कि पूरे का पूरा एपिसोड देख जाते। उन दिनों रंगमंच, अभिनय आदि से मेरा कोई वास्ता नहीं था। हाँ, कुछ लुगदी साहित्य और चलताऊ पत्रिकाओं से वास्ता पड़ता रहता था। पापा की वजह से अख़बार और कुछ अच्छी समाचार पत्रिका भी पलट भर लेता था। 
उन्हीं दिनों चार्ली की फ़िल्मों में सबसे ज़्यादा जो चीज़ मुझे आकर्षित की वो थी चार्ली की आंखे। वैसे तो चार्ली की कला का मुख्य स्वर हास्य-व्यंग्य रहा है किंतु उनकी कंचई आंखों में मुझे उदासी ही उदासी दिखतीं। बाद के दिनों में जब चार्ली की बॉयोग्राफी Chaplin : his life and art पढ़ी और Robert Downey Jr द्वारा अभिनीति चार्ली के जीवन पर बनी अद्भुत फ़िल्म Chaplin (1992) देखी, डीवीडी ख़रीदकर उनकी लगभग सारी फिल्में कई बार देखी, उनके ऊपर कई आलेख और किताबें पढ़ीं तब यह समझ में आया कि दुनियां को मानवीय, खूबसूरत और उल्लासपूर्ण बनाने का ख़्वाब देखनेवाले इस कलाकार का जीवन कितना त्रासदियों से भरा था। वैसे भी चिराग़ तले अंधेरा ही होता है। लेकिन मीर ने क्या खूब कहा है - 
दुनियां में रहो ग़मज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ करके चलो जाके बहुत याद रहो। 
चार्ली इस शेर के जीते जागते मिसाल हैं। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी को अपनी कला के ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। ना जाने कितनी बार सपने टूटे, आशियाना उजड़ा, फरेब मिला लेकिन उनकी कला हमेशा मानवता और त्याग के पक्ष में पुरज़ोर तरीक़े से खड़ी रही। अपने व्यक्तिगत जीवन के कड़वे अनुभव से उन्होंने दुनियां को नहीं परखा बल्कि खुद शंकर की भांति विष ग्रहण किया लेकिन दूसरों के हिस्से अमृत ही छोड़ा। शायद यही है एक सच्चे कलाकार का दायित्व। जो अपना और अपनों के स्वर्थपूर्ती में ही बेचैन रहे वो कलाकार कम मुनाफाखोर व्यापारी ज़्यादा है। वैसे भी एक कलाकार की दुनियां में पूरा ब्रह्मांड समाहित होता है। 
मैं चार्ली की फ़िल्में देखते हुए कभी ठहाका लगाया होऊंगा, मुझे याद नहीं आता। हां, एक दृश्य ज़रूर है जिसको याद आते ही मैं नींद में भी मुस्कुरा सकता हूँ। वो दृश्य उनकी महानतम फ़िल्म #Mordern_Times में आता है जब वो सुबह उठकर नदी में नहाने के लिए कूदते हैं और पता चलता है कि नदी में पानी ही बहुत कम है। आज सोचता हूँ कि बतौर अभिनेता अगर मुझे वो दृश्य करना होता तो क्या मैं कर पाता? और उसका जवाब है - नहीं। चार्ली का कोई भी एक्ट कर पाना बड़े से बड़े अभिनेता के कूबत से बाहर की चीज़ है तो हम जैसों की क्या विसात! चार्ली चैपलिन अभिनय के उस आदर्श का नाम है जहाँ तक पहुंचने का ख़्वाब एक अभिनेता पालता है, पालना चाहिए।
चार्ली अपने समय से कई सदी आगे के कलाकार हैं। उन्होंने प्रस्तुति से लेकर कथ्य तक मे कई ऐसे प्रयोग किए जो आज भी लोगों के लिए एक आदर्श है। उनकी कई फिल्में आज की फिल्में लगती हैं। कई तो आज से भी आगे की हैं। 1936 में अपनी फ़िल्म #Modern_Times में जिस मशीनीकरण की परिकल्पना उन्होंने की और जिस तरह उसे फिल्माया, वहां तक तो हम आजकल नहीं पहुंच पाए हैं। सन् 1940 में जिस #The_Great_dictetor की परिकल्पना चार्ली करते हैं हम आज उस तरफ कुछ कदम ज़रूर बढ़े हैं। अब हमें पार्टियों और विचार को नहीं बल्कि व्यक्ति को वोट कर रहें हैं। चाहे प्रधानमंत्री का चुनाव हो, मुख्यमंत्री का या मुखिया का। लोकतंत्र में व्यक्ति को विचार और विचारधारा और पार्टी से ज़्यादा भाव देना एक ख़तरनाक संकेत है और मूर्खता की हद तो यह कि हमें इस पागलपन में आनंद आ रहा है। आज एक तरह से पूरी दुनियां में ही अधिनायकवाद की एक ऐसी लहर चल रही है जो विनाशकारी है। यह दुनियां धर्म, जाति, समुदाय के नाम पर एक और विश्वयुध्द नहीं झेल सकती। इस ख़तरनाक प्रवृति से यदि दुनियां को कोई उबार सकता है तो वो हैं हम आम जन, नेतागण को हमें इस अंधी गली में धकेलकर और झूठे सच्चे ख़्वाब बेचकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। वैसे भी यदि लोकतंत्र सुचारू रूप से संचालित नहीं होता तो वहां अराजकता का राज होता है और वहां से तानाशाही प्रवृति का उदय होता है, जो दुनियां को एक ऐसे अंधेरी कोठारी में धकेल देती है जहां अमानवता के पास सिसकने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता। ऐसी प्रवृति से हमें सच्चा ज्ञान और वैज्ञानिक चेतना ही उबार सकता है बशर्ते अफवाहों और झूठे वादे को चीरकर हमारे अंदर सच का सामना करने की हिम्मत हो, ठीक उस हंस की तरह तो दूध में मिले पानी को अलग-अलग करने की क्षमता रखता है। सनद रहे, आस्थाएं अंधी होती हैं।
सत्य का मार्ग ज़रा दुर्गम है। लेकिन बिना गहरे पानी में पैठ लगाए मोती हासिल किया भी नहीं जा सकता और जो कलाकार गहरे पैठने से बचे, वो कलाकार कैसा !!! कलाकार कहलाने की कुछ शर्तें और ज़िम्मेदारियाँ होतीं हैं। कला के क्षेत्र में घुसपैठ करनेवाला हर व्यक्ति कलाकार नहीं होता।

#फोटो - चार्ली का नदी में वो जम्प ।

चार्ली चैपलिन : #The_Gold_Rush : प्यार काफी है हर काम को करने के लिए ।

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सोने की खोज में बर्फीले तूफ़ान में फंसे भूख से बिलबिलाते दो लोग। कोई चारा ना देखकर अन्तः जूता पकाया जाता है और उस पके जूते को खाया भी जाता है। विश्व सिनेमा में यह दृश्य अद्भुत और अनमोल है और इस दृश्य को अपनी लेखनी, निर्देशन, कल्पनाशीलता, प्रतिभा और अभिनय से रचा है चार्ली चैपलिन ने। सन 1925 में लगभग डेढ़ घंटे की यह फिल्म है #The_Gold_Rush। यह दृश्य विश्व सिनेमा में एक क्लासिक का दर्जा ना जाने कब का हासिल कर चूका है। वैसे इस फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जिसकी नक़ल आजतक हो रही है। वैसा ही एक दृश्य है तूफान में कॉटेज का एक खाई के पास जाकर अटक जाना। इस दृश्य को अभी हाल ही की हिंदी फिल्म वेलकम में देखा जा सकता है। 
चार्ली चैपलिन अपनी कला में परफेक्शन के लिए भी जाने जाते थे। वो अपनी फिल्मों के फिल्मांकन से तबतक संतुष्ट नहीं होते जबतक की वो दृश्य ठीक वैसे ही फिल्मा नहीं लिया जाता जैसा कि उन्हें ने अपनी कल्पना में उसे फिल्मा रखा है। इसके लिए उन्हें जितनी भी मशक्कत करनी होती, जितना भी खर्च करना पड़ता - वो अवश्य ही करते। वैसे भी जैसे-तैसे कला की रचना नहीं होती और समझौतावादी और विशुध्द व्यवसायिक नजरिया तो कला का दुश्मन है। फ़िल्म एक कला है पहले उसके बाद कुछ और। हमें कला को समझने के लिए कलात्मक रूप से शिक्षित भी होना पड़ेगा नहीं तो हम कला के नाम पर सांस्कृतिक प्रदूषण के शिकार होकर रह जाएगें। 
वो फिल्मों का शुरूआती दौर था और फ़िल्में आज की तरह डिजिटल नहीं थी और ना ही तकनीक के स्तर पर आज जैसा उन्नत ही। फिर भी चार्ली ने अपनी फिल्मों हर प्रकार से जिस तरह के प्रयोग किए वो आज भी कई फिल्म बनानेवालों के लिए एक प्रेरणाश्रोत से कम तो कताई ही नहीं है। उनकी फ़िल्में बिना शब्द के सबकुछ महसूस करवा देने की क्षमता रखतीं हैं। चार्ली कहते हैं - "हम सोचते बहुत हैं और महसूस बहुत कम करते हैं।"
बहरहाल, तो बात उनकी फिल्म #The_Gold_Rush की हो रही थी। चार्ली की यह फिल्म दो भागों में आगे बढती है। पहला भाग सोने की तलाश में बर्फ के तूफानों में भटकते इन्सान रूपी जीव हैं तो दुसरे भाग में एक मज़ाक से शुरू हुआ एक प्रेम कहानी। 
चार्ली एक सामान्य अच्छे सकारात्मक आदमी के चित्रण के चितेरे हैं। ऐसे चरित्र का चित्रण आसन काम कभी नहीं रहा। यही कोशिश अपने महानतम उपन्यास बौड़म में करते हुए महान रुसी लेखक दोस्तोयेव्स्की लिखते हैं – “इस उपन्यास के विचार को मैं कब से अपने मन में संजोये रहा हूँ, पर यह इतना कठिन था कि बहुत समय तक उसे हाथ लगाने का मुझे साहस नहीं हुआ। उपन्यास का मुख्य विचार सकारात्मक रूप से एक बहुत अच्छे इंसान का चित्रण करना है। दुनियां में इससे कठिन कोई दूसरा काम नहीं है; विशेष रूप से इस समय। जो सुन्दर है वह एक आदर्श है, और उसका अभी तक पूरा विकास नहीं हुआ है।” 
चार्ली इस सुन्दरता और सादगी को कैमरे में बड़ी ही शालीनता से कैमरे में कैद कर रहे थे, जिसे प्रस्तुत करना आजतक लोगों के लिए एक चुनौती बना हुआ है। चार्ली हिरोपंथी से परे सरलता और सहजता के कलाकार हैं। उनका नायक मानवीय दुःख-तकलीफ, खूबियाँ-खामियां से लैश है। अमूमन उन्हें हास्य का मास्टर माना जाता है लेकिन उनकी फ़िल्में देखते हुए यह एहसास आसानी से होता है कि वो हास्य प्रस्तुत करते हुए हास्यास्पद नहीं होते और बड़ी ही कुशलता से हास्य में करुणामय अंश जोड़ देते हैं। एकांत उनकी फिल्मों का एक ज़रूरी अंग रहा है। याद कीजिए फिल्म #The_Gold_Rush का वह दृश्य जब नायिका के मज़ाक को सच समझकर चार्ली अकेले नए साल के भोज का प्रबंध करते हैं और फिर इंतज़ार की घड़ियों में सपनों में खो जाते हैं और जब सपना टूटता है तब वो इस यथार्थ जगत में अकेले हैं – नितांत अकेले। यह अकेलापन किसी भी सृजनशील कलाकार का नितांत अपना होता है। इसी अकेलेपन में वो निराशा होता है, रोता है, कुढ़ता है, चिंतन करता है, सपने देखता है और रचनाशील भी होता है। गौतम भी इसी एकांत की वजह से बुद्ध बने। प्रसिद्द जर्मन कवि राइनेर मारिया रिल्के कहते हैं – “अपने एकांत को प्यार करो और उसकी उपजाई पीडाओं के बीच भी मग्न रहना सीखो।” स्वयं चार्ली चैपलिन कहते हैं – “जीवन अद्भुत और रोमांचक बनेगा अगर लोग आपको अकेला छोड़ दें तो।"लेकिन आज हालात यह है कि हम एकांत होकर भी शायद ही अकेले हो पाते हैं। पूंजीवादी समाज तो इन्सान को समूह से काटकर तमाम भौतिक चीजों के बीच एकांत में पटक देने के लिए कुख्यात है ही। पूंजीवादी समाज में पैसा ही भगवान होता है और इन्सान इस पैसे को किसी भी तरह अपने वश में कर लेना चाहता है। क्या अमीर और क्या गरीब, सब इसी पैसे के पीछे भागते हैं – अपनी जान और सेहत की परवाह किए बगैर। यहाँ मानवता और मानवीय संवेदना का कोई ख़ास महत्व नहीं होता। चार्ली की फिल्म #The_Gold_Rush याद कीजिए। प्रतिकूल परिस्थियों की परवाह किए बैगैर सोने की खोज में लोग हजारों की संख्या में बर्फीले बियाबान में अपना लाव-लश्कर लेकर निकल पड़े हैं। सबको किसी ना किसी प्रकार वहां पाया जानेवाला सोना चाहिए। इस सोने के लिए एक इंसान दूसरे इंसान की हत्या तक करने से नहीं चूकता। पहले ही शॉर्ट में सोने की तलाश में लम्बी कतार में जा रहा एक इंसान दम तोड़ देता है लेकिन किसी भी दुसरे इंसान को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता और वो सोने की तलाश की अपनी यात्रा चालू रखता है। आगे लगभग आधे घंटे तक फिल्म में इंसान तो हैं लेकिन इंसानियत का कहीं नामोंनिशान तक नहीं। वहां है तो केवल सोने की भूख।
इन्सान बाकी जीवों से इतर इसलिए नहीं है कि उसकी बनावट अलग है बल्कि इतर इसलिए है क्योंकि उसके अन्दर बुद्धि, विवेक और इंसानियत नामक अतिसंवेदनशील और अनमोल चीज़ का निवास होता है। एक संवेदनशील इंसान की दुनियां केवल अपने और अपनों तक ही सीमित नहीं होती बल्कि उसमें पूरा ब्रह्माण्ड समाहित होता है। लेकिन जब इंसानियत और मानवीय संवेदना से ज्यादा पूंजी की सत्ता की पूछ हो तो वहां व्यक्ति आत्मकेंद्रित और भयभीत होता है और बाकी सारी चीज़े उसके लिए या तो साधन होता है या फिर साध्य। हालत इस कदर खराब हो जाती है कि भूख लगने पर सामनेवाला इंसान भी उसे मुर्गा दिखाई पड़ता है। याद कीजिए फिल्म का वह दृश्य जब बर्फीले तूफान में फंसे दो व्यक्ति एक दुसरे को ही संदेह की नज़र से देखने लगते हैं। कौन, कब, कैसे दुसरे की हत्या कर दे – पता नहीं। यह शक, भय से उत्पन्न होता है और भय इतना भयानक होता है कि वो इंसान अपने-पराए तक में भेद नहीं करता। ब्रेख्त की एक एकांकी है – घर का भेदी। उसमें पति-पत्नी हिटलर की तानाशाही प्रवृति को लेकर बहस कर रहे होते हैं कि एकाएक उन्हें अपने एकलौते बेटे पर यह शक हो जाता है कि वो यह बात किसी को बाहर तो नहीं बता देगा। आज हमारे देश में भी ऐसा ही माहौल बनाने की चेष्टा की जा रही है। एक से एक नकली आदर्श गढ़े जा रहे हैं। एक ख़ास व्यक्ति, वाद, धर्म या पार्टी की आलोचना देशद्रोह की श्रेणी में डाल दिया जा रहा है। इस बात की किसी को कोई परवाह नहीं कि आलोचना लोकतंत्र की बुनियाद होती है। यहाँ विरोध का भी उतना ही महत्व होता है जितना सत्ता पक्ष का। लेकिन जब सत्ता पक्ष विरोधियों को कुचलने या ख़त्म कर देने तथा विरोध पक्ष किसी भी प्रकार सत्ता पर काबिज़ होने की कूटनीति में व्यस्त हो तो वहां लोकतंत्र की पास बिलखने के अलावा कोई और चारा नहीं रहता। आज तानाशाही की चाशनी में लोकतंत्र का फलूदा पकाया जा रहा है और हद तो यह है कि हम सब कोई विकल्प रचने और चीजों को और ज्यादा सुन्दर, कोमल और मानवीय बनाने के बजाए इस फालुदे में ड्राई फ्रूट्स डालने का काम कर रहे हैं। 
चैप्लिन कहते हैं - "आपको शक्ति (पॉवर) की तभी जरूरत होती है जब आप किसी को नुकसान पहुंचाना चाहे, अन्यथा प्यार काफी है हर काम को करने के लिए।"

ये मोह मोह के धागे : दम लगाके हैशा

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कुछ फिल्में बड़ी ही स्मूथ, स्वीट, सादगीपूर्ण और सौम्य होती हैं। ये फिल्में भले ही बॉक्स ऑफिस पर कोई बड़ा धमाल नहीं करतीं लेकिन जो भी इन्हें देखता है काफी दिनों तक इसके सादगीपूर्ण सम्मोहन से उबर नहीं पता। भारत में ऐसी फिल्मों का एक बड़ा ही समृद्ध इतिहास रहा है। ऋषिकेश मुखर्जी बड़े मास्टर थे इस काम के।
लेकिन हम तत्काल बात कर रहे हैं सन् 2015 में आई फ़िल्म "दम लगाके हैशा"की। वरुण ग्रोवर लिखित और पापॉन तथा मनाली ठाकुर द्वारा गाया हुआ शानदार गीत "ये मोह मोह के धागे, का जादू आज भी कायम है। यह गाना इसी फिल्म का है। आश्चर्यजनक रूप से इस गाने की धुन अनु मलिक ने बनाई है। हम बस दुआ ही कर सकते हैं कि उनका यह गाना कहीं से कॉपी मारा हुआ ना हो! फ़िल्म का शानदार बैकग्राउण्ड संगीत कंपोज किया है इटालियन कंपोजर Andrea Guerra ने। शरद कटारिया लिखित निर्देशित यह फ़िल्म बड़े ही सौम्य ढंग से बेमेल अरेंज मैरेज की कहानी कहती है। फ़िल्म ज़्यादा कौप्लिकेशन में नहीं जाती बल्कि कह सकतें हैं कि सतह पर ही तैरती हुई भारतीय सिनेमा की "महान"कमाऊ परंपरा "Happy Ending"की तरफ निकल जाती है। 
इस फ़िल्म के लिए अभिनेत्री भूमि पेडनेकर को काफी सराहना भी मिली थी; जो कि निश्चित रूप से मिलनी भी चाहिए क्योंकि भूमि बड़ी सफाई से मायानगरी में व्याप्त अभिनेत्रियों के बेबी डॉल इमेज को तोड़ती हैं। यहां हॉट, सेक्सी, गुड़ लुकिंग और तथाकथित होरो के हाथ का एक खिलौना और गुड़िया टाइप इमेज से परे जाकर चरित्र में ढलती है। भरोसा नहीं इनकी बाकी की दो फ़िल्में भी देख लीजिए। इस फ़िल्म के लिए भूमि को Best Female Debut का सम्मान भी मिल चुका है।
फ़िल्म देख लिया है तो बहुत खूब; नहीं देखा तो ज़रूर देखिए।
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